ब्रिटिश
शासन मे उत्तर भारत में औद्योगिक शुरुआत के साथ सिनेमा की शुरुआत कानपुर से ही हुई।
सबसे पहले अंग्रेजों ने स्वयं के लिये कुछ सिनेमाघरों को बनवाया जो कि बाद मे भारतीयों
द्वारा खरीद लिये गये। "एस्टर टाकीज" और "प्लाजा टाकीज" अंग्रेजों
द्वारा बनाई गई थी जिसे बाद मे भारतीयों ने खरीद लिया,
जो कि क्रमशः "मिनर्वा सिनेमा" और "सुन्दर टाकीज"
के नाम से मशहूर हुईं।
कानपुर मे पहला सिनेमाघर "बैकुँठ टाकीज" के नाम से खुला। जिसकी स्थापना कलकत्ता की एक कम्पनी चरवरिया
टाकीज प्रा.लि. ने सन 1929 में की। इस टाकीज को सन
1930 में पंचम सिंह नाम के व्यक्ति ने खरीद लिया और टाकीज का
नाम बदल कर "कैपिटल टाकीज" कर दिया। इस सिनेमाघर की पूरी छत टिन की बनी थी, जिस वजह से स्थानीय लोग इसे "भडभडिया टाकीज" भी कहते थे।
सन 1930-40 का युग कानपुर सिनेमा का स्वर्णिम युग कहा जाता है। कानपुर में सन 1936
"मँजूश्री टाकीज" (घन्टाघर के पास) का निर्माण हुआ,
जिसे प्रसाद बजाज ने बनवाया। सन 1937 मे "शीशमहल टाकीज" (पी.रोड) का निर्माण हुआ। सन 1946 में "जयहिंद सिनेमा" (गुमटी नं. पाँच) बना। सन 1946 में
ही जवाहर लाल जैन ने "न्यू बसंत टाकीज" और लाला कामता प्रसाद ने "शालिमार
टाकीज" का निर्माण कराया। "शालिमार टाकीज" का नाम बाद मे "डिलाइट सिनेमा"
हो गया। सन 1940 में "इम्पीरियल टाकीज" (पी.पी.एन.
मार्केट के सामने) का निर्माण हुआ। आगे चलकर सूरज नारायण गुप्ता ने "नारायण टाकीज"
(बेगम गंज) का निर्माण कराया।
70-80
के दशक मे कई सिनेमाघर खुले,
जैसे "हीरपैलेस" (माल रोड), "अनुपम
टाकीज" (जूही), "सत्यम टाकीज" (माल रोड),
"संगीत टाकीज", "सुन्दर टाकीज"
(माल रोड), "गुरुदेव टाकीज", "पम्मी थियेटर" आदि।
दिलचस्प बात यह है कि शुरुआत
मे सिनेमाघरों मे छपा टिकट या पास नही चलता था। तब दर्शकों को अपने हाथ मे "मोहर"
लगवा कर सिनेमा घर के अन्दर प्रवेश मिलता था।
आज तो कानपुर महानगर मे कई
मल्टीफ़्ल्र्केज खुल गये है। जैसे “रेव थ्री”, "रेव मोती”, “ज़ेड एस्क्वायर” आदि। परन्तु
जो आनन्द का अनुभव सिनेमाघरों मे था वो आनन्द इन मल्टीफ़्लेकसेज मे नही है।
यह कानपुर मे सिनेमा का संक्षिप्त "स्वर्णिम
इतिहास" है।
Nice Information. Thanks and Regards.
जवाब देंहटाएंKailash Shukla.