सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

हिन्दू धर्म की पांच प्रमुख सती नारियाँ

स्त्री का पतिव्रता होना स्त्री का प्रमुख गुण है। एक ही पति या पत्नी धर्म का पालन करना हिन्दू धर्म के कर्तव्यों मे शामिल है। भारत में अनगिनत ऐसी महिलायें हुईं हैं जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल दी जाती है। उनमे से कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन चुकी हैं।

हिन्दू इतिहास के अनुसार इस संसार मे पाँच सती स्त्रियाँ हुईं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं -

१- अनसुइया
२- द्रौपदी
३- सुलक्षणा
४- सावित्री
५- मंदोदरी

१- अनसुइया - पतिव्रता देवियों में अनसुइया का स्थान सबसे ऊँचा है। वे ऋषि अत्रि की पत्नी थी। एक बार त्रिदेव माता अनसुइया की परीक्षा लेने ऋषि अत्रि के आश्रम में भिक्षा मांगने गये और अनसुइया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगीं तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगें। तब माता अनसुइया ने अपने सतीत्व के बल पर तीनों देवों को अबोध बालक बना कर उन्हे भिक्षा दी। यह भी कहा जाता है कि माता अनुसुइया ने श्री राम के वनवास काल मे चित्रकूट प्रवास के समय माता सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया था।

२- द्रौपदी - पाँच पाँडवों की पत्नी द्रौपदी को पाँच कुंवारी कन्याओं में भी गिना जाता है। द्रौपदी के पिता पाँचाल नरेश द्रुपद थे। द्रौपदी के स्वयंवर मे अर्जुन ने अपने वनवास काल में द्रौपदी को वरण किया। अर्जुन अपने अन्य भ्राताओं के साथ द्रौपदी को लेकर माता कुंती के पास अपनी कुटिया में पहुंचे तथा द्वार से ही पुकार कर अर्जुन ने अपनी माता कुंती से कहा, "माते ! आज हम लोग आपके लिये अदभुत भिक्षा ले कर आये हैं।" इस पर कुंती ने भीतर से ही कहा, "पुत्रों ! तुम लोग आपस में मिल-बाँट कर उसका उपभोग कर लो।" बाद में ग्यात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में है, कुंती को बहुत दुख हुआ। किन्तु माता के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिये द्रौपदी ने पाँचों पाँडवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

३- सुलक्षणा - लंकाधिपति रावण के पुत्र मेघनाद (इंद्रजीत) की पत्नी सुलक्षणा को भी पाँच सती नारियों मे स्थान दिया गया है।

४- सावित्री - महाभारत के अनुसार सावित्री राजर्षि अश्वपति की पुत्री थीं। उनके पति का नाम सत्यवान था। सावित्री के पति सत्यवान की असमय मृत्यु के बाद सावित्री ने अपनी तपस्या के बल पर सत्यवान को यमराज के  हाथों से वापस ले लिया था। सावित्री के नाम से ही वट सावित्री नामक व्रत प्रचलित है।

५ - मंदोदरी - मंदोदरी लंकाधिपति रावण की पत्नी थीं। हेमा नामक अप्सरा मंदोदरी की माता थी तथा मयासुर मंदोदरी के पिता थे। मंदोदरी लंकाधिपति रावण को हमेशा अच्छी सलाह देती थीं। यह भी कहा जाता है कि अपने पति रावण के मनोरंजन हेतु मंदोदरी ने ही शतरंज नामक खेल का आविष्कार किया था।


सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

कानपुर मे सिनेमा

                            ब्रिटिश शासन मे उत्तर भारत में औद्योगिक शुरुआत के साथ सिनेमा की शुरुआत कानपुर से ही हुई। सबसे पहले अंग्रेजों ने स्वयं के लिये कुछ सिनेमाघरों को बनवाया जो कि बाद मे भारतीयों द्वारा खरीद लिये गये। "एस्टर टाकीज" और "प्लाजा टाकीज" अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी जिसे बाद मे भारतीयों ने खरीद लिया, जो कि क्रमशः "मिनर्वा सिनेमा" और "सुन्दर टाकीज" के नाम से मशहूर हुईं।
                       
                        कानपुर मे पहला सिनेमाघर "बैकुँठ टाकीज" के नाम से खुला। जिसकी स्थापना कलकत्ता की एक कम्पनी चरवरिया टाकीज प्रा.लि. ने सन 1929 में की। इस टाकीज को सन 1930 में पंचम सिंह नाम के व्यक्ति ने खरीद लिया और टाकीज का नाम बदल कर "कैपिटल टाकीज" कर दिया। इस सिनेमाघर की पूरी छत टिन की बनी थी, जिस वजह से स्थानीय लोग इसे "भडभडिया टाकीज" भी कहते थे।

                        सन 1930-40 का युग कानपुर सिनेमा का स्वर्णिम युग कहा जाता है। कानपुर में सन 1936 "मँजूश्री टाकीज" (घन्टाघर के पास) का निर्माण हुआ, जिसे प्रसाद बजाज ने बनवाया। सन 1937 मे "शीशमहल टाकीज" (पी.रोड) का निर्माण हुआ। सन 1946 में "जयहिंद सिनेमा" (गुमटी नं. पाँच) बना। सन 1946 में ही जवाहर लाल जैन ने "न्यू बसंत टाकीज" और लाला कामता प्रसाद ने "शालिमार टाकीज" का निर्माण कराया। "शालिमार टाकीज" का नाम बाद मे "डिलाइट सिनेमा" हो गया। सन 1940 में "इम्पीरियल टाकीज" (पी.पी.एन. मार्केट के सामने) का निर्माण हुआ। आगे चलकर सूरज नारायण गुप्ता ने "नारायण टाकीज" (बेगम गंज) का निर्माण कराया।

                        70-80  के दशक मे कई सिनेमाघर खुले, जैसे "हीरपैलेस" (माल रोड), "अनुपम टाकीज" (जूही), "सत्यम टाकीज" (माल रोड), "संगीत टाकीज", "सुन्दर टाकीज" (माल रोड), "गुरुदेव टाकीज", "पम्मी थियेटर" आदि।

                        दिलचस्प बात यह है कि शुरुआत मे सिनेमाघरों मे छपा टिकट या पास नही चलता था। तब दर्शकों को अपने हाथ मे "मोहर" लगवा कर सिनेमा घर के अन्दर प्रवेश मिलता था।

                        आज तो कानपुर महानगर मे कई मल्टीफ़्ल्र्केज खुल गये है। जैसे “रेव थ्री”, "रेव मोती”, “ज़ेड एस्क्वायर” आदि। परन्तु जो आनन्द का अनुभव सिनेमाघरों मे था वो आनन्द इन मल्टीफ़्लेकसेज मे नही है।

                         यह कानपुर मे सिनेमा का संक्षिप्त "स्वर्णिम इतिहास" है।

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

स्वामी विवेकानन्द






"अपनी ओजस्वी वाणी से विश्व में भारतीय सँस्कृति व अध्यात्म का शंखनाद करने वाले स्वामी विवेकानन्द एक आदर्श एवं आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। युवाओं के लिये विवेकानन्द साक्षात भगवान के समान थे।स्वामी विवेकानन्द की दी हुई शिक्षा पर जो भी व्यक्ति चलेगा उसे सफ़लता अवश्य मिलेगी। अपनी वाणी और तेज से स्वामी विवेकानन्द ने सारी दुनिया कि आश्चर्यचकित कर दिया था।"

स्वामी विवेकानद का मूल नाम नरेन्द्र नाथ था। उनका जन्म १२ जनवरी १८६३ को कलकत्ता में हुआ था। बाल्यावस्था में ही स्वामी विवेकानन्द जी के व्यवहार में आध्यात्म स्पष्ट झलकता था। स्वामी विवेकानन्द वृति से श्रद्धालु एवं दयालु थे, वे बचपन से ही कोई भी कार्य साहस और निडरता से करते थे। स्वामी विवेकानन्द का पूरा परिवार धार्मिक था, इसी कारण बाल्यावस्था से ही उनमे धार्मिक संस्कार आते गये। सन १८७० मे पठन-पाठन हेतु ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की पाठशाला मे उन्हे भेजा गया। स्वामी विवेकानन्द ने मैट्रिक की परिक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे चल कर कलकत्ता प्रेसीडेन्सी महाविद्यालय से उन्होने "तत्वग्यान" विषय में एम.ए. किया।

स्वामी विवेकानन्द के घर मे पले-बढे उनके एक सम्बन्धी डा. रामचन्द्र दत्त स्वामी रामकृष्ण जी के बहुत भक्त थे। धर्म के प्रति लगाव होने से स्वामी विवेकानन्द के मन में बचपन से ही वैराग्य उत्पन्न हुआ देख डा. दत्त एक बार उनसे बोले - "भाई, धर्म-लाभ ही तुम्हारे जीवन का उद्येश्य है तो तुम ब्राह्मसमाज इत्यादि के झंझट में मत पडो। तुम दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण जी के पस जाओ। डा. दत्त के बतायेनुसार स्वामी विवेकानन्द वहाँ गये और उन्हे वह सब कुछ प्राप्त हुआ जो उनको चाहिये था... ये थी गुरु कृपा। जो उन्हे समय-समय पर स्वप्न आदि के माध्यम से प्राप्त होती रहती थी। इसी तरह का एक प्रसंग.....

"एक दिन रात्रि में अर्धजागृत अवस्था में स्वामी विवेकानन्द को एक अद्भुत स्वप्न दिखाई दिया, उन्होने देखा कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस ज्योतिर्मय देह धारण कर समुद्र से आगे-आगे बढे जा रहे हैं तथा वे मुझे पीछे-पीछे आने के लिये संकेत कर रहे हैं। क्षण भर में विवेकानन्द जी के नेत्र खुल गये। उनका हृदय अवर्णनीय आनन्द से भर उठा। उसके साथ ही "जा’... "जा"... ऐसी देववाणी सुनाई दी। विदेश जाने हेतु सारे संशय समाप्त हो गये। प्रस्थान करने का संकल्प दृढ हो गया। एक-दो दिन में यात्रा की तैयारी पूर्ण हो गई।"

सोमवार ११ सितम्बर १८९३ को प्रातः अनेक धर्मगुरुओं के मंत्रोच्चार के उपरांत संगीतमय वातावरण में धर्मपरिषद का शुभारंभ हुआ। मंच के मध्य भाग में अमेरिका के रोमन कैथोलिक पंथ के धर्मप्रमुख थे। स्वामी विवेकानन्द किसी एक विशिष्ट पंथ के प्रतिनिधि नहीं थे। वे भारत के "सनातन हिन्दू वैदिक धर्म" के प्रतिनिधि के रूप में इस परिषद में आये थे। इस परिषद में छै-सात हजार श्रोता उपस्थित थे। परिषद के मंच से प्रत्येक वक्ता अपना लिखित वक्तव्य पढ कर सुना रहे थे। जब परिषद के अध्यक्ष ने स्वामी जी को बोलने के लिये आमंत्रित किया तब विवेकानन्द जी स्वामी रामकृष्ण परमहंस का स्मरण कर अपनी जगह से उठे और अपना व्याख्यान "अमेरिका की मेरी बहनों और बन्धुओं" कह कर शुरू किया। उनकी चैतन्यपूर्ण तथा ओजस्वी वाणी से सभा मे उपस्थित सभी वक्ता एवं श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये। इन शब्दों में ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि श्रोता अपने स्थान पर खडे हो कर करतल ध्वनि करने लगे। श्रोताऒ की हर्षध्वनि और करतल ध्वनि रुक नही रही थी। स्वामी जी के उन भावपूर्ण शब्दों के अपनत्व से सभी श्रोताओं के हृदय स्पंदित हो गये। "बहनों और बंधुओं" से मानव जाति का आह्वाहन करने वाले स्वामी विवेकानन्द एकमात्र वक्ता थे।

इस परिषद में भारत के विषय में बोलते हुए स्वामी जी ने कहा, "भारत पुण्य भूमि है, कर्म भूमि है, ग्यान भूमि है। यह एक सनातन सत्य है कि भारत अंतर्दृष्टि तथा आध्यात्मिकता का जन्म स्थान है।"

धर्मप्रवर्तक, तत्वचिंतक, विचारवान एवं वेदांतमार्गी राष्ट्रसंत आदि अनेक रूप मे विवेकानन्द का नाम विख्यात है। तरुणावस्था में ही सन्यास की दीक्षा लेकर हिन्दू धर्म के प्रचारक-प्रसारक बने। स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती "अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनाई जाती है।

युवको के लिये उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट करो, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो, जिससे स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों मे आदर्शॊं मे आचरण कर सको।

१९०२ में मात्र ३९ वर्ष की अवस्था में ही स्वामी विवेकानन्द महासमाधि मे लीन हो गये। उनके कहे गये शब्द आज भी सम्पूर्ण विश्व के लिये, मानवता के लिये प्रेरणादायी हैं।

स्वामी विवेकानन्द जी की उत्साही, ओजस्वी एवं ऊर्जा से परिपूर्ण वेद की उक्ति " उतिष्ठ.... जाग्रत... प्राप्य वरान्निबोधित" ( उठो..... जागो..... और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के पूर्व मत रुको) जन-जन को प्रेरणा देते रहेंगे।


वन्दे मातरम.................................

भारत माता की जय.......................