रविवार, 30 अक्तूबर 2022

जोधा-अकबर एक झूठी कहानी

             "जोधा-अकबर" एक झूठी कहानी है। सैकड़ों सालों से प्रचारित इस झूठ का खंडन समय-समय पर कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने किया है। पुरातत्व विभाग भी यही मानता है कि जोधा एक झूठ है, जिस झूठ को वामी इतिहासकारों और फिल्मी भाँड़ों ने मिलकर प्रचारित किया है।

            वामी इतिहासकार और फिल्मी भाँड़ जिसे "जोधा बाई" के नाम से प्रचारित करते है, असल मे वो राजा मान सिंह की परसियन ईरानी दासी "हरकू बाई" थी। यह बात "जयपुर रिकार्ड" में भी अंकित है। 

            वामी इतिहासकार कहते हैं कि कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया। परंतु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नहीं किया। अकबर कालीन इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ पाँच बेगमें बताई है --

1- सलीमा सुल्तान 

2- मरियम उद ज़मानी 

3- रज़िया बेगम 

4- कासिम बानो बेगम 

5- बीबी दौलत शाद 

            अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा "अकबरनामा" में भी किसी राजपूत रानी से अपने निकाह का कोई जिक्र नहीं किया। परंतु राजपूतों और हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए कुछ हिन्दू विरोधी इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं शताब्दी में "मरियम उद जमानी" को जोधा बाई बता कर झूठी अफवाह और मनगढ़ंत कहानी को फैलाया। इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए। जबकि अकबरनामा और जहाँगीर नामा में इसका कोई जिक्र नहीं था। 

            18 वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर, राजपूत बता कर, उसके मान सिंह की बेटी की झूठी पहचान को प्रचारित करना शुरू किया गया। फिर 18 वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टाड़ ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटीक्स आफ राजस्थान" में मरियम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई का कल्पित एवं झूठा नाम दिया गया। इस तरह से ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया कि आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन-जन कि जबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चुका है। 

            जोधा बाई और अकबर के इस झूठे विवाह प्रसंग से मन मे कुछ अनुत्तरित प्रश्न कौंधने लगते हैं --

            "आन, बान, और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिये पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं?"

            "हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती है? "

            अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' पुस्तक में जोधा बाई का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं मिलता। एक अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' जो जहाँगीर की आत्मकथा है उसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहाँगीर ने अपनी माँ जोधा बाई का एक बार भी जिक्र नहीं किया। कुछ स्थानों में हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। 

            अब जोधा बाई के बारे में सभी ऐतिहासिक दावे झूठ के पुलिंदे लग रहे हैं। कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आई कि "जोधा बाई" का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है। 

            इस खोजबीन में इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर एक नई और चौंकाने वाली बात सामने आई कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी। जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी। रुकमा की बेटी होने के कारण उसे 'रुकमा-बिट्टी' बुलाते थे। आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया। चूँकि हीर कुँवर का लालन-पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भाँति परिचित हो गई थी। 

            राजा भारमल उसे हीर कुँवरनी या कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बना कर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया। जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया। 

            चूँकि लालन-पालन राजभवन में होने के कारण राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था और सनातनी रिवाजों के साथ अकबर से विवाह करवाया, निकाह नहीं, इसलिए ऐतिहासिक ग्रंथों मे हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया। जबकि वह कच्छवाह राजकुमारी नहीं बल्कि दासी-पुत्री थी। राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो 'हल्दी-चन्दन किया था। 

            इस विवाह के विषय में कई अरबी इतिहासकारों ने अपना मत व्यक्त किया है, जिसका हिन्दी रूपांतर निम्नवत है -- 

            1-  (“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) 

            "हम यकीन नहीं करते, इस निकाह पर हमें सन्देह है। "

            2- इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है। 

            3- (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) 

            "'अकबर-ए-महूरियत' में साफ लिखा है कि हमें इस हिन्दू निकाह पर सन्देह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आँखों में आँसू नहीं थे और न ही हिन्दू गोद भराई की रस्म हुई थी।" 

            सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन देव जी और गुरू गोविंद सिंह जी ने इस विवाह के विषय में कहा कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनों का इस्तेमाल करना सीख लिया है, राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगे हैं। 

            17 वीं सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिए आए तब उन्होंने अपनी रचना "परसी तित्ता" में लिखा "यह भारतीय राजा एक परसियन वैशया को सही हरम में भेज रहा है। अतः हमारे देव ( अहुरा मझदा ) इस राजा को स्वर्ग दें। 

            भारतीय राजाओं के दरबार में राव और भाँट का विशेष स्थान होता था। वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे, उन्होंने साफ लिखा है --

            "गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले गयाली पसवान कुमारी, राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत।" (1563 AD)

            मतलब "आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है। हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत।" 

            ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझ कर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्येश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है। 


गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

देवराहा बाबा





            देवरहा बाबा एक ऐसे महान संत योगिराज थे जिनके चरणों में सिर रख कर आशीर्वाद पाने के लिए देश ही नहीं विदेशों के राष्ट्राध्यक्ष तक लालायित रहते थे। वह उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के रहने वाले थे। हालाँकि, मंगलवार 19 जून सन 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपने प्राण त्यागने वाले इन बाबा के जन्म की तिथि के बारे में बहुत संशय है। 

            उनकी उम्र के बारे में भी एक मत नहीं है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बाबा 900 वर्ष कि आयु तक जीवित रहे। बाबा के सम्पूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत हैं, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल तक मानते हैं। 

            देवरहा बाबा एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं संत पुरुष थे। डा. राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। देवरहा बाबा पूज्य महर्षि पातंजली द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे। 

            श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। कहते हैं कि प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे, जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी। श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है। 

            जनश्रुति के मुताबिक बाबा खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन में कहीं से कभी भी चले जाते थे। उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में काँटे नहीं होते थे। चारों तरफ सुगन्ध ही सुगन्ध होती थी। 

            लोगों मे विश्वास है कि बाबा जल पर चलते थे। अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी किसी सवारी का प्रयोग नहीं किया और न ही उन्हे कभी किसी सवारी से कहीं आते-जाते देखा गया। बाबा कुम्भ के समय प्रयागराज आते थे। 

            यमुना के किनारे वृंदावन में वे 30 मिनट तक पानी के भीतर बिना साँस लिए रहते थे। उनको जानवरों कि भाषा भी समझ में आती थी। लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई या कर रहा है।  कहते हैं कि वे अवतारी व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था। 

            उनकी कहानियों में कई चमत्कारिक पलों का भी वर्णन है, जैसे वह फ़ोटो कैमरे और टी वी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फ़ोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फ़ोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था। 

            हालाँकि, अपनी उम्र, कठिन तप, सिद्धियों चमत्कारों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी कोई दावा नहीं किया। लेकिन उनके इर्द-गिर्द ऐसे लोगों कि भीड़ भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजती देखी गई। अत्यंत सहज, सरल और सुलभ, देवरहा बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे। 

            कहते हैं कि भारत के पहले राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हे अपने बचपन में देखा था। देश-दुनिया के कई महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधु-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था। उनसे जुड़ी कई घटनाएं इन सिद्ध सन्त को मानवता, ज्ञान, तप और युग के लिए विख्यात बनाती हैं। 

            सन 1987 जून के महीने में वृंदावन में यमुना नदी के पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को बाबा के दर्शन करने आना था। उनके लिए बन रहे हेलीपैड के बीच मे एक बबूल के पेड़ की डाल रुकावट पैदा कर रही थी। आला अफसरों ने उस डाल को काटने के आदेश दे दिए। जिसकी सूचना देवरहा बाबा को मिली, सूचना मिलते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अधिकारी को अपने पास बुलाया और पूछा पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा ऐसा करना प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। बाबा बोले, "तुम यहाँ अपने प्रधानमंत्री को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, प्रधानमंत्री का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन उसका दण्ड तो बेचारे इस पेड़ को भुगतना पड़ेगा। वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो उसे मैं क्या जवाब दूंगा? नहीं! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा।" अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का आदेश है कि इस पेड़ कि एक टहनी काट दो, इसलिए इसकी टहनी को काटा ही जाएगा। मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए। बाबा ने कहा यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है। नहीं! यह पेड़ नहीं कटेगा। इस घटनाक्रम से अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी। आखिर बाबा ने ही उन्हे तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब प्रधानमंत्री का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे प्रधानमंत्री का कार्यक्रम मैं स्थगित करा देता हूँ। आश्चर्य कि दो घण्टे बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय से रेडियोग्राम आ गया कि कार्यक्रम स्थगित हो गया। कुछ हफ्तों बाद राजीव गाँधी वहाँ आए, लेकिन वह पेड़ नहीं कटा। अब इसे क्या कहेंगे, चमत्कार या संयोग? आप खुद तय कीजिए। 

            बाबा कि शरण में आने वालों में कई विशिष्ट लोग थे। उनके भक्तों में डा राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं। उनके पास लोग हठयोग सीखने भी आते थे। सुपात्र देखकर वे हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे। योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक, समाधि आदि पर वे गूढ़ विवेचन करते थे। कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हे बुलाया जाता था, वहाँ वे सम्बन्धित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते थे। 

            लोग यही सोचते थे कि बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया। ध्यान, प्राणायाम, समाधि की पद्धतियों के वे सिद्ध थे ही, धर्माचार्य, पण्डित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद भी करते थे। उन्होंने जीवन में लंबी-लंबी साधनाएं कीं। जन-कल्याण के लिए वृक्षों, वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य-जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहीर था। 

            कहते हैं कि देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इन्दिरा गांधी चुनाव हार गईं तब वो भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। बाबा ने अपने हाथ के पंजे से उन्हे आशीर्वाद दिया। वहाँ से वापस आने के बाद इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया। इसके बाद 1980 में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचण्ड बहुमत प्राप्त किया और इन्दिरा गांधी फ़िर से देश की प्रधान मंत्री बनी। 

            बाबा महान योगी और सिद्ध सन्त थे। उनके चमत्कार हजारों लोगों को झंकृत करते रहे। आशीर्वाद देने का उनका ढंग बड़ा निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख देते थे वो धन्य हो जाता था। पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे। उनके आश्रम में बबूल तो थे मगर काँटा विहीन थे। यही नहीं बबूल खुश्बू भी बिखेरते थे। उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था। बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे। कहते हैं कि उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। श्रीफल का रस उन्हे बहुत पसन्द था। देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण रखते थे। 

            बाबा कि ख्याति इतनी थी कि जार्ज पंचम जब भारत आए तो अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गाँव तक उनके आश्रम तक पहुँच गए। दरअसल, इंग्लैण्ड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इण्डिया के साधु-सन्त महान होते हैं। प्रिंस फ़िलिप ने जवाब दिया- हाँ, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन 1911 की बात है। 

            डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जब दो-तीन साल के थे तब अपने माता-पिता के साथ बाबा के यहाँ गए थे। बाबा उन्हे देखते ही बोल पड़े - यह बच्चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने एक पत्र लिख कर बाबा को कृतज्ञता प्रकट की। फिर सन 1954 के प्रयागराज कुम्भ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन किया। 

            देवरहा बाबा 30 मिनट तक पानी में बिना साँस लिए रह सकते थे, उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी, खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे। 

            उनके भक्त उन्हे दया का महासमुद्र बताते हैं, और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्त से लुटाई भी। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वर्षा जल की भाँति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा। मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवा है। 

             बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्य दृष्टि के साथ तेज नजर, कडक आवाज, दिल खोलकर हँसना, और खूब बतियाना, बाबा की आदत थी। याददाश्त इतनी तेज थी कि दशकों बाद मिले व्यक्ति को भी पहचान लेते थे और उसके दादा-परदादा तक का नाम बात देते थे। 

            देवरहा बाबा की बलिष्ठ कद-काठी थी, लेकिन देह त्यागने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकड़ी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहाँ नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। जल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन वाराणसी के रामनगर में गङ्गा के बीच, माघ में प्रयाग, फाल्गुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। 

            खुद कभी कुछ खाया नहीं, लेकिन भक्तगण जो कुछ भी लेकर पहुँचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना प्राप्त करने के लिए सैकड़ों लोगों की भीड़ हर जगह जुटती थी, और फिर अचानक 11 जून 1990 को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया। ऐसा लगा कि जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का मिजाज बदल गया। यमुना कि लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे। डाक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड़कर निकलने पर आमादा है। 

            19 तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी। आकाश में काले बादल छा गए। तेज आँधियाँ, और तूफान आ गए। यमुना जैसे समुद्र को मात करने को उतावली थी। लहरों की उछाल बाबा की मचान तक पहुँचने लगा, और इन्ही सबके बीच शाम को चार बजे बाबा का शरीर स्पंदन रहित हो गया। भक्तों की अपार भीड़ भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी। 

बाबा के भक्त आज भी उन्हे पूजते हैं। बाबा कि यशकीर्ति युगों-युगों तक जनमानस मे जीवित रहेगी। 


रविवार, 2 अक्तूबर 2022

स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी कि मृत्यु का अनसुलझा रहस्य

        



        लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु की पहेली कब सुलझेगी, सुलझेगी भी या नहीं?? लेकिन हर वर्ष स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर यह पहेली आने वाली पीढ़ियों को झकझोरती रहेगी, कि क्या शास्त्री जी कि हत्या हुई थी और उस हत्या को छुपाने के लिए दो और हत्याएं की गईं थीं??

        सन १९७७ में केंद्र की सत्ता से काँग्रेसी वर्चस्व के सफ़ाए के बाद प्रचण्ड बहुमत से बनी जनता पार्टी की सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री की संदेहास्पद मृत्यु की जाँच के लिए रामनारायन कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने शास्त्री जी की मृत्यु से सम्बन्धित दो प्रत्यक्षदर्शी गवाहों को गवाही देने के लिए बुलाया था। पहले गवाह थे, उस समय ताशकंद में शास्त्री जी के साथ रहे उनके निजी चिकित्सक आर. एन. चुघ। जिन्हे शास्त्री जी की मृत्यु के समय बहुत देर बाद शास्त्री जी के कमरे में बुलाया गया। डा. चुघ के सामने ही शास्त्री जी ने "राम" नाम जपते हुए अपने प्राण त्यागे थे। दूसरे गवाह थे, उनके निजी बावर्ची रामनाथ, जो उस पूरे दौरे के दौरान शास्त्री जी के लिए भोजन बनाते थे। लेकिन शास्त्री जी की मृत्यु वाले दिन भारत के राजदूत टी. एन. कौल ने रामलाल के बजाय अपने खास बावर्ची जान मोहम्मद से शास्त्री जी का भोजन बनवाया था। यहाँ यह उल्लेख बहुत जरूरी है कि ये टीएन कौल कश्मीरी पण्डित था और नेहरू परिवार में उसकी खानदानी निकटता इतनी प्रगाढ़ थी कि सन १९५९ में लाल बहादुर जी के प्रचण्ड विरोध के बावजूद नेहरू ने पहले इन्दिरा गाँधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनवाया और इन्दिरा गाँधी का सलाहकार इसी टी एन कौल को ही बनाया। 

        यह है उस सनसनीखेज रहस्यमय पहेली की संक्षिप्त पृष्ठभूमि जो आज तक नहीं सुलझी है। वो पहेली यह है कि जनता सरकार द्वारा गठित कमेटी ने गवाही के लिए जिन डाक्टर आर एन चुघ को बुलाया था वो कमेटी के सामने गवाही देने के लिए अपनी कार से जब दिल्ली जा रहे थे तब रास्ते में एक ट्रक ने उनकी कार को इतनी बुरी तरह रौंद दिया था कि कार में सवार डाक्टर चुघ, उनकी पत्नी, उनकी पुत्री समेत सभी कि मौत हो गई थी। दूसरे गवाह रामनाथ जब दिल्ली आए और जाँच कमेटी के सामने गवाही देने जा रहे थे तो एक तेज रफ्तार कार ने उनको सड़क पर बुरी तरह रौंद दिया। संयोग से रामनाथ कि तत्काल मौत नहीं हुई थी परंतु सिर पर लगी गम्भीर चोटों के कारण उनकी स्मृति पूरी तरह खत्म हो गई थी। उस दुर्घटना में लगी गम्भीर चोटों के कारण कुछ समय पश्चात उनकी भी मौत हो गई। उल्लेखनीय है कि स्व. शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री जी ने उस समय बताया था कि कमेटी के सामने गवाही देने जाने से पहले उस दिन रामनाथ उनसे मिलने आए थे और यह कह कर गए थे कि "बहुत दिन का बोझ था अम्मा, आज सब बता देंगें।"

        शास्त्री जी की मृत्यु की जाँच कर रही कमेटी के सामने गवाही देने जा रहे दोनों प्रत्यक्षदर्शी गवाहों की ऐसी मौत क्या केवल संयोग हो सकती है?

        उपरोक्त घटनाक्रम आज कई साल बीत जाने के बाद भी एक पहेली की तरह यह सवाल पूछ रहा है कि क्या शास्त्री जी की हत्या का रहस्य छुपाने के लिए दो और हत्याएं की गईं थीं?

        पता नहीं यह पहेली कब सुलझेगी, सुलझेगी भी या नहीं? लेकिन हर वर्ष स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी की जयन्ती पर यह पहेली आने वाली पीढ़ियों को सदियों तक झकझोरती रहेगी। 

        मात्र डेढ़ वर्ष के अपने कार्यकाल में "जय जवान जय किसान" के अपने अमर नारे के साथ देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि वाले शास्त्री जी कितनी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे यह इसी से समझा जा सकता है कि अन्तरराष्ट्रीय नियमों, दबावों, तनावों को ताक पर रख कर देशहित में उनके द्वारा लिए एक साहसिक निर्णय ने ही सन १९६५ के भारत-पाक युद्ध का रुख पूरी तरह से भारत के पक्ष में कर दिया था। 

        ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले जननायक के लिए देश में दशकों तक एक सुनियोजित अफवाह फैलाई गई कि ताशकंद में समझौता करने का दबाव नहीं सह सकने के कारण शास्त्री जी को हार्टअटैक पड़ गया था, जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गई थी। 

        सच क्या है इसका फैसला एक दिन जरूर होगा और दुनिया के सामने सच जरूर आएगा। इसी आशा एवं अपेक्षा के साथ माँ भारती के महान सपूत "लाल बहादुर शास्त्री जी" को उनकी जन्म-जयन्ती पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धाजलि ।