शुक्रवार, 7 मई 2010

सेवा

हिन्दू धर्म में लोक-कल्याण एवं सेवा कार्य को सर्वोपरि माना गया है। सेवा एक सद्गुण  भक्ति-भाव से कि गयी सेवा से प्राप्त शक्ति के प्रभाव से संसार में कुछ भी हासिल करना कठिन नहीं है। भक्ति-भाव से सेवा कार्य करने वाला सभी के लिये प्रिय, आदर और श्रृद्धा का पात्र बन जाता है।



आज के युग में स्वार्थपरता इतनी अधिक हो गयी है कि व्यक्ति खुद से ऊपर उठ कर परमार्थ चिंतन में अपना समय व्यतीत नहीं करना। समाज में ऐसे लोगों कि बहुतायत है जिनके पास भौतिक साधनों का अम्बार लगा है परन्तु वे फिर भी भिखारी बनकर भगवान  से और सुख-समृद्धि प्राप्त करने कि याचना करने में ही अपना समय व्यतीत करते रहते हैं। परमार्थ के लिये उनके पास शायद समय नहीं होता।

हमारे पूर्वज, संत-महात्मा, योगी आदि हमको यही शिक्षा देते रहे है कि हमारे जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह उचित नहीं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम संग्रह न करें। हमें संग्रह अवश्य करना चाहिए, परन्तु जब समाज को हमारी संगृहीत वस्तु कि आवश्यकता हो तो हमें निसंकोच सेवा भाव से परमार्थ के लिये उसे तुरंत दे देना चाहिए।

भगवान् कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञादि कर्म से होती है। यज्ञादि कर्म तभी संभव हैं जब हम सत्कर्मी होंगे। परमार्थ कर्म, सदभाव और सेवा-कार्य ही सत्कर्म है।

व्रत, उपासना, अर्चना, पूजन ही ईश्वर भक्ति नहीं है। उदार भाव से जन-सेवा, परमार्थ कार्य ईश्वर-भक्ति का एक अभिन्न अंग है। भक्ति-भाव एवं निस्वार्थ की गयी सेवा एक ऐसी आराधना है जिसके सामने स्वार्थपरता, निष्ठुरता और संकीर्णता प्रभावहीन होकर ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को और प्रशस्त करती है। प्रकृति का नियम है कि देने पर ही आपूर्ति होगी। वृक्ष पर मौसम के अनुसार नाना प्रकार के फल लगते हैं और वृक्ष बिना किसी भेद-भाव के सभी को अपने फल सहर्ष देता है। आगे फिर अनुकूल मौसम आने पर वही वृक्ष नए फूल और फलों से लद जाता है। इस प्राकृतिक नियम को हमें अपने जीवन में भी उतारना चाहिए।

सदभाव से प्रेरित होकर लोकहित कि कामना से किये गये सेवा-कार्यों को गीता में यज्ञ के समान बताया गया है।

अतः हमें परमार्थ और सेवा-कार्य के मार्ग पर चलना चाहिए। संग्रह के साथ समर्पण को भी अपनी आदत बनाना चाहिए। सेवा-कर्म और परमार्थ के मार्ग पर चल कर हम ईश्वर के और समीप जा सकेंगे। जिससे हमारा जीवन प्रकाशमय और उल्लासपूर्ण होगा।

वन्दे मातरम-----------

भारत माता कि जय----------

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक शरीर धर्म होता है, दूसरा समाज धर्म। जिसकी चरम परणिति राष्ट्र धर्म के रूप में होती है। व्रत,उपासना, आदि सत्व शुद्धि के लिए होते हैं, उसीसे मन/ चित्त शुद्ध-बुद्ध हो परिवार समाज आदि का हित चिंतन कर सकता है। सेवा कर्म स्वस्थ्य समाज की आधारशिला है वहीं परमार्थ मार्ग निश्चय ही आत्मोन्नति का साधक बनता है। क्योंकि हम एक सामाजिक प्राणी है अत: ईश्वर की ओर तभी जा पाना संभव होगा जब समाज स्वस्थ्य और शांत होगा। किन्तु यह भावुक हुए बिना ही करना श्रेयस्कर होगा क्योंकि हम उस सनातन वैदिक आर्य धर्म के अनुयायी हैं जो कर्म सिद्धान्त को मानता है। जो पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त नहीं मानते उन की बात अलग है। आज की विषम परिस्थितियों में जब इस देश में सनातन धर्म एवं धर्मावलम्बियों को भांति-भांति से प्रताडि़त किया जा रहा है ऎसे में परमार्थ एवं धर्मार्थ में संतुलन और समझ बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

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  2. शिव कल्याणकारी है उसी भाव से सेवा कल्याणकारी है ! सेवा करो ! आप मांगो या न मांगो फल मिलेगा कब कहाँ कैसे यह आप नहीं जान पाएंगे ! सेवा भाव में चतुराई दिखाई समझ लो चतुराई के साथ फल पाओगे तब दुःख होगा ! जय हो !

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