शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

1971 भारत-पाक युध्द




आज के ही दिन चालीस साल पहले 1971 में भारत की सेना ने 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युध्द में पराजित कर आत्मसमर्पण को मजबूर कर दिया था| ये दुनिया के सैन्य इतिहास में आत्मसमर्पण की सबसे बड़ी घटना थी, जिसे अंजाम दिया था दुनिया की सबसे जाँबाज सेनाओं में गिनी जाने वाली भारत की शैन्य शक्ति ने|

पाकिस्तान के साथ हुए इस युध्द में पाकिस्तान के सैनिक अधिकारियों का कहना था कि वे लाहौर से दिल्ली पाकिस्तान की सीमा कर देगें| पर उनके इन मंसूबों पर पानी फेरते हुए भारत की सेना ने पाकिस्तान के सपने को चूर-चूर करते हुए तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्ला देश) में तैनात सेना प्रमुख जनरल नियाजी को उनके 90,000 पाकिस्तानी/सिपाहियों सहित आत्मसमर्पण को मजबूर कर दिया और पाकिस्तान के टुकड़े कर बांग्ला देश के नाम से नया देश बनवा दिया|

वर्ष 1971 के भारत-पाक युध्द में भारतीय सेना के कुशल नेतृत्व ने देश को जीत दिलाई और उनकी रणकौशलता की बदौलत बांग्ला देश का गठन हुआ| अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर भारत की पकड़ मजबूत हुई और 1971 के भारत-पाक युध्द के मामले में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को भी मुँह की खानी पडी| भारत-पाक युध्द में भारतीय सेना के सही समय पर लिये गये फैसले के कारण जंग में हस्तक्षेप करने के अमरीका के मंसूबों पर पानी फिर गया| उस दौरान अमरीकी नौसेना के सातवें बेड़े के पहुचने के पहले बांग्ला देश को स्वतन्त्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया| इस तरह अमरीकी सामरिक नीति को भारत ने करारा झटका दिया|

भारतीय सेना ने 1971 के युद्ध के दौरान बेहद धैर्य से काम लिया| साथ ही भारतीय राजनैतिक नेतृत्व ने इस मामले में पहले अंतरराष्टीय जनमत को इस बात के लिये संतुष्ट किया कि भारत के लिये युद्ध क्यों जरूरी हो गया था| पश्चिमी देशों को भारत में उत्पन्न स्थिति से अवगत कराया| यूरोप ही नही, अमेरिका में भी उदारवादी चिंतकों और लोगों का एक वर्ग इससे संतुष्ट हो गया कि तब के पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर हाहाकार मचा था और मानवाधिकार हनन हो रहा था| भारतीय राजनैतिक नेतृत्व की यह कूटनीतिक सफलता रही कि अमरीकी मीडिया के एक बड़े वर्ग ने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन की नीतियों का विरोध कर बांग्ला देश के बारे में भारत की नीतियों का समर्थन किया| भारत-पाक युद्ध में भारतीय राजनैतिक नेतृत्व ने अमरीकी नौसेना के सातवें बेड़े को हस्तक्षेप का मौक़ा ही नही दिया| इससे पहले एक और घटना हुई जिसमें भारतीय राजनैतिक नेतृत्व के राजनैतिक कौशल के कारण निक्सन की अमरीकी प्रेस में काफी किरकिरी हुई| जब भारतीय राजनैतिक नेतृत्व को यह पता चला कि अमरीकी सरकार अपना सातवाँ बड़ा भेजने की तैयारी में है तो भारतीय राजनैतिक नेतृत्व ने तुरंत यह सूचना अमरीका में तत्कालीन राजदूत एल एन झा को भिजवा दी| अमरीकी विदेश विभाग से जब झा ने इसकी पुष्टि कराने की कोशिश की तो विदेश विभाग का जवाब था कि वह न तो इसकी पुष्टि कर सकता है और न ही इसका खंडन| झा ने इस अस्पष्टता का लाभ उठाया और तुरंत संवाददाता सम्मलेन बुलाया| इसमे उन्होंने कहा कि अमेरिकी विदेश विभाग ने नौसेना का सातवाँ बड़ा भेजने की संभावना से इंकार नही किया है| उनके इस बयान से अमेरिकी प्रेस में भारी बहस छिडी| उधर अमरीकी जनमत का एक बड़ा वर्ग वियतनाम युद्ध को लेकर पहले से ही सरकार की नीतियों का भारी विरोधी था| अब यह सूरत बनने लगी कि अमरीका भारत-पाक युद्ध में हस्तक्षेप कर सकता है| भारतीय राजदूत की इस सूचना से मीडिया में निक्सन सरकार की नीतियों की आलोचना शरू हुई, जिसका लाभ भारत को मिला|

पाकिस्तान इस धोखे में रहा कि अगर भारत से युद्ध हुआ तो चीन भी भारतीय सीमा पर मोर्चा खोल देगा और भारत दो युद्ध एक साथ नही लड़ पायेगा| जबकि चीन ने भारतीय सीमा पर कोई भी नया युद्ध करने के विषय में विचार ही नही किया| यही नही, जब युद्ध के दौरान अमरीका ने भारत को धमकाने के लिये बंगाल की खाड़ी में अपने युद्धक जलपोतों का बेडा भेजा, जो अमेरिका के सातवें बेड़े के रूप में मशहूर था, भारतीय सेना ने उसकी परवाह नही की|

तत्कालीन भारतीय राजनैतिक नेतृत्व की एक चूक से भारत ने एक बार फिर 1971 के भारत-पाक युद्ध में कश्मीर मुद्दे का हमेशा के लिये समाधान करने का अवसर खो दिया जब कि पाकिस्तान न केवल बुरी तरह हारा था अपितु भारत के पास 90,000 पाकिस्तानी युद्ध कैदी थे|

1971 के भारत-पाक युद्ध को याद कर आज हम भारतीय अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं साथ ही अपने देश की जाँबाज सेना पर गर्व करते हैं|


वंदे मातरम.........................................

जय माँ भारती....................................


सोमवार, 12 दिसंबर 2011

शुभकामनाएं मध्य रात्रि में क्यों नहीं देंनी चाहिए ?


शुभकामनाएं मध्यरात्रि में क्यों नहीं देनी चाहिये ?

यह प्रश्न आज सामयिक हो गया है|

संध्याकाल के प्रारंभ होते ही रज तम का प्रभाव वातावरण में बढ़ने लगता है अतः इस काल में आरती करते है, संध्याकाल में किये गये धर्माचरण हमें इन रज तम के कुप्रभाव से बचाता है| परन्तु आजकल पाश्चात्य-संस्कृति के अंधानुकरण करने से हिन्दू इन बातों का महत्त्व नहीं समझते|

हमारी भारतीय संस्कृति में मूलतः कोई भी शुभ कार्य मध्य रात्रि नहीं किया जाता है परन्तु वर्तमान समय में एक पैशाचिक कुप्रथा आरम्भ हो गई है और हिन्दू भी मध्यरात्रि में ही शुभकामनाएं देने लगे हैं| फलस्वरूप उन शुभकामनाओं का कोई अनुकूल प्रभाव नहीं पडता|

अब भारतीय जनमानस में पाश्चात्य संस्कृति के अनुसार नव वर्ष भी मनाने लगे है और उसकी शुभकामनाये भी मध्यरात्रि से ही देना प्रारंभ कर देते है| आश्चर्य की बात यह है कि हम हिन्दू पाश्चात्य नववर्ष को भली भांति याद रखते है पर अपने मूल हिन्दू धर्म के नव वर्ष को जानते भी नही हैं|

हिन्दू परंपरा के वाहक भारत के ग्रामीण क्षेत्र भी अब शहरों की दूषित परंपराओं को अपनाने लगे हैं|
सात्त्विकता क्या है यह ही अधिकाँश हिंदुओं को पता नहीं है| इसका मूल कारण है हिन्दू समाज में धर्म शिक्षण का अभाव|

हमारी भारतीय संस्कृति तम से रज और रज से सत् तत्पश्चात त्रिगुणातीत होने का प्रवास सिखाता है|

अब आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी संतानों को अपनी भारतीय संस्कृति से अवगत कराते रहे और उनकी धर्म जिज्ञासा का उचित निदान करते रहे|


वंदे मातरम.............................

भारत माता की जय.................


गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

शहीद शालिग्राम शुक्ल


कानपुर के गौरव शहीद शालिग्राम शुक्ल का आज बलिदान दिवस है| माँ भारती के इस वीर सपूत का नाम और माँ भारती की आजादी के लिये दिये गये बलिदान को कम ही लोग जानते हैं|वीर शहीद शालिग्राम शुक्ल कानपुर ( उत्तर प्रदेश ) के रहने वाले थे।

चंद्रशेखर आजाद के गुप्त संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कानपुर केन्द्र के चीफ शालिग्राम शुक्ल थे |शालिग्राम शुक्ल ने चंद्रशेखर आजाद से पिस्तौल चलाने का प्रशिक्षण लिया था|

कानपुर प्रवास के समय चंद्रशेखर आजाद और शालिग्राम शुक्ल अपने संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी को और मजबूत करने की योजना बनाने हेतु तत्कालीन डी ए वी हाईस्कूल (अब डी ए वी कालेज) में बैठक किया करते थे| शालिग्राम शुक्ल डी ए वी कालेज छात्रावास में ही रहते थे| चंद्रशेखर आजाद अपने कानपुर प्रवास के समय अक्सर शालिग्राम शुक्ल के पास ही रुकते थे|

1 दिसंबर 1930 के दिन पौ फटने के करीब एक घंटे बाद शालिग्राम शुक्ल जब डी ए वी कालेज छात्रावास की ऊपरी मंजिल से उतरकर नीचे आए और फाटक पर पहुंचे तो सीआईडी इंस्पेक्टर शंभुनाथ ने उनका हाथ पकड़ लिया। शालिग्राम शुक्ल को यह समझते देन न लगी कि चंद्रशेखर आजाद के यहाँ मौजूद होने का भेद पुलिस को मिल गया है। उन्होंने एक ही झटके में अपने को मुक्त कर लिया और शंभुनाथ पर गोली चलाई। इंस्पेक्टर दीवार से सटे नाले में कूद गया, नाले से सिपाही बाहर आ गए। शालिग्राम शुक्ल पूरी तरह से घिर गए। उन्होंने चिल्ला कर आस पास रहने वाले अपने साथियों को सावधान कर दिया। चंद्रशेखर आजाद शालिग्राम शुक्ल की ओर मादा के लिये लपके। पर परिस्थिति भांपते ही वे छुप गए। आजाद चाहते थे कि पुलिस पर पीछे से आक्रमण कर शालिग्राम शुक्ल की सहायता की जाए। लेकिन सौ सवा सौ पुलिस वालों से आठ दस व्यक्तियों का मुकाबला व्यर्थ था। फिर उनके अन्य साथी भी इस योजना से सहमत नहीं थे।

ऐसी विषम स्थिति में भी पिस्तौल की पांच गोलियों से शालिग्राम ने पांच पुलिस वालों को गंभीर रूप से घायल कर दिया। पुलिस की गोली से शालिग्राम भी गंभीर रूप से घायल हो गया और उसी दिन वह शहीद हो गए।
आजादी के ऐसे दिवानों की गाथा हमें हर समय प्रेरणा देती रहेगी।
कानपुर के गौरव शहीद शालिग्राम शुक्ल को शत-शत नमन....

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल