गुरुवार, 9 सितंबर 2010

राष्ट्रभाषा - हिन्दी और हिन्दी दिवस

यह अपना भारत देश और यहाँ की राष्ट्र भाषा हिंदी है, पर हम आज भी हिन्दी दिवस मनाते हैं। यह कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि आजादी छठे दशक की पूर्णता की ओर बढ़ते हुए हम आज भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा का स्थान नही दिला पाए। जबकि विश्व में कहीं भी भाषा - दिवस, सप्ताह, पखवारा आदि नही बनाये जाते हैं। वहां बिना दिवस और सप्ताह के ही राष्ट्र भाषाएँ समृद्ध और सम्मानित हैं। हर नागरिक अपने देश कि भाषा का प्रयोग कर गौरवान्वित होता है। भाषा के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने के कारण ही भारतवासियों को विदेशों कि ओर देखना पड़ता है। अपनी भाषा को सम्मान न देने के कारण ही हम आज भी विकाशशील देशों की श्रेणी में कतारबध्द होकर खड़े हैं।

नेतृत्व कर्ताओं ने कहा था कि देवनागरी लिपि को भारतीय संविधान के अनुसार केन्द्रीय कार्यालयों की भाषा १५ वर्षों के उपरांत बनाया जायेगा। किन्तु १५ वर्षों के बीतने पर भारतीय भाग्य विधाता अपनी बात से मुकर गये और यही हमारी राष्ट्र भाषा के साथ घात हुआ जिसे वह आजतक सहन करती आ रही है। हिन्दी और हिन्दुस्तानियों की इस पीड़ा को कबतक अनदेखा किया जाएगा?

यह तो सभी जानते हैं कि किसी स्वतंत्र राष्ट्र के लिये तीन बातों का विशेष महत्त्व होता है तथा इनसे विरत रह कर किसी भी राष्ट्र का गौरव स्थाई नही हो सकता।
१- राष्ट्र ध्वज
२- राष्ट्रीय संविधान
३- राष्ट्र भाषा
भारत में राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रीय संविधान का यथोचित सम्मान न करने वाले के लिये समुचित दंड का प्राविधान है। लेकिन राष्ट्र भाषा हिंदी के संबंध में एसा नही कहा जा सकता। हमारी राष्ट्र भाषा आज भी मेले और झमेले के बीच में फंसी है। हिन्दी भाषा साहित्य की बजाय सत्ता की मुखापेक्षी है। यदि देश कि अनपढ़ जनता हिन्दी का तिरस्कार करती तो क्षम्य था किन्तु राष्ट्र भाषा हिन्दी हमारे शासको-प्रशासको, राजनेताओ, नौकरशाहों, विश्वविद्यालय, तकनीकी महाविद्यालय के प्राचार्यो-आचार्यो की उपेक्षा और तिरस्कार का दुःख झेल रही है।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी बोलकर राष्ट्र भाषा का तथा भारत का मान बढ़ाया था। वही हमारे देश के अन्य प्रधानमंत्री अपनी विदेश यात्रा में विश्वमंच पर अंग्रेजी की पुष्टता और सम्पन्नता से संबंधित कशीदे पढ़ते है।

इंग्लैण्ड में फ़्रांसीसी भाषा का प्रयोग होता था किन्तु वहां के सांसदों ने अपने दृढ निश्चय और भाषा प्रेम के आगे फ्रांसीसी भाषा को संविधान में टिकने नही दिया। इसी प्रकार रूस और चीन भी अपनी भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में हेय नहीं मानते तथा विदेश यात्राओं में दुभाषियों द्वारा अनुवाद कराकर अपने भाषण को प्रस्तुत करते हैं।

प्रश्न यह है कि भारत, जहां एक अरब से अधिक आबादी है तथा बाजारीकरण में प्रमुख स्थान पर रहते हुए भी भाषागत तिरस्कार को क्यों झेलता चला जा रहा है। क्या भारत के निवासियों में स्वाभिमान नही रहा अथवा अंग्रेजी सभ्यता में आकंठ डूब चुके हैं, जिसके कारण राष्ट्र हित का बलिदान करने में भी हिचक नहीं महसूस करते।

अंत में यही कहूंगा कि हमें अपने और राष्ट्र के सम्मान के लिये हिन्दी को उसका पूर्ण सम्मान दिलाना चाहिए। केवल हिन्दी-दिवस मनाने से काम नही होगा हमें हिन्दी जो कि हमारी राष्ट्र भाषा है उसका खोया सम्मान वापस लाना होगा।

जय हिन्दी----------------

जय हिंद---------------

वन्दे मातरम-------------

भारत माता की जय---------------

रविवार, 11 जुलाई 2010

आचार्य चाणक्य


पुण्यमयी मातृभूमि भारत की विशाल ऐतिहासिक परंपरा में वैभव और पराभव, उत्कर्ष और अपकर्ष के अनेक कालखंड मिलते हैंउन्नति और अवनति दोनों ही में उसने अपनी राष्ट्रीय चेतना को जागृत रखा है। दोनों ही स्थितियों में अपनी आत्मा को बलवती बनाया है। पराभव प्राप्त होने पर उसने काल-चक्र की गति को बदलने वाले उन कर्मठ वीरों को जन्म दिया, जिन्होंने अपनी मनस्विता, स्वाभिमान एवं नीति निपुणता के द्वारा राष्ट्रीय आत्मा की सुप्त शक्ति को जगाया। यह शक्ति अन्याय और अत्याचार की भीषण आंधी में भी अपने स्थान पर शांत मुद्रा से डटी रही और अगस्त्य मुनि के समान कठिनाइयों के अलंघ्य विन्ध्याचल अतिक्रमण करके समुद्र जैसी उद्दंड एवं विशाल शक्ति को तीन ही चुल्लू में पान करने में समर्थ हुईइसी प्रकार इसके वैभव और शान्ति के काल में वे ऋषि एवं तत्वज्ञ हुए जिन्होंने आत्मा की ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार करके मानव के कल्याण के लिये सत्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया


इसी परंपरा में भारत में एक ऋषि तुल्य आचार्य का भी कालखंड आता है। इन ऋषि तुल्य आचार्य का नाम था विष्णु गुप्त। विष्णु गुप्त एक ब्राह्मण माता-पिता की संतान थे। जन्म से ओजस्वी विष्णु गुप्त अपने देश भारत के प्रति भी समर्पित थेअध्यापन कार्य उनके जीवकोपार्जन का साधन था। ' आचार्य समाज का विवेक होता है और छात्र उसकी उर्जस्वित शक्ति, दोनों के क्रियाशील रागात्मक सम्बन्ध ही सामाजिक परिवेश को संस्कारित करते हैं ', यह बात आचार्य विष्णु गुप्त " चाणक्य " भलीभांति समझते थेआचार्य चाणक्य में राष्ट्र निर्माण की अटूट भावना थी


राष्ट्र की सुरक्षा में ' शस्त्र ' से अधिक ' शास्त्र ' का स्थान है। ' शक्ति ' से अधिक ' युक्ति ' का महत्त्व है। परन्तु यह भी सत्य है की देश की सुरक्षा के लिये ' शास्त्र ' अथवा ' युक्ति ' बगैर ' शस्त्र ' अथवा ' शक्ति ' के निरर्थक हैंयुक्ति और शक्ति का सुन्दर संयोग ही ' सिद्धि ' के रहस्य का उदघाटन करता है


आचार्य चाणक्य का अपने विषय में कहना था की " मैं ब्राह्मण हूँकरुणा मेरा साम्राज्य है, प्रेम मेरा धर्म है, आनंद रुपी समुद्र के शान्ति द्वीप का मैं अधिवासी हूँ, चन्द्र एवं सूर्य मेरे नक्षत्र एवं दीप हैं, यह अनंत आकाश वितान तथा शश्य श्यामला कोमला विशम्भरा मेरी शय्या है, बौद्धिक विनोद मेरा कर्म है और संतोष मेरा धन। " परन्तु तत्कालीन भारत के अभिशाप तक्षशिला का देशद्रोही राजकुमार आम्भीक, पंचनद नरेश पुरु तथा मगध का विलासी सम्राट नन्द के द्वारा देश के लिये विकट एवं विषम परिस्थितियों के निर्माण करने से आचार्य चाणक्य को अपनी उपरोक्त पहचान को किनारे कर युक्ति और शक्ति के द्वारा राष्ट्र मंदिर का भव्यतम स्वरुप खड़ा करने के लिये प्रेरित कियापरिणाम स्वरुप उन्होंने अपने दो भावुक और देशनिष्ठ शिष्य चन्द्रगुप्त और सिन्ह्हरण को अपने साथ साधना-पथ पर चलने को प्रेरित कियाआचार्य चाणक्य की संगठन कुशलता से ही नन्द-पुत्री नंदिता तथा आम्भीक-भगनी अलका भी उनके साधना-पथ की सहयात्री बनी।

आचार्य चाणक्य अपनी दूर-दृष्टि से देख रहे थे कि भारत पूर्णतः शक्तिशाली नही है| समाज विश्रंखल व्यक्तिनिष्ठ है| इन अवगुणों के कारण देश दिन-प्रतिदिन दुर्बल हो रहा है| देश कि आत्मा के साथ अपनी आत्मा को समरस करने के कारण इस दुर्बलता की वेदना को अनुभव किया| तब आचार्य चाणक्य ने एक विशाल साम्राज्य के मानचित्र की कल्पना की और उस साम्राज्य का सम्राट चंद्रगुप्त को बनाने का प्रण किया|

आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में एक विशाल सेना का गठन किया और उस सेना तथा चंद्रगुप्त की अजेय शक्ति के द्वारा आचार्य चाणक्य ने विश्व-विजय की कामना करने वाले युध्दोन्मादी सिकंदर की सैन्य-वाहिनियो को अपने अधूरे स्वप्न ही लेकर बेवीलोनिया वापस लौटने के लिए विवश कर दिया| इतिहास साक्षी है कि पुरु के युध्द के पश्चात सिकंदर की छावनी तथा उसके बाहर भी उस क्षेत्र की चप्पा-चप्पा भूमि सिकंदर का मनोबल तोडने वाले व्यक्तियों से भारी पडी थी, जिसका पूरा श्रेय दूरदर्शी आचार्य चाणक्य को ही जाता है| जिसके परिणाम स्वरूप सिकंदर को असफलता की आग में जलते हुए बड़ी दयनीय दशा में वापस लौटना पड़ा| लेकिन सिकंदर अपना अपमान बर्दाश्त नही कर पाया और मार्ग में ही अपने प्राण त्याग दिए तथा अपनी मातृभूमि के दर्शन भी नही कर सका|

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि गुलामी का अथवा गुलाम मनोवृत्ति वाले इतिहासकारों का इतिहास इस इतिहासिक सत्य को नही मानता|

आचार्य चाणक्य जहाँ अलक्षेन्द्र (एलेकजेंडर) जैसे महत्वाकांक्षी, कूटनीतिग्य एवं युध्द-पिपासु साम्राज्यवादी को भारत की सीमा से बहुत दूर खदेड देने की सफलतम योजनाओं स्रष्टा थे वहीँ देश की आतंरिक दशा के प्रति उतने ही सतर्क, सचेष्ट और चिंतित भी थे|

आचार्य चाणक्य जीवनपर्यंत स्वयं पद और प्रतिष्ठा से निर्लिप्त रह कर राष्ट्र को एक सुद्रढ़ आधार पर खडा करते रहे| आचार्य चाणक्य ने उस समय के अनेक गणराज्यों एवं जातियों के परस्पर वैरभाव को मिटाकर उनको एकसूत्रता का व्यावहारिक तथा चिरस्थायी पाठ भी पढ़ाया| इसी का परिणाम था कि उस समय का स्थापित किया हुआ साम्राज्य अनेक झझाओ के बाद भी लंबे समय तक गौरवपूर्ण ढंग से भारतीय संस्कृति की जय-गाथा सुनाता रहा|

आज के समय में अपना देश भारत जिन झंझाओं और परिस्थितियों से गुजर रहा है, उससे निदान पाने के लिए वैसे ही "आचार्य चाणक्य" की आवश्यकता है|

" चाणक्य आओ तुम्हारा यह देश फिर बेहाल है "

वन्दे मातरम........................

भारत माता की जय..................


बुधवार, 7 जुलाई 2010

धर्म रक्षक ?

जीवन चल रहा है ------ चलता रहेगा। पर जब यह संसार छोड़ना पडेगा तब क्या होगा ?

कौन बताएगा जीवन का सत्य? धर्म का वास्तविक अर्थ? परमात्मा का सामीप्य प्राप्त करने का मार्ग? धर्म रक्षा के साधन? हम किससे जाने इन प्रश्नों के उत्तर?

आधुनिक युग के धर्म चर्चा करने वाले सुन्दर मुख-मुद्रा के आडम्बर ओढ़े तथा कथित कथावाचक केवल सुन्दर शब्दों एवं कंठ द्वारा पौराणिक कथाओं को सजा सकते है, पर जीवन का सत्य, धर्म का अर्थ, परमात्मा के सामीप्य का मार्ग, धर्म रक्षा के साधन, धर्म के लिये बलिदान होने की प्रेरणा नही दे सकते। वे योगेश्वर कृष्ण की रास लीला का बखान कर सकते है परन्तु उनके सुदर्शन चर्क्र का वर्णन नही कर सकते। धर्म गुरू बन कर अपने शिष्य मंडल की संख्या में वृद्धी कर सकते है पर धर्म रक्षक बन कर अपना बलिदान देने को तत्पर नही हो सकते। सुसज्जित पंडालो में पौराणिक कथाओं का संगीत युक्त वाचन-गायन कर अकूत धन-संपदा बना सकते है पर मानव-कल्याण हेतु अपनी अर्जित संपत्ति दान नही कर सकते।

ऐसे कथावाचक धर्म-चर्चा नही सिर्फ धन-चर्चा ही भलीभांति कर सकते है। धर्म के ऐसे व्याख्याकारो से सावधान !!

वन्दे मातरम ----------

भारत माता की जय ---------

सोमवार, 21 जून 2010

तेज पुंज का प्रतीक - भगवा ध्वज

हमारी हिन्दू संस्कृति कि यह विशेषता है कि हमारे जितने श्रद्धा के केंद्र हैं, मान-बिंदु हैं, उनके पीछे कोई न कोई श्रेष्ठ तत्व अवश्य है। आज दुर्भाग्य से वे तत्व सुप्तावस्था में हैं, वे सिद्धांत अमूर्त रूप में हैं और इसी कारण हमारा यह ह्रास दृष्टिगोचर हो रहा है। आज आवश्यकता है उन तत्वों को जागृत अवस्था में, उन सिद्धांतों को मूर्त रूप में लाने की, उनको अपने आचरण में प्रत्यक्ष रूप से कार्यान्वित करने की। इसका एक ही उपाय है किउन तत्वों को, उन सिद्धांतों को बोधगम्य बनाना, उनको ऐसे रूप में सामने रखना जिससे साधारण जनता ठीक प्रकार से समझ सके और हृद्यंगम कर सके।

इन्ही श्रेष्ठ तत्वों की कड़ी में हमारा भगवा ध्वज भी आता है। विचारणीय बात है की हमारा देश कितना समृद्धिशाली देश था, परन्तु आज ---- ? आज की हमारी स्थिति संतोषजनक नहीं है। इस स्थिति से निकलने का केवल एक मार्ग है की हम अपनी संस्कृति को पुनः गौरवशाली बनाने का दृढ निश्चय लेकर समस्त हिन्दू समाज को सुसंघटित करें। यह तभी हो सकता है जब हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा का हमें हर समय ध्यान रहे। इसके लिये हमें अपने राष्ट्र ध्वज के साथ साथ अपना पुरातन ' भगवा ध्वज ' भी अपनाना होगा। इस भगवा ध्वज को देखते ही हमे अपने पूर्व गौरव का ध्यान हो आता है। अपनी परंपरा का आँखों के सम्मुख चित्र उपस्थित हो जाता है। इसी भगवा ध्वज के नीचे हुए असंख्य बलिदानों का स्मरण हो आता है। जिनके कारण आज हम खुद को हिन्दू के रूप में जीवित देखते हैं। यह भगवा ध्वज हमारे हिन्दू-राष्ट्र की आशाओं-आकांक्षाओं तथा हिन्दू-राष्ट्र का तेजपुंज प्रतीक है। इस भगवा ध्वज का सम्मान-रक्षण हमारे जीवन का आद्य-कर्तव्य है। यह बात प्रत्येक हिन्दू के मन में जागृत हो तथा इस ध्वज के पीछे जो हमारी संस्कृति का अमूर्त गौरव छिपा है उसे मूर्त रूप देने में कार्यशील हों। यह हम सब हिन्दुओं का कर्तव्य है। ये ही कामना है।

वन्दे मातरम्------

भारत माता की जय------

रविवार, 20 जून 2010

सांस्कृतिक परम्परा

हिन्दू संस्कृति मानव जीवन की शक्ति, प्रगतिशील साधनाओं की विमल विभूति, राष्ट्रीय आदर्श की गौरव मयी मर्यादा और स्वतन्त्रता की वास्तविक प्रतिष्ठा है। इस तथ्य का चिंतन करते हुए हिन्दू परम्परा ने सदा संस्कृति-निष्ठां के मंगलमय मार्ग को अपनाया। फलस्वरूप हिन्दू-संस्कृति भारत भूमि के कण-कण में व्याप्त है, भारतीय साहित्य के पद-पद में ओत-प्रोत है और भारतीय इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है।

इसके अधिष्ठान एवं अनुष्ठान को अक्षुण बनाए रखने के लिये अपेक्षित है सांस्कृतिक आचार्यों के उन आचरणों का अनुशीलन और अनुसरण, जिनके द्वारा हिन्दू संस्कृति के तत्वों की अभिव्यक्ति होती है।

हिन्दू संस्कृति के निर्वाहक इन आचार्यों ने हिन्दू संस्कृति के द्वारा खुद को सुसंस्कृत किया। इसी का सुखद परिणाम है कि विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों एवं सैध्दांतिक मतभेदों के रहने पर भी सांस्कृतिक परम्परा की अविच्छिन्न गति में किसी प्रकार का अंतर न पड़ सका। आत्म-कल्याण के साधनों में विविधता आने पर भी सर्वभूतहित की भावना पर किसी प्रकार की ठेस न लगाने पायी। उसी परम्परा के अनुसरण करने में ही मानव जाति का कल्याण है।

वन्दे मातरम---------

भारत माता की जय------

गुरुवार, 17 जून 2010

हिन्दू संस्कृति के गुण

क्षमा, दया, शांति, संतोष, शम, दम, धैर्य, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तेज, विनय, सरलता, धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता, निराभिमानता, ह्रदय कि पवित्रता, आस्तिकता, श्रद्धा आदि सद्गुण तथा यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, उपवास, सेवा, पूजा, आदर-सत्कार, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य का पालन, सत्चरित्रता, स्वाध्याय, परोपकार तथा माता-पिता, गुरुजनों की सेवा एवं दुखी, अनाथ-आतुरों की सुश्रुसा आदि सदाचार है। यही हिन्दू संस्कृति है।

वन्दे मातरम--------

भारत माता की जय-----

सोमवार, 14 जून 2010

चोचलेबाज नेता

बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार जी ने भाजपा की ओर से लगाये गये पोस्टर जिसमे उनको गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के साथ दिखाया गया था, से नाराज हो गये, ( अपने को धर्मनिरपेक्ष जताने के लिये ) और बयान दे डाला कि " कोसी नदी में आई बाढ़ के वक्त गुजरात से मदद स्वरुप मिला धन सूद सहित वापस कर देंगे।" कितना घिनौना स्वरुप है यह राजनीती का। नितीश जी के इस बयान से उनकी मौकापरस्ती, संकीर्ण मानसिकता का पता चलता है। इस बयान से यह भी पता लगता है कि वे एक जननेता नही बल्कि दलविशेष के दल नेता हैं। कहीं भी किसी भी प्रकार की आपदा आने पर संवेदनशील व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार मदद करता है। कोई भी मदद लेकर बाद में किसी अनबन के कारण ली गयी मदद को सूद सहित वापस करने कि बात नहीं करता, अगर करता है तो ऐसा व्यक्ति संवेदनहीन ही कहलायेगा।

धन्य हैं गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी जिन्होंने गुजरात में आये भूकंप में बिहार से मिली सहायता को सहर्ष स्वीकार किया था और अब बिहार के लोगों को उनके द्वारा दी गयी सहायता का धन्यवाद भी कर रहे हैं। श्री नरेन्द्र मोदी जी जैसे नेता ही जन नेता की श्रेणी में आते हैं।

श्री नितीश कुमार जी से निवेदन है कि वे अपनी कुंठित मानसिकता एवं चोंचलेबाजी का त्याग करें जिससे वे एक सफल जन नेता कहला सकें।

वन्दे मातरम------

भारत माता कि जय------

रविवार, 6 जून 2010

स्वतन्त्रता संग्राम के अमर गीत ( ४ )

"वन्दे मातरम" के दो शब्दों के सहारे देश की आजादी के दीवानों ने तोपों के मुंह और फांसी के फंदों को चूमा और हंसते - हंसते शहीद हो गये। क्रांतिकारियों को इस देश के रचनाकार, लोकगीतकार, कवि और शायरों ने अपने गले का हार बनाया और नित नए-नए गीतों की रचना की। शताब्दियों से पराधीन, अपमानित, और रूढिग्रस्त समाज के ठहरे हुए जल में अपनी रचनाओं के द्वारा ज्वार पैदा किया।

कानपुर के कवि और स्वतन्त्रता सेनानी स्व० श्री श्याम लाल गुप्त 'पार्षद' द्वारा रचित झंडा गीत बहुत प्रचलित हुआ--------

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाले,
वीरों को हरषाने वाला,
मात-भूमि का तन-मन सारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा॥

क्रांतिकारियों के प्रिय गीत जो वे अक्सर गाया करते थे------------

मेरे शोणित की लाली से, कुछ तो लाल धरा होगी ही,
मेरे वर्तन से परिवर्तित, कुछ परम्परा होगी ही॥
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ऐ मात-भूमि जननी सेवा तेरी करेंगे,
तेरे लिये जियेंगे, तेरे लिये मरेंगे॥
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मेरी जाँ ना रहे मेरा सिर ना रहे, सामाँ ना रहे ना ये साज रहे,
फकत हिंद मेरा आजाद रहे, आजाद रहे, आजाद रहे॥
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माँ, कर विदा आज जाने दे,
जग में तेरा मान बढाने धर्म-कर्म का पाठ पढ़ाने,
वेदी पर बलिदान चढाने, सर में बाँध कफ़न आजादी के दीवाने,
माँ, रण चढ़ लौह चबाने दे,
माँ, कर विदा आज जाने दे॥
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कवि, लिख तो कविता ऐसी लिख,
जिसमें मृदु प्रेम पराग ना हो,
दीपक पतंग कविता तरंग,
कोयल बुलबुल का राग ना हो,
धकधका उठे त्रिभुवन सारा,
ठंडी जिसकी आग ना हो॥

समस्तीपुर जनपद बिहार के निवासी श्री विद्याभूषण मिश्रा 'मयंक' की सन १९४२ की एक रचना का अंश-----

त्रिशूल नीलकंठ से पुनः मांग लो, बढ़ो,
अभीष्ट सिध्द के लिये हिमाद्रि तुंग पर चढो,
ज्वलंत अग्नि पिंड सा प्रचंड वेग लो बढ़ो,
अनिष्ट झेलने अमर्त्य शूरमा बढ़ो-बढ़ो,
चक्रव्यूह भेदने, बढ़ो सृष्टि के महान,
रण भैरवी बजी सुनो उठो, देश के जवान॥

कवि रत्नेश एक भावुक कवि थे परन्तु उनकी भावुकता के पीछे देश की आजादी के लिये आग भरी थी-----

धरती मांग रही बलिदान, बच्चों-बूढों बढ़ो जवान,
सभी संपदा अपनी है, ये धरती अपनी जननी है॥

प्रसाद जी की लेखनी से भी उस समय शब्द रुपी शोले झर रहे थे--------------------

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला, स्वतन्त्रता पुकारती,
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ से चलो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढे चलो, बढे चलो॥



वन्दे मातरम----------------------

भारत माता की जय----------------------

शुक्रवार, 4 जून 2010

स्वतंत्रता संग्राम के अमर गीत ( ३ )

भारत के स्वाधीनता संग्राम में जहाँ आजादी के लिये क्रांतिकारी अपने प्राण हथेली में लेकर अंग्रेजों से लड़ते रहे वहीँ राष्ट्रभक्त रचनाकार ऐसी रचनाओं का सृजन करते रहे जिससे स्वाधीनता संग्राम में चेतना का संचार हो और जनमानस पराधीनता की बेडी तोड़कर फेंकने को तत्पर हो।

मेरे पिछले दो लेखों में आपने कुछ ऐसी ही रचनाओं का अवलोकन किया, प्रस्तुत हैं कुछ अन्य रचनाएं----

गीतकार श्री श्याम सुन्दर शर्मा 'कलानिधि' की रचना के अंश ---------

हम हिन्दू है, हिन्दू - जीवन का,
हमको सतत स्वाभिमान॥
मुगलों से होकर स्वतंत्र हम हुए
पुनः परतंत्र हाय अंग्रेजों के हाँथ,
पर अंग्रेजों को याद हमारी,
सन सत्तावन की कृपाण,
हम हिन्दू हैं----
चित चाह बसंती चोला की,
दे-दे पूर्णाहुति मुक्ति हेतु,
हम खेलें फांसी, गोली से,
फहराने को राष्ट्रीय केतु।
हिल उठी ब्रिटिश इम्फाल भूमि-
तक देख हमारा अधिष्ठान,
हम हिन्दू हैं, हिन्दू जीवन का
हमको सतत स्वाभिमान॥

किसी कवी ने भारत की नारियों के बलिदान को अपने शब्दों से कुछ इस प्रकार संवारा----

हिन्दू-नारियों के बलिदान की कथा पढो,
दुर्ग में चित्तौर के लिखी जो रज-रज में।
चुनी जो चिनाब में, विपत्ति झेल झेलम में,
रावी में रुधिर रख लाज सतलज में॥

कवि शिव दुलारे मिश्र ने सत्य ही कहा है----

स्वतंत्रता की पूजा के हित हमने जीवन-थाल संवारा है,
अगणित वीरों की अमर ज्योति से ज्योतित मार्ग हमारा है॥

कवि माखन लाल चतुर्वेदी की अमर कविता 'पुष्प की अभिलाषा' शरीर को झंकृत कर देती है----

----मुझे तोड़ कर वनमाली ! उस पथ पर देना तुम फेंक,
मात भूमि पर शीश चढाने जिस पथ जावें वीर अनेक॥

स्वतंत्रता के दीवाने कवि शिरोमणि श्री छैल बिहारी मिश्र 'कंटक' जेल यात्रा, स्वाधीनता आन्दोलन के साथ साथ अपने गीतों के द्वारा जनमानस को भी स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ते थे----

देख दासता दूषित दुर्बल, दीन देश का हाहाकार,
सहमे, ह्रदय भी हिल गया, आँखों से निकली अश्रुधार,
धधकी अंतस्तल की ज्वाला, कठिन हो गया पाना त्राण,
सुख से समरांगनमें कूदे, लिये हथेली पर निज प्राण॥

बंकिम चन्द्र चटर्जी का गीत ' वन्दे मातरम ' क्रांतिकारियों के बीच काफी लोकप्रिय था, साथ ही हर आन्दोलन में बड़े जोर शोर से गाया जाता था। 'वन्दे मातरम' गीत की प्रशंसा में एक गीत लिखा गया, गीतकार के नाम से अनजान हूँ परन्तु गीत बहुत लोकप्रिय हुआ----

हम हिन्दुस्तानियों के गले का हार वन्दे मातरम,
छीन सकती है नहीं सरकार वन्दे मातरम्॥
सर चढों के सर में चक्कर उस समय आता जरूर
कान में पहुंची जहां झंकार वन्दे मातरम्॥
मौत के मुंह पर खड़ा हूँ कह रहा जल्लाद से
झोंक दे सीने में अब तलवार वन्दे मातरम्॥
ईद, होली और दशहरा शबरात से भी सौ गुना
है हमारा लाडला त्यौहार वन्दे मातरम्॥
जालिमों का जुल्म भी काफूर सा हो जाएगा
फैसला तो होगा अब सरे दरबार वन्दे मातरम्॥

शेष अगले लेख में----

वन्दे मातरम्-----

भारत माता की जय----

गुरुवार, 27 मई 2010

स्वतंत्रता संग्राम के अमर गीत ( २ )

मेरे पिछले लेख में आपने कुछ कवी और लोकगीतकारों की रचनाओं का संक्षिप्त रूप देखा। आज प्रस्तुत हैं कुछ अन्य रचनाकारों की रचनाएं -----

भारत में अंग्रेजों के दुष्कृत्यों तथा अत्याचारी-तानाशाही पूर्ण शासन से विक्षुब्ध हो कर कलमकारों ने अपनी लेखनी के द्वारा क्रान्ति का उद्घोष किया।

बिहार प्रान्त के शाहाबाद जनपद के डुमराव नामक स्थान में जन्में श्री मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने ' फिरंगिया ' नामक पुस्तक लिखी जो अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गई। प्रस्तुत है उसी पुस्तक की कुछ पंक्तियाँ ------

सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा,
आज उहे भईल मसान रे फिरंगिया॥
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एको जो रोउवां निरदेसिया के कलपति,
तोर नास होई जाई सुन रे फिरंगिया॥
दुखिया के आह तोरे देहिया के भसम करी,
जरि भुनि होई जईबे छार रे फिरंगिया॥
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भारत की छाती पर, भारत के बच्चन के,
बहल रक्तवा के धार रे फिरंगिया।
दुधमुहाँ लाल सम, बालक मदन सम,
तड़प-तड़प देले जान रे फिरंगिया॥

तत्कालीन गीतों में गीतकारों ने अपनी शब्द रचना के द्वारा जन चेतना जागृत की। बलिया के श्री प्रसिद्ध नारायण सिंह ने भोज पूरी भाषा में कुछ इस प्रकार लिखा------

अलगा आपन बोली बिचार,
कन-कन में जेकरा क्रांति बीज,
अइसन भोजपुर तप्पा हमार,
इतिहास कहत है पन्ना पसार॥

अंग्रेजों के अमानुषिक अत्याचारों पर श्री प्रसिद्ध नारायण सिंह ने ही लिखा-------

गांवन पर दगलानी गन मसीन,
बेंतन सन मरलन बीन-बीन।
बैठाई डाल पर नीचे से,
जालिम भोकलेन खच-खच संगीन।
बहि चलल खून के तेज धार।।

घर घर से निकलली आहि-आहि,
कोना-कोना से त्राहि-त्राहि,
गांवन-गांवन लूट फूंक,
मारल काटल भागल पराहि,
फिर कवन सुने केकर पुकार॥

बनारस में काशिराज चेत सिंह के साथ अंग्रेज अफसर वारेन हेस्टिंग्स का भीषण संघर्ष हुआ। तब बच्चे-बच्चे की जबान से निम्नलिखित दो पंक्तियाँ गूंजा करतीं थीं जो आज कल भी कहीं कहीं सुनाई पड़ जाती हैं----

घोड़े पर हौदा हाथी पर जीन,
जल्दी में भाग गया वारेन हेस्टीन॥

स्वयं बहादुर शाह जफ़र ने अपनी कलम से लिखा था---

गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की
तख्तें लन्दन तक चलेगी, तेग हिदुस्तान की॥

एक लोक रचनाकार का निम्न छंद बाजुओं को फड़का देता है---

तेगन से मारि-मारि तोपन को छीन लेत,
गोरन को काटि-काटि गीधन को दीन्हा है।
लन्दन अंग्रेज तहां कंपनी की फौज बीच,
मारे तरवारिन के कीच कर दीन्हा है॥

भारत का इतिहास ऐसे सशस्त्र मोर्चों से भरा पड़ा है। जिसमे भारतीय नारियों ने न केवल भाग लिया अपितु कई मोर्चों का सफल नेतृत्व भी किया। इसमें कुछ नाम प्रमुख हैं---- देवी चौधरानी, चुआड़ की रानी शिरोमणि, कित्तूर की वीर रानी चेनम्मा, शिवगंगा की वीरांगना वेलुन्चियार, नेपाल की महारानी लक्ष्मीदेवी और पंजाब की रानी जिन्दा।

किसी कवी ने ऐसी वीरांगनाओं के लिये लिखा है----

रण में जाकर डट गयीं कभी,
अरिदल को मार भगाने को,
चंडी का प्रबल प्रचंड तेज़,
दुनिया को याद दिलाने को।

या झटपट उद्यत हुईं स्वयं ही,
अनल-ज्वाल धधकाने को,
लपटों में जा छिप गयीं कभी,
जो अपना धर्म बचाने को।

इसके कारण ही मान बढ़ा,
जौहर-व्रत की चिंगारी का,
है कितना गौरवशाली पद,
वसुधा में हिन्दू नारी का॥

शेष अगले लेख में----

वन्दे मातरम्-------

भारत माता की जय-------

मंगलवार, 25 मई 2010

स्वतंत्रता संग्राम के अमर गीत ( १ )

भारत की आजादी के लिये हुए स्वतन्त्रता-संग्राम में जहां आजादी की दीवाने क्रांतिकारी देश के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर स्वातंत्र-यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे कर अमर हो गये, वहीं, उसी स्वातंत्र-यज्ञ में देश-प्रेमी कलमकारों ने अपनी लेखनी के द्वारा जनमानस को झिंझोड़ा और स्वातंत्र-समर में भाग लेने को प्रेरित किया।

यहाँ उन्ही जाने-अनजाने कवियों, कलमकारों की प्रतिष्ठित और गुमनाम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-----

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद के कवि स्व० कृष्ण शंकर शुक्ल 'कृष्ण' द्वारा रचित 'वेणी माधव बावनी' का अवधी भाषा का एक छंद अत्यंत प्रेरक था----

तेरी तेग ताव माँहि तडपत जात कृष्ण,
काटि-काटि मुंड झुण्ड दुंद पट कतु हैं।
मच्छिका समान ही उड़ाती है शत्रु शीश,
गौरंग सुअंग को सुआंग सो रंगतु है।
खंग कोपि तोपि देत तोपन को लोथिन सों,
गगन-गगन को तो कछु ना गनतु है।
सिर पै समान असि, सर पै समान अरि,
सर पै नहाय रक्त, सरजा करतु है॥

कवि अजीमुल्ला ने अपनी पुस्तक 'पयामे आजादी' में आजादी प्राप्त करने के लिये नवजवानों को कुछ इस प्रकार ललकारा----

आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा,
तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।
हिन्दू-मुस्लिम-सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,
यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा॥

वीर सपूता बुंदेलखंड के सूरमाओं ने अंग्रेजों को मरते दम तक बुदेलखंड में प्रवेश नहीं करने दिया। एक अनाम लोकगीतकार ने अपने लोकगीत में कहा----

मचले आजादी के लाने, बुन्देला दीवाने,
मर्दन सिंह बानपुर वारे, नाहर से गुर्राने,
लखतन मर्दन सिंह को, गोरा छिरिया से मिमियाने,
कहत भवानी सुन लो प्यारे, मर्दन मरद कहाने॥

बुंदेलखंड के एक अन्य लोकगीतकार श्री देविदास जी का प्रचिलित लोकगीत----

लोहागढ़ के वीर बाँकुरे, अंग्रेजन को मारें,
भुट्टा से काटें पल-पल में, कोऊ ना आवे द्वारे,
मच गयी खारेन कीच खून की, भागी पलटन गोरी,
देविदास फतह झांसी की हो, यह अर्जी है मोरी॥

श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान जो स्वयं भी एक स्वतंत्रता सेनानी थीं। उनकी प्रसिद्ध कविता 'झांसी की रानी' का एक अंश----

बुंदेले हरबोलों के मुख,
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी,
वह तो झांसी वाली रानी थी॥

प्रो० राजमणि शुक्ल 'विवेक' ने अपनी भोजपुरी भाषा की कविता में लिखा----

अन्धेरि अउर अनियाऊ रहलि अंग्रेजन कर जेठी बेटी,
जनता के समुझि लिहे रहलेनी ओन्हने घर की चेटी॥

-------------------
घर-घर चिठिया पहुँचली नेवता कर खून कई अच्छर कागज़ नाहीं,
ठकुरान हथवां हेन्सली तलवारि आजादी कई जोरा उठल मन माँहि,
हाथ उठाइके नीर कहई घुंघटा के तरे रहबी अब नाहीं,
देश के प्रेम कई पीर, घरे बइठी अंगरेज कई मेम सिहाहीं,
कंत के साथ बसंत बिना, खुन्वां कर आज जरी अब होली,
रूप कई अच्छत, ओठ कई अमृत, जै-जै भारत मंत्र कई बोली॥

--------- शेष अगले लेख में----

वन्दे मातरम -----

भारत माता की जय ----------

शनिवार, 22 मई 2010

संस्कृति पर कुठाराघात

भारतीय संस्कृति मानव जीवन की शक्ति है। हमारे राष्ट्रीय आदर्श की गौरवमयी मर्यादा है। मानव-जीवन की स्वतन्त्रता की द्योतक है। हमारे सामाजिक व्यवहारों को निश्चित करती है। भारतीय संस्कृति भारत की प्रेरक शक्ति है।

भारत में कई विदेशी जातियां विभिन्न उद्येश्यों से आयीं और भारत में ही बस गयीं। अंग्रेज भी भारत इसी प्रकार आये थे और भारत में अनेक वर्षों तक राज्य कियाa। अंग्रेजों के शासन से भारतीयों के आचार-विचार, रहन-सहन आदि पर बहुत प्रभाव पड़ा। भारत ने अंग्रेजों से संघर्ष कर के देश तो आजाद करा लिया, परन्तु अपनी संस्कृति में पूरी तरह से नहीं लौट पाए। ब्रिटिश शासन काल में तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट (भारत मंत्री) लॉर्ड मैकाले ने भारत में रह कर यह आभास किया की भारत वंशियों की संस्कृति को नष्ट किये बिना भारत में शासन करना कठिन है। इस पर उस ब्रिटिश शासनाधिकारी ने गहन विचार कर यह निर्णय लिया की भारत में हम अब ऐसी जाति पैदा करेंगे जिसका रंग और रक्त तो भारतीय होगा परन्तु शिक्षा, रूचि और संस्कृति से वह अंग्रेज होगा। जिसके परिणाम अब भारत में स्पष्ट रूप से दिखलायी पड़रहे हैं।

हमारे कर्म, विचार और आचरण में भारतीयता का अभाव साफ़ दिखता है। हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हैं पर मानसिक गुलाम हैं। स्वाधीनता शब्द के वास्तविक अर्थ का विचार ना करके केवल स्वाधीनता शब्द की रट लगाना, पीड़ित और क्रीतदास की मनोवृति होने के अलावा और कुछ नहीं।

हिन्दुस्तान की राजनैतिक स्वन्तान्त्रता का तभी कोई सार्थक अर्थ हो सकता है, जब यहाँ भारतीय जीवन के अनुकूल शाशन और शिक्षा व्यवस्था हो। स्वतंत्र भारत के शास्नाधिकारियों का यह कर्तव्य है की हिन्दुस्तानी जीवन के सर्वोन्नती के मार्ग भारतीय संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये अंग्रेजों ने जो अपनी विदेशी शिक्षा, शिक्षा पद्धति और संस्कृतिके प्रसार द्वारा अपने हित और दूरगामी परिणाम वाले राजनैतिक षड्यंत्र रचे थे उन्हें निर्मूल करें और भारत में भारतीय संस्कृति की रक्षक एवं अनुकूल शिक्षा एवं शाशन व्यवस्था बनाये। स्वतंत्र भारत के शासकों का यह कर्तव्य है की वे इस बात का ध्यान रखें की भारत में रहने वाले हर वर्ग की उन्नति और उनके सांस्कृतिक अधिकार निष्कंटक बने रहें।

व्यक्ति निर्माण ही समाज-निर्माण और समाज-निर्माण ही देश और विश्व के निर्माण का कारक है। व्यक्ति निर्माण श्रेष्ठ संस्कृति के बिना संभव नहीं। किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उसकी संस्कृति से ही स्थायी रह सकता है।

भारत का उत्थान भी भारतीय संस्कृति के पालन से ही संभव है। अपनी संकृति का त्याग मनुष्य, समाज और देश की अवनति का कारक है। बड़ा आश्चर्य होता है की हमारे शासक वर्ग ने अंग्रेजों की बहुत बातें ग्रहण की पर उनसे वे उनके स्व-सभ्यता-प्रचार को नहीं सीख पाए। आज कहने को तोह देश में हिन्दुस्तानियों का शासन है, किन्तु भारतीय संस्कृति के विकास के लिये कोई सुदृढ़ प्रयास होता दिखाई नहीं देता। देश में जब तक भारतीय संस्कृति के अनुरूप भारतीय शिक्षा पद्धति का विकास नहीं किया जाएगा तब तक यह देश 'भारत' होते हुए भी अभारतीय भावों का शिकार बना रहेगा।

हम स्वतंत्र तो हो गये, पर हम, हमारे शासक अपनी भारतीय संस्कृति के अनुपालन में शिथिल हैं। हम अंग्रेजों की भाषा-भूषा-संस्कृति को ज्यादा महत्व देने लगे हैं। किसी भी व्यक्ति के लिये अंग्रेजी भाषा या विश्व की अन्य किसी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना और उसमे पारंगत होना बहुत गर्व की बात है। परन्तु अपनी संस्कृति को छोड़ना, उससे दूर हो जाना तो अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारना है, अपनी पहचान की कब्र खोदना है। ऐसा कर के तो हम अपनी संस्कृति को नष्ट और लुप्त करने के मार्ग पर बढ़ेंगे। हमें और हमारे शासक वर्ग को ध्यान रखना चाहिए कि अगर भारत की संस्कृति नष्ट या मृत हो गयी तो भारत का भी जिन्दा रहना मुश्किल है। विश्व के मानचित्र से भारत का नामोनिशान मिट जाएगा।

इसलिए हमे हर प्रयास करके अपनी संस्कृति को जिन्दा रखना है। तभी हम पूर्ण स्वाधीन और स्वतंत्र हो सकेंगे तथा भारत को विश्व पटल पर सर्वोच्च स्थान दिला सकेंगे।

वन्दे मातरम----------

भारत माता कि जय----------

सोमवार, 17 मई 2010

! ! जय - हिंद ! !

( मित्रों क्षमा चाहता हूँ की मेरा यह लेख काफी बड़ा हो गया है। मैं विवश हूँ। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर जब भी लिखा जाता है, शब्दकोष के शब्द तो कम पड़ ही जाते हैं, लेखनी भी और लिखने को मचलती रहती है। )

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की 'विमान दुर्घटना में मृत्यु' की बात सत्य है या असत्य, कुछ पता नहीं। उनका निधन उस दुर्घटना में हुआ या नहीं ? अगर नहीं हुआ तो नेताजी ने अपना बाकी जीवन कहाँ और कैसे बिताया ? वे फिर कभी वापस भारत आये या नहीं ? ऐसे तमाम सार्थक प्रश्नों का उत्तर कब मिलेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर की देश और देशवासियों के लिये काफी उपयोगिता है।

पर, अब इससे भी ज्यादा उपयोगी प्रश्न यह है कि हम सुभाष बाबू के विचार, उनका देश के प्रति असीम प्यार, उनकी सोच, उनके आदर्श को जीवित रखें।

उनके विचार-सोच आज भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके जीवनकाल में थे। सरकारी तथा गैर सरकारी दोनों स्तर के कुछ स्वार्थी लोगों ने उनके विचार, उसूल और आदर्शों का सही रूप प्रस्तुत करने के बजाय एक पहेली, एक कहानी, एक मिथक बना कर रख दिया। इन स्वार्थी लोगों ने सुभाष बाबू को कभी भी एक राष्ट्रवादी राजनैतिक, सिद्धांतवादी सामाजिक कार्यकर्ता, भविष्यदृष्टा एवं दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया। देश की आजादी से लेकर आज तक भारत में बनी सरकारों के इस स्वार्थ और कुटिल शरारत से भरे दोष को जनमानस के सामने उजागर करना समाज के देशभक्त बुद्धिजीवी वर्ग का परम कर्त्तव्य है। जिससे भावी पीढी नेताजी के आदर्शों को अपना कर देश को सही और उचित मार्ग पर ले जाएँ।

नेताजी में नेतृत्व के सभी गुण विद्यमान थे। उनकी उत्कट देशभक्ती, त्याग कि भावना, कार्य निष्पादित करने की लगन और दूरदृष्टि की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। नेता जी बहुत भावुक भी थे, भक्ति संगीत सुनकर भाव विभोर हो जाते थे। देश भक्ति का जज्बा, देश पर कुर्बान हो कर इतिहास-पुरुष बनकर पीढ़ियों तक आदर्श बन जाना-- यह खुशनसीबी विरलों को ही मिलती है। हमारे नेताजी ऐसे ही खुशनसीब व्यक्ति थे।

दुसरे विश्वयुद्ध ने विश्व के देशों के आपसी रिश्ते और कई देशों की भौगोलिक सीमायें तक बदल दीं। सुभाष बाबू का कहना था की ऐसे वक्त पर हिन्दुस्तान को आजाद कराया जा सकता है। उनका यह भी दावा था कि भारत कि आजादी के लिये यह आखरी जंग साबित होगी। उनका कहना था की यह आजादी सिर्फ भारत की ही नहीं अपितु पूरी मानवता कि आजादी होगी और बर्तानिया साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील होगी।

भारत के महान क्रांतिकारी गण सुभाष बाबू के आदर्श थे। सुभाष बाबू आजीवन पक्के और वफादार कांग्रेसी रहे। सुभाष बाबू गांधी जी के अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिलाने की खोखली नीति पर कभी विश्वास नहीं करते थे। इसी कारण से नेहरु जी की कांग्रेस ने द्वेष वश कभी सुभाष बाबू का साथ नहीं दिया। जिस समय आजाद हिंद फ़ौज की टुकड़ियां मोर्चे पर मोर्चा मारती हुई भारत की धरती की ओर बढ़ती आ रही थीं, उस समय कांग्रेस ने, जिसके हाथ में करोडो हिन्दुस्तानियों कि नब्ज थी जिससे आजाद हिंद फ़ौज को काफी मदद मिल सकती थी, ऐसा कुछ नहीं किया। बल्कि २४ अप्रैल १९४५ को जब भारत आजाद हिंद फ़ौज और सुभाष चन्द्र बोस के प्रयासों से आजादी के कारीब था तब जवाहर लाल नेहरु ने गुवाहाटी की एक जन सभा में कहा " यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान कि मदद से भारत पर हमला किया तो मैं स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लड़कर रोकने जाऊँगा। " ( वाह ! री कांग्रेसी देशभक्ति )

सुभाष बाबू का सपना था एक आजाद, ताकतवर और समृद्ध भारत। वे भारत को एक अखंड राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। कांग्रेस देश का विभाजन करके सुभाष बाबू के अखंड आजाद हिंद आन्दोलन की पीठ पर छुरा भोंक दिया। विभाजन का घाव तो एक दो पीढ़ियों के बाद भर जाता, लेकिन दो देश, तीन धर्म पर उसके दुष्प्रभावों ने नफरत की शक्ल में जड़े जमा ली हैं जो कि वक़्त गुजरने के साथ और मजबूत ही हुई हैं। अगर नेता जी कि चेतावनियों पर कांग्रेस समय रहते ध्यान देती और अपने गोरे रहनुमाओं के विभाजन के जाल में ना फंसी होती तो मानवता के माथे पर भयानक रक्त-पात का कलंक लगने से बच जाता।

कांग्रेस का तो बस एक ही राग है गांधी जी ने अपने अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिला दी। कांग्रेस की जनसभाओं में गा-गा कर एक ही राग अलापा जाता है--- " दे दी हमें आजादी ----- कर दिया कमाल। " उन सैकड़ों - हजारों शूरवीरों का इतिहास नें कहीं जिक्र ही नहीं जिन्होंने दो-दो आजीवन कारावास भोगे, कोल्हू में बैल कि तरह जोते गये, नंगी पीठों पर कोड़े खाए, वंदेमातरम का उद्घोष करते हुए फांसी का फंदा चूम कर फांसी पर झूल गये। गांधी जी राष्ट्रपिता है, नेहरू जी चाचा है, कांग्रेस की चाटुकारिता में सुभाष बाबू के लिये जगह कहाँ बचती है। गाँधी जी के अहिंसा के बचकाने नारों और नेहरू जी की खोखली नीति एवं भयंकर नादानियों पर अब जनमानस नए सिरे से सोच रहा है और उनके द्वारा की गयी गलतियों से भारत को हुए नुक्सान पर अपना सर धुन रहा है।

युवा वर्ग के लिये नेता जी के विचार काफी दृढ थे। स्वामी विवेकानंद कि तरह वे भी सदैव युवा वर्ग को अपने आन्दोलन से जोड़ते रहे। वे नौजवानों को इतना ताकतवर बनाना चाहते थे कि युवा देश की आजादी के लिये सर्वस्व न्योछावर करने को सहर्ष तैयार रहे। उनका कहना था कि स्वराज की नींव कष्ट और त्याग पर रखी जाती है, जिसपर राष्ट्रनिर्माण होता है। जिसके लिये जरूरी है कि हर परिवार से एक नवजवान भारत माता के चरणों में सर रखने को आगे आये। उनका कहना था कि मेरे कुछ सिद्धांत हैं, उसूल हैं और मैं उनके लिये जान भी दे सकता हूँ। जान बचाने के लिये सिद्धांतो और उसूलों कि तिलांजलि नहीं दे सकता। हमारी लडाई सांसारिक सुख-सुविधा के लिये नहीं है, ना ही हम इस हाड-मांस के शरीर के लिये लड़ रहे हैं। हमारी जंग तो दुष्ट शक्तियों के खिलाफ है। सत्य और स्वतन्त्रता हमारा आदर्श है। रात के बाद दिन आता है, इसी तरह हमारी भी विजय होगी। हम नहीं जानते कि आजादी मिलने तक हम में से कौन जिन्दा रहेगा, पर हमें विश्वास है कि हमें आजादी अवश्य मिलेगी और हमें इसके लिये आत्मविश्वास के साथ अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए।

अंत में मैं सिर्फ इतना और लिखना चाहता हूँ कि " कितना भी झूठ गढ़ा जाए, चाहे झूठ का महल खड़ा कर दिया जाए, पर एक दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की सच्चाई भारत और भारतवासियों के सामने जाहिर होकर रहेगी, तब आने वाली पीढियां राजनीति के इन ठेकेदारों से, इन चाटुकारों से, इन भडुए इतिहासकारों से सुभाष बाबू के बारे में किये गये अनर्गल प्रलापों का प्रमाण मांगेगी।

तभी यह भारत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का ऋण उतार सकेगा, और तभी यह भारत नेताजी के स्वप्नों का भारत होगा। जय हिंद ! !

वन्दे मातरम-------

भारत माता कि जय----------

गुरुवार, 13 मई 2010

हिंदुत्व

आज भारत के अधिकाँश नागरिक और विश्व के अन्यान्य देशों के नागरिक जो हिंदुत्व से अनभिग्य हैं, प्रायः हिन्दू और हिंदुत्व का अर्थ साम्प्रदायिकता समझते हैं। भारत में तो हिंदुत्व एक राजनैतिक नारा समझा जाने लगा है। वोट की राजनीति में राजनीतिज्ञों ने अपने अनर्गल प्रलाप द्वारा भारतीय जनमानस में हिंदुत्व को लेकर एक भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा कर दी है।

भारत के प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित है--

आसिंधो: सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका ।
पितृभू: पुन्यभूश्रैव स वै हिंदुरीति स्मृत: ॥

अर्थात जो सिन्धु नदी से लेकर सागर (कन्याकुमारी) तक विस्तृत इस भारत भूमि को अपनी पितृ-भूमि और पुण्य-भूमि मानता है, वह हिन्दू है।

प्राचीन काल से चली आ रही किसी सामजिक व्यवस्था को मानने वाले समूह को संप्रदाय कहते हैं। जैसे सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म आदि। ये सब भिन्न-भिन्न संप्रदाय हैं, इनकी अपनी-अपनी पूजा पद्धति है, पर एक व्यापक दृष्टि में ये सभी केवल हिन्दू हैं। विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण एवं सैद्धांतिक मतभेदों के रहने पर भी सांस्कृतिक परंपरा की गति में किसी प्रकार का अवरोध नहीं पड़ता। आत्म-कल्याण के साधनों में विविधता होने पर भी सार्वजनिक हित की भावना पर किसी प्रकार की ठेस नहीं लगती। इन सब सम्प्रदायों की यही राष्ट्रीयता की भावना ही हिंदुत्व है।

हिन्दू न तो साम्प्रदायिक है और न ही हिंदुत्व साम्प्रदायिकता है। हिंदुत्व एक सागर है, जिसमे भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय रुपी नदियाँ आकर विलीन हो जाती हैं। तरंगों में लहराती हुई समुद्र की शोभा बढ़ाती हैं और सागर की ही महत्ता के गुणगान करती हैं।

हिंदुत्व एक आदर्श भारतीय राष्ट्रीय समाजवाद है, जिसने समस्त भारतीय समाज को एक सूत्र में आबद्ध कर रखा है। हिंदुत्व साम्प्रदायिकता नहीं राष्ट्रीयता है।

हिंदुत्व विश्व की एक प्राचीन सर्वकल्याणकारी, सर्व सामर्थ्य मय और सम्पूर्ण संस्कृति है।

वन्देमातरम----

भारत माता कि जय--------

मंगलवार, 11 मई 2010

६ मई २०१०

साधु ! साधु !! साधुवाद लेने के पात्र हैं विशेष न्यायालय के माननीय न्यायाधीश श्री ऍम ऍम तहलियानी और भारत सरकार के अधिवक्ता श्री उज्ज्वल निकम जी।

दिनांक ६ मई २०१० के दिन पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब को विशेष न्यायालय द्वारा मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी। बहुत कड़ी मेहनत की श्री उज्ज्वल निकम जी ने। उन्होंने अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग करते हुए अपने देश के लिये अपनी जान जोखिम में डालकर न्यायालय के सामने उचित साक्ष्य प्रस्तुत करके माननीय न्यायाधीश महोदय द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला कराया।

माननीय न्यायाधीश श्री एम एम तहिलयानी और माननीय अधिवक्ता महोदय श्री उज्ज्वल निकम को नमन और साधुवाद।

परन्तु अब यह प्रश्न उठता है कि क्या इस फैसले से आतंकवादियों का पनाहगार और आतंकवादी प्रशिक्षण का केंद्र देश पाकिस्तान कुछ सबक लेगा ? क्या आतंकवादी देश पाकिस्तान अपनी धूल-धूसरित साख को विश्व-पटल पर फिर से सवारने की कोशिश करेगा ?

एक हिन्दुस्तानी होने के नाते ऐसे प्रश्नों के उत्तर अब हमें सोचने ही होंगे, इन पर गहनता से विचार करना होगा।

मेरे अपने विचार से पाकिस्तान का जन्म ही आतंक के द्वारा हुआ है। तो क्या वो अपनी जन्म-जात आदत को बदल सकेगा ? हाँ बदलना अब हम हिन्दुस्तानियों को होगा। अब हम सभी हिन्दुस्तानियों को मिल कर बुलंद आवाज़ में अपने देश की सरकार से मांग करनी होगी कि अब समय है पाकिस्तान जैसे आतंकी अड्डों वाले देश को मुहतोड़ जवाब देने का। आतंकवाद के प्रशिक्षक देश पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने का। पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देते हुए सबक सिखाने का। जिससे फिर कभी पाकिस्तान जैसे कायर देश अपनी कायरता का प्रदर्शन हिन्दुस्तान में करने से बाज आये।

हम हिन्दुस्तानियों को मिलकर भारत सरकार के सामने यह आवाज उठानी होगी कि कसाब और अफजल गुरु जैसे लोगों को सरकारी अतिथि ना बनाकर जल्द से जल्द फांसी के फंदे पर लटकाएं, जिससे इन दरिंदों को दी गयी सजा पूरी हो और इनके जैसे अन्य सिरफिरे आतंकियों और उनके आकाओं को सबक मिले।

अजमल कसाब को फांसी के फंदे पर झुलाने से ही पाकिस्तान को करारा जवाब मिलेगा और साथ ही हम विशेष न्यायालय के माननीय न्यायाधीश और माननीय अधिवक्ता महोदय को सही रूप से धन्यवाद कर सकेंगे।

वन्दे मातरम्------------

भारत माता कि जय-----------

शुक्रवार, 7 मई 2010

सेवा

हिन्दू धर्म में लोक-कल्याण एवं सेवा कार्य को सर्वोपरि माना गया है। सेवा एक सद्गुण  भक्ति-भाव से कि गयी सेवा से प्राप्त शक्ति के प्रभाव से संसार में कुछ भी हासिल करना कठिन नहीं है। भक्ति-भाव से सेवा कार्य करने वाला सभी के लिये प्रिय, आदर और श्रृद्धा का पात्र बन जाता है।



आज के युग में स्वार्थपरता इतनी अधिक हो गयी है कि व्यक्ति खुद से ऊपर उठ कर परमार्थ चिंतन में अपना समय व्यतीत नहीं करना। समाज में ऐसे लोगों कि बहुतायत है जिनके पास भौतिक साधनों का अम्बार लगा है परन्तु वे फिर भी भिखारी बनकर भगवान  से और सुख-समृद्धि प्राप्त करने कि याचना करने में ही अपना समय व्यतीत करते रहते हैं। परमार्थ के लिये उनके पास शायद समय नहीं होता।

हमारे पूर्वज, संत-महात्मा, योगी आदि हमको यही शिक्षा देते रहे है कि हमारे जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह उचित नहीं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम संग्रह न करें। हमें संग्रह अवश्य करना चाहिए, परन्तु जब समाज को हमारी संगृहीत वस्तु कि आवश्यकता हो तो हमें निसंकोच सेवा भाव से परमार्थ के लिये उसे तुरंत दे देना चाहिए।

भगवान् कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञादि कर्म से होती है। यज्ञादि कर्म तभी संभव हैं जब हम सत्कर्मी होंगे। परमार्थ कर्म, सदभाव और सेवा-कार्य ही सत्कर्म है।

व्रत, उपासना, अर्चना, पूजन ही ईश्वर भक्ति नहीं है। उदार भाव से जन-सेवा, परमार्थ कार्य ईश्वर-भक्ति का एक अभिन्न अंग है। भक्ति-भाव एवं निस्वार्थ की गयी सेवा एक ऐसी आराधना है जिसके सामने स्वार्थपरता, निष्ठुरता और संकीर्णता प्रभावहीन होकर ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को और प्रशस्त करती है। प्रकृति का नियम है कि देने पर ही आपूर्ति होगी। वृक्ष पर मौसम के अनुसार नाना प्रकार के फल लगते हैं और वृक्ष बिना किसी भेद-भाव के सभी को अपने फल सहर्ष देता है। आगे फिर अनुकूल मौसम आने पर वही वृक्ष नए फूल और फलों से लद जाता है। इस प्राकृतिक नियम को हमें अपने जीवन में भी उतारना चाहिए।

सदभाव से प्रेरित होकर लोकहित कि कामना से किये गये सेवा-कार्यों को गीता में यज्ञ के समान बताया गया है।

अतः हमें परमार्थ और सेवा-कार्य के मार्ग पर चलना चाहिए। संग्रह के साथ समर्पण को भी अपनी आदत बनाना चाहिए। सेवा-कर्म और परमार्थ के मार्ग पर चल कर हम ईश्वर के और समीप जा सकेंगे। जिससे हमारा जीवन प्रकाशमय और उल्लासपूर्ण होगा।

वन्दे मातरम-----------

भारत माता कि जय----------

रविवार, 25 अप्रैल 2010

भारत- एक राष्ट्र

वीर शिवा का सिंहनाद, याद जरा फिर करो तुम.
भगत, आजाद, प्रताप की गाथा का जरा ध्यान करो तुम.
वो संकट के मेघ काले देखो फिर से न घिर आयें कहीं.
राह में कंटक देखो फिर से न बिछ जाएँ कहीं.

वैदिक काल से समकाल तक के विश्व-इतिहास का अध्ययन करने पर किसी बुद्धिजीवी को भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता विश्व में प्रचलित और लुप्त हुई किसी भी संस्कृति और सभ्यता से अलग ही प्रतीत होगी. भारत की संस्कृति, दर्शन, मान्यता, सामाजिक व्यवस्था एवं सहिष्णुता ही भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता एवं प्राणवायु है.

परन्तु क्या अब विश्व में हमारी सहिष्णुता कायरता के रूप में देखी जाने लगी है? विश्व के अन्य देश क्या अब हमें भीरु समझने लगे हैं?

भारत का इतिहास साक्षी है की सहस्त्रों वर्षों के काल खंड में यवन, शक, हूण, कुषाण आदि अनेक आक्रान्ताओं ने इस पुण्य भूमि को पददलित करने का प्रयास किया, परन्तु इस राष्ट्र की प्राणवायु ने अपनी आभा, ओज और प्रखर शक्ति से आततायिओं के सारे सपने धूल- धूसरित तो किये ही साथ ही उन आततायिओं को अपने में पूर्णतः आत्मसात भी कर लिया. इनके बाद मुग़ल आक्रान्ताओं ने भारत पर आक्रमण कर शासन किया. भारतवंशियों को मुग़ल शासन में अनेक अत्याचार सहने पड़े, आगे चल कर मुग़ल शासकों को भारतवंशियों के आगे झुकना पड़ा. मुग़ल शासक अपने शासनकाल के अंत समय में भारतीय परिवेश में रचते-बसते चले गये. साथ ही भारत में एक नए समाज का निर्माण हुआ जिसे अब मुस्लिम समाज के नाम से पुकारा जाता है. भारत का हिन्दू और मुस्लिम समाज आपस में बहुत घुल-मिल गया था. परन्तु एक बार फिर से भारत को विदेशी शासन का सामना करना पड़ा. इस बार धूर्त अंग्रेज व्यापारिक उद्देश्य से भारत में प्रविष्ट हुए और भारत की कुछ कमजोरियों का लाभ उठाकर भारत में शासन करने लगे. अनेक वर्षों के अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय समाज को अपमान एवं अत्याचार उठाना पड़ा. जिससे पीड़ित होकर भारतवंशियों ने क्रूर अंग्रेजों से उन्ही की भाषा में जवाब देकर अपने को आजाद कराया भारत के क्रांतिकारियों ने अंग्रेज शासकों को भी भारत का शासन छोड़ने के लिये मजबूर कर दियापर धूर्त अंग्रेज भारत की प्राणवायु में कुछ विष घोलने में सफल रहे. बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है की अंग्रेजों ने भारत को आजाद तो किया पर भारत के टुकड़े भी कर दिए, और हमें खंडित भारत से ही संतोष करना पड़ा.

हिन्दू और मुस्लिम समाज के कुछ सत्तालोलुप और कायर नेताओं ( हालाँकि हमें उनको नेता कहने में शर्म आती है ) ने अंग्रेजों का साथ दिया जिससे वे अपनी चाल में कामयाब रहे और भारत के टुकड़े करके पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक नया देश बना दिया. पर यह भी सत्य है की जिसकी बुनियाद झूठ-फरेब और भीख से भरी गयी हो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाती. इसी कारण पाकिस्तान को अपना एक भूभाग जिसको पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था खोना पड़ा. भारत की दृढ नीतियों और सुदृढ़ सुरक्षा बलों ने पाकिस्तान को उसी के घर में कैद कर उसका एक टुकड़ा आजाद देश बांगला देश के रूप में विश्व के सामने खड़ा कर दिया. जिसको विश्व ने सहर्ष स्वीकार किया.

परन्तु उस समय के कुछ राजनेताओं ने विश्व के अन्य देशों के दबाव में आकर भयंकर त्रुटियाँ की. पाकिस्तान के हज़ारों सैनिकों ने भारत की सेना के सामने हथियार डालते हुए घुटने टेक दिए थे. हमारे युद्धबंदी हो गये थे. उन युद्धबंदियों के सहारे हम अपना खोया हुआ कश्मीर वापस पा सकते थे. परन्तु शायद भारत के भाग्य में ऐसा नहीं था. भारत के तत्कालीन राजनेता दृढ इच्छाशक्ति नहीं रख सके जिसके परिणामस्वरूप भारत का मुकुट आधा काश्मीर आज भी गुलाम है.

आज वही पाकिस्तान, गुलाम कश्मीर, बंगला देश भारत में आतंकी साजिशें रचाते हैं, आतंकवादी तैयार करते हैं, उनको पूरा प्रशिक्षण देते हैं. विश्व की सामने यह भी साफ़ हो गया है की पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई एस आई इस कार्य को पूरा अंजाम देने तथा भारत के अन्दर आतंक फैलाने का एकमात्र सूत्रधार है. आई एस आई द्वारा प्रशिक्षित आतंक वादी कश्मीर घाटी की केसर की क्यारियों को रौंदते हैं, कभी भारत की औद्द्योगिक राजधानी मुम्बई को निशाना बनाते है, कभी भारत के संविधान की रक्षक संसद भवन में घुसते हैं, कभी पंजाब, असाम, बंगाल, छतीसगढ़ आदि प्रदेशों में आतंक फैलाते हैं.

पाकिस्तान और उसके सहयोगियों द्वारा प्रायोजित इस आतंकवाद का भारत क्या जवाब देता है? सिर्फ पाकिस्तान से सयंम बरतने की अपील. बात न करने की धमकी. क्या इससे इस ज्वलंत समस्या का हल हो जाएगा? क्या इससे पकिस्तान अपने द्वारा प्रायोजित आतंक और अपने द्वारा पोषित आतंकवादियों को रोक देगा?

कदापि नहीं ---------------------

हमें फिर से अपने इतिहास का सत्यान्वेषण करना होगा. हमें फिर भारत की संघर्ष शक्ति का प्रदर्शन करना होगा. हमें अपनी नीतियों पर चलना होगा. अन्य देशों के दबाव में ना आकर अपनी सैन्य शक्ति पर भरोसा और सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करना होगा.

यहाँ पर छत्रपति शिवाजी का उदाहरण प्रासंगिक है, की उन्होंने कैसे अपने सात -आठ हजार सैनिकों के बल पर और अपने युद्ध कौशल तथा ठोस निर्णय के द्वारा मुगलों के लाखों सैनिकों को पछाड़ कर अपनी विजय पताका फहराते चले गये. हमें ध्यान रखना होगा की कैसे बाजी राव पेशवा ने अपने प्रचंड युद्ध से मुग़ल शासकों की नींद हराम कर दी थी. हमें अपने बाहुओं को बल देने के लिये याद रखना चाहिए की कैसे महराना प्रताप ने हल्दी घाटी में अकबर और देशद्रोही मानसिंह का मान मर्दन किया था. गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज के त्याग और बलिदान की अमर गाथा को दोहराना होगा.

देश के कर्णधारों ने जब -जब अपनी सत्ता और सिंहासन को प्राथमिकता दी तथा देश हित को गौण मान लिया, तब-तब ही देश की विजयगाथा कूटनीति क्षेत्र में हार की लकीरों में बदलती आई है. पाकिस्तान का मान मर्दन कर जब भारत ने आज के बांगला देश की रचना में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई थी, यदि तब वहां के करोडो निवासियों को मजबूत लोकतान्त्रिक व्यवस्था दिलाने में भी मदद करते तो आज पाकिस्तान और बंगला देश भारत में आतंकी जूनून के कांटे बिखेरने का दुस्साहस न करते.

भारत में विद्यमान कठिन स्थिति से निजात पाने का एकमात्र प्रभावी उपाय पाकिस्तान और अन्य जगहों पर स्थित आतंकी अड्डों का समूल विद्ध्वंश करना ही है. ऐसा होने पर भारत में बिछाए जा रहे आतंकवादी जाल के अंगारे दबेंगे तथा पाकिस्तान और अन्य आतंकियों को पनाह देने वाले तत्वों पर तुषारापात होगा.

अब समय आ गया है की भारत के जन-जन को अपने दलगत, पन्थ्गत , और सम्प्रदायगत मतभेदों को भुला कर एक सुदृढ़ भारत बनाना होगा. भारत की विजय वाहिनी को खुला अवसर देना होगा. तभी भारत की अखंडता को अक्षुण रखा जा सकेगा.

यहाँ पर मैं अपने गुरु परम श्रद्धेय पंडित ओउम शंकर त्रिपाठी जी द्वारा रचित कविता के कुछ अंश प्रस्तुत करना चाहूँगा----

रिसते घावों का दर्द यही दुहराता
सर पर खंजर का वार चुभा चिल्लाता
ओ बापा की संतान नींद को त्यागो
हुंकार हरी सिंह नलवा की अब जागो.

पाकिस्तानी विषधर फुंकार रहा है
जागो जन्मेजय देश पुकार रहा है
आहुतियाँ बाकी हवन अग्नि धधकाओ
होता बन फिर से सोए मंत्र जगाओ.

स्वाहा करके विष-वंश शांति को लाओ
ओ बुद्ध ! देशहित आओ खडग उठाओ
अब नहीं शांति-उपदेश छिड़ गया रण है
क्षण भी नहीं विराम हमारा प्रण है.

कर सारे सफल प्रयास देश फिर जोड़ो
कायरता की जंजीरें जकड मरोड़ो
जागो चन्द्रवरदाई भैरव राग सुनाओ
सोये समाज से भय का भूत भगाओ.

वन्दे मातरम -------

भारत माता की जय -------