गुरुवार, 27 मई 2010

स्वतंत्रता संग्राम के अमर गीत ( २ )

मेरे पिछले लेख में आपने कुछ कवी और लोकगीतकारों की रचनाओं का संक्षिप्त रूप देखा। आज प्रस्तुत हैं कुछ अन्य रचनाकारों की रचनाएं -----

भारत में अंग्रेजों के दुष्कृत्यों तथा अत्याचारी-तानाशाही पूर्ण शासन से विक्षुब्ध हो कर कलमकारों ने अपनी लेखनी के द्वारा क्रान्ति का उद्घोष किया।

बिहार प्रान्त के शाहाबाद जनपद के डुमराव नामक स्थान में जन्में श्री मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने ' फिरंगिया ' नामक पुस्तक लिखी जो अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गई। प्रस्तुत है उसी पुस्तक की कुछ पंक्तियाँ ------

सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा,
आज उहे भईल मसान रे फिरंगिया॥
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एको जो रोउवां निरदेसिया के कलपति,
तोर नास होई जाई सुन रे फिरंगिया॥
दुखिया के आह तोरे देहिया के भसम करी,
जरि भुनि होई जईबे छार रे फिरंगिया॥
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भारत की छाती पर, भारत के बच्चन के,
बहल रक्तवा के धार रे फिरंगिया।
दुधमुहाँ लाल सम, बालक मदन सम,
तड़प-तड़प देले जान रे फिरंगिया॥

तत्कालीन गीतों में गीतकारों ने अपनी शब्द रचना के द्वारा जन चेतना जागृत की। बलिया के श्री प्रसिद्ध नारायण सिंह ने भोज पूरी भाषा में कुछ इस प्रकार लिखा------

अलगा आपन बोली बिचार,
कन-कन में जेकरा क्रांति बीज,
अइसन भोजपुर तप्पा हमार,
इतिहास कहत है पन्ना पसार॥

अंग्रेजों के अमानुषिक अत्याचारों पर श्री प्रसिद्ध नारायण सिंह ने ही लिखा-------

गांवन पर दगलानी गन मसीन,
बेंतन सन मरलन बीन-बीन।
बैठाई डाल पर नीचे से,
जालिम भोकलेन खच-खच संगीन।
बहि चलल खून के तेज धार।।

घर घर से निकलली आहि-आहि,
कोना-कोना से त्राहि-त्राहि,
गांवन-गांवन लूट फूंक,
मारल काटल भागल पराहि,
फिर कवन सुने केकर पुकार॥

बनारस में काशिराज चेत सिंह के साथ अंग्रेज अफसर वारेन हेस्टिंग्स का भीषण संघर्ष हुआ। तब बच्चे-बच्चे की जबान से निम्नलिखित दो पंक्तियाँ गूंजा करतीं थीं जो आज कल भी कहीं कहीं सुनाई पड़ जाती हैं----

घोड़े पर हौदा हाथी पर जीन,
जल्दी में भाग गया वारेन हेस्टीन॥

स्वयं बहादुर शाह जफ़र ने अपनी कलम से लिखा था---

गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की
तख्तें लन्दन तक चलेगी, तेग हिदुस्तान की॥

एक लोक रचनाकार का निम्न छंद बाजुओं को फड़का देता है---

तेगन से मारि-मारि तोपन को छीन लेत,
गोरन को काटि-काटि गीधन को दीन्हा है।
लन्दन अंग्रेज तहां कंपनी की फौज बीच,
मारे तरवारिन के कीच कर दीन्हा है॥

भारत का इतिहास ऐसे सशस्त्र मोर्चों से भरा पड़ा है। जिसमे भारतीय नारियों ने न केवल भाग लिया अपितु कई मोर्चों का सफल नेतृत्व भी किया। इसमें कुछ नाम प्रमुख हैं---- देवी चौधरानी, चुआड़ की रानी शिरोमणि, कित्तूर की वीर रानी चेनम्मा, शिवगंगा की वीरांगना वेलुन्चियार, नेपाल की महारानी लक्ष्मीदेवी और पंजाब की रानी जिन्दा।

किसी कवी ने ऐसी वीरांगनाओं के लिये लिखा है----

रण में जाकर डट गयीं कभी,
अरिदल को मार भगाने को,
चंडी का प्रबल प्रचंड तेज़,
दुनिया को याद दिलाने को।

या झटपट उद्यत हुईं स्वयं ही,
अनल-ज्वाल धधकाने को,
लपटों में जा छिप गयीं कभी,
जो अपना धर्म बचाने को।

इसके कारण ही मान बढ़ा,
जौहर-व्रत की चिंगारी का,
है कितना गौरवशाली पद,
वसुधा में हिन्दू नारी का॥

शेष अगले लेख में----

वन्दे मातरम्-------

भारत माता की जय-------

मंगलवार, 25 मई 2010

स्वतंत्रता संग्राम के अमर गीत ( १ )

भारत की आजादी के लिये हुए स्वतन्त्रता-संग्राम में जहां आजादी की दीवाने क्रांतिकारी देश के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर स्वातंत्र-यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे कर अमर हो गये, वहीं, उसी स्वातंत्र-यज्ञ में देश-प्रेमी कलमकारों ने अपनी लेखनी के द्वारा जनमानस को झिंझोड़ा और स्वातंत्र-समर में भाग लेने को प्रेरित किया।

यहाँ उन्ही जाने-अनजाने कवियों, कलमकारों की प्रतिष्ठित और गुमनाम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-----

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद के कवि स्व० कृष्ण शंकर शुक्ल 'कृष्ण' द्वारा रचित 'वेणी माधव बावनी' का अवधी भाषा का एक छंद अत्यंत प्रेरक था----

तेरी तेग ताव माँहि तडपत जात कृष्ण,
काटि-काटि मुंड झुण्ड दुंद पट कतु हैं।
मच्छिका समान ही उड़ाती है शत्रु शीश,
गौरंग सुअंग को सुआंग सो रंगतु है।
खंग कोपि तोपि देत तोपन को लोथिन सों,
गगन-गगन को तो कछु ना गनतु है।
सिर पै समान असि, सर पै समान अरि,
सर पै नहाय रक्त, सरजा करतु है॥

कवि अजीमुल्ला ने अपनी पुस्तक 'पयामे आजादी' में आजादी प्राप्त करने के लिये नवजवानों को कुछ इस प्रकार ललकारा----

आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा,
तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।
हिन्दू-मुस्लिम-सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,
यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा॥

वीर सपूता बुंदेलखंड के सूरमाओं ने अंग्रेजों को मरते दम तक बुदेलखंड में प्रवेश नहीं करने दिया। एक अनाम लोकगीतकार ने अपने लोकगीत में कहा----

मचले आजादी के लाने, बुन्देला दीवाने,
मर्दन सिंह बानपुर वारे, नाहर से गुर्राने,
लखतन मर्दन सिंह को, गोरा छिरिया से मिमियाने,
कहत भवानी सुन लो प्यारे, मर्दन मरद कहाने॥

बुंदेलखंड के एक अन्य लोकगीतकार श्री देविदास जी का प्रचिलित लोकगीत----

लोहागढ़ के वीर बाँकुरे, अंग्रेजन को मारें,
भुट्टा से काटें पल-पल में, कोऊ ना आवे द्वारे,
मच गयी खारेन कीच खून की, भागी पलटन गोरी,
देविदास फतह झांसी की हो, यह अर्जी है मोरी॥

श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान जो स्वयं भी एक स्वतंत्रता सेनानी थीं। उनकी प्रसिद्ध कविता 'झांसी की रानी' का एक अंश----

बुंदेले हरबोलों के मुख,
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी,
वह तो झांसी वाली रानी थी॥

प्रो० राजमणि शुक्ल 'विवेक' ने अपनी भोजपुरी भाषा की कविता में लिखा----

अन्धेरि अउर अनियाऊ रहलि अंग्रेजन कर जेठी बेटी,
जनता के समुझि लिहे रहलेनी ओन्हने घर की चेटी॥

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घर-घर चिठिया पहुँचली नेवता कर खून कई अच्छर कागज़ नाहीं,
ठकुरान हथवां हेन्सली तलवारि आजादी कई जोरा उठल मन माँहि,
हाथ उठाइके नीर कहई घुंघटा के तरे रहबी अब नाहीं,
देश के प्रेम कई पीर, घरे बइठी अंगरेज कई मेम सिहाहीं,
कंत के साथ बसंत बिना, खुन्वां कर आज जरी अब होली,
रूप कई अच्छत, ओठ कई अमृत, जै-जै भारत मंत्र कई बोली॥

--------- शेष अगले लेख में----

वन्दे मातरम -----

भारत माता की जय ----------

शनिवार, 22 मई 2010

संस्कृति पर कुठाराघात

भारतीय संस्कृति मानव जीवन की शक्ति है। हमारे राष्ट्रीय आदर्श की गौरवमयी मर्यादा है। मानव-जीवन की स्वतन्त्रता की द्योतक है। हमारे सामाजिक व्यवहारों को निश्चित करती है। भारतीय संस्कृति भारत की प्रेरक शक्ति है।

भारत में कई विदेशी जातियां विभिन्न उद्येश्यों से आयीं और भारत में ही बस गयीं। अंग्रेज भी भारत इसी प्रकार आये थे और भारत में अनेक वर्षों तक राज्य कियाa। अंग्रेजों के शासन से भारतीयों के आचार-विचार, रहन-सहन आदि पर बहुत प्रभाव पड़ा। भारत ने अंग्रेजों से संघर्ष कर के देश तो आजाद करा लिया, परन्तु अपनी संस्कृति में पूरी तरह से नहीं लौट पाए। ब्रिटिश शासन काल में तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट (भारत मंत्री) लॉर्ड मैकाले ने भारत में रह कर यह आभास किया की भारत वंशियों की संस्कृति को नष्ट किये बिना भारत में शासन करना कठिन है। इस पर उस ब्रिटिश शासनाधिकारी ने गहन विचार कर यह निर्णय लिया की भारत में हम अब ऐसी जाति पैदा करेंगे जिसका रंग और रक्त तो भारतीय होगा परन्तु शिक्षा, रूचि और संस्कृति से वह अंग्रेज होगा। जिसके परिणाम अब भारत में स्पष्ट रूप से दिखलायी पड़रहे हैं।

हमारे कर्म, विचार और आचरण में भारतीयता का अभाव साफ़ दिखता है। हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हैं पर मानसिक गुलाम हैं। स्वाधीनता शब्द के वास्तविक अर्थ का विचार ना करके केवल स्वाधीनता शब्द की रट लगाना, पीड़ित और क्रीतदास की मनोवृति होने के अलावा और कुछ नहीं।

हिन्दुस्तान की राजनैतिक स्वन्तान्त्रता का तभी कोई सार्थक अर्थ हो सकता है, जब यहाँ भारतीय जीवन के अनुकूल शाशन और शिक्षा व्यवस्था हो। स्वतंत्र भारत के शास्नाधिकारियों का यह कर्तव्य है की हिन्दुस्तानी जीवन के सर्वोन्नती के मार्ग भारतीय संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये अंग्रेजों ने जो अपनी विदेशी शिक्षा, शिक्षा पद्धति और संस्कृतिके प्रसार द्वारा अपने हित और दूरगामी परिणाम वाले राजनैतिक षड्यंत्र रचे थे उन्हें निर्मूल करें और भारत में भारतीय संस्कृति की रक्षक एवं अनुकूल शिक्षा एवं शाशन व्यवस्था बनाये। स्वतंत्र भारत के शासकों का यह कर्तव्य है की वे इस बात का ध्यान रखें की भारत में रहने वाले हर वर्ग की उन्नति और उनके सांस्कृतिक अधिकार निष्कंटक बने रहें।

व्यक्ति निर्माण ही समाज-निर्माण और समाज-निर्माण ही देश और विश्व के निर्माण का कारक है। व्यक्ति निर्माण श्रेष्ठ संस्कृति के बिना संभव नहीं। किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उसकी संस्कृति से ही स्थायी रह सकता है।

भारत का उत्थान भी भारतीय संस्कृति के पालन से ही संभव है। अपनी संकृति का त्याग मनुष्य, समाज और देश की अवनति का कारक है। बड़ा आश्चर्य होता है की हमारे शासक वर्ग ने अंग्रेजों की बहुत बातें ग्रहण की पर उनसे वे उनके स्व-सभ्यता-प्रचार को नहीं सीख पाए। आज कहने को तोह देश में हिन्दुस्तानियों का शासन है, किन्तु भारतीय संस्कृति के विकास के लिये कोई सुदृढ़ प्रयास होता दिखाई नहीं देता। देश में जब तक भारतीय संस्कृति के अनुरूप भारतीय शिक्षा पद्धति का विकास नहीं किया जाएगा तब तक यह देश 'भारत' होते हुए भी अभारतीय भावों का शिकार बना रहेगा।

हम स्वतंत्र तो हो गये, पर हम, हमारे शासक अपनी भारतीय संस्कृति के अनुपालन में शिथिल हैं। हम अंग्रेजों की भाषा-भूषा-संस्कृति को ज्यादा महत्व देने लगे हैं। किसी भी व्यक्ति के लिये अंग्रेजी भाषा या विश्व की अन्य किसी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना और उसमे पारंगत होना बहुत गर्व की बात है। परन्तु अपनी संस्कृति को छोड़ना, उससे दूर हो जाना तो अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारना है, अपनी पहचान की कब्र खोदना है। ऐसा कर के तो हम अपनी संस्कृति को नष्ट और लुप्त करने के मार्ग पर बढ़ेंगे। हमें और हमारे शासक वर्ग को ध्यान रखना चाहिए कि अगर भारत की संस्कृति नष्ट या मृत हो गयी तो भारत का भी जिन्दा रहना मुश्किल है। विश्व के मानचित्र से भारत का नामोनिशान मिट जाएगा।

इसलिए हमे हर प्रयास करके अपनी संस्कृति को जिन्दा रखना है। तभी हम पूर्ण स्वाधीन और स्वतंत्र हो सकेंगे तथा भारत को विश्व पटल पर सर्वोच्च स्थान दिला सकेंगे।

वन्दे मातरम----------

भारत माता कि जय----------

सोमवार, 17 मई 2010

! ! जय - हिंद ! !

( मित्रों क्षमा चाहता हूँ की मेरा यह लेख काफी बड़ा हो गया है। मैं विवश हूँ। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर जब भी लिखा जाता है, शब्दकोष के शब्द तो कम पड़ ही जाते हैं, लेखनी भी और लिखने को मचलती रहती है। )

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की 'विमान दुर्घटना में मृत्यु' की बात सत्य है या असत्य, कुछ पता नहीं। उनका निधन उस दुर्घटना में हुआ या नहीं ? अगर नहीं हुआ तो नेताजी ने अपना बाकी जीवन कहाँ और कैसे बिताया ? वे फिर कभी वापस भारत आये या नहीं ? ऐसे तमाम सार्थक प्रश्नों का उत्तर कब मिलेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर की देश और देशवासियों के लिये काफी उपयोगिता है।

पर, अब इससे भी ज्यादा उपयोगी प्रश्न यह है कि हम सुभाष बाबू के विचार, उनका देश के प्रति असीम प्यार, उनकी सोच, उनके आदर्श को जीवित रखें।

उनके विचार-सोच आज भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके जीवनकाल में थे। सरकारी तथा गैर सरकारी दोनों स्तर के कुछ स्वार्थी लोगों ने उनके विचार, उसूल और आदर्शों का सही रूप प्रस्तुत करने के बजाय एक पहेली, एक कहानी, एक मिथक बना कर रख दिया। इन स्वार्थी लोगों ने सुभाष बाबू को कभी भी एक राष्ट्रवादी राजनैतिक, सिद्धांतवादी सामाजिक कार्यकर्ता, भविष्यदृष्टा एवं दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया। देश की आजादी से लेकर आज तक भारत में बनी सरकारों के इस स्वार्थ और कुटिल शरारत से भरे दोष को जनमानस के सामने उजागर करना समाज के देशभक्त बुद्धिजीवी वर्ग का परम कर्त्तव्य है। जिससे भावी पीढी नेताजी के आदर्शों को अपना कर देश को सही और उचित मार्ग पर ले जाएँ।

नेताजी में नेतृत्व के सभी गुण विद्यमान थे। उनकी उत्कट देशभक्ती, त्याग कि भावना, कार्य निष्पादित करने की लगन और दूरदृष्टि की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। नेता जी बहुत भावुक भी थे, भक्ति संगीत सुनकर भाव विभोर हो जाते थे। देश भक्ति का जज्बा, देश पर कुर्बान हो कर इतिहास-पुरुष बनकर पीढ़ियों तक आदर्श बन जाना-- यह खुशनसीबी विरलों को ही मिलती है। हमारे नेताजी ऐसे ही खुशनसीब व्यक्ति थे।

दुसरे विश्वयुद्ध ने विश्व के देशों के आपसी रिश्ते और कई देशों की भौगोलिक सीमायें तक बदल दीं। सुभाष बाबू का कहना था की ऐसे वक्त पर हिन्दुस्तान को आजाद कराया जा सकता है। उनका यह भी दावा था कि भारत कि आजादी के लिये यह आखरी जंग साबित होगी। उनका कहना था की यह आजादी सिर्फ भारत की ही नहीं अपितु पूरी मानवता कि आजादी होगी और बर्तानिया साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील होगी।

भारत के महान क्रांतिकारी गण सुभाष बाबू के आदर्श थे। सुभाष बाबू आजीवन पक्के और वफादार कांग्रेसी रहे। सुभाष बाबू गांधी जी के अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिलाने की खोखली नीति पर कभी विश्वास नहीं करते थे। इसी कारण से नेहरु जी की कांग्रेस ने द्वेष वश कभी सुभाष बाबू का साथ नहीं दिया। जिस समय आजाद हिंद फ़ौज की टुकड़ियां मोर्चे पर मोर्चा मारती हुई भारत की धरती की ओर बढ़ती आ रही थीं, उस समय कांग्रेस ने, जिसके हाथ में करोडो हिन्दुस्तानियों कि नब्ज थी जिससे आजाद हिंद फ़ौज को काफी मदद मिल सकती थी, ऐसा कुछ नहीं किया। बल्कि २४ अप्रैल १९४५ को जब भारत आजाद हिंद फ़ौज और सुभाष चन्द्र बोस के प्रयासों से आजादी के कारीब था तब जवाहर लाल नेहरु ने गुवाहाटी की एक जन सभा में कहा " यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान कि मदद से भारत पर हमला किया तो मैं स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लड़कर रोकने जाऊँगा। " ( वाह ! री कांग्रेसी देशभक्ति )

सुभाष बाबू का सपना था एक आजाद, ताकतवर और समृद्ध भारत। वे भारत को एक अखंड राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। कांग्रेस देश का विभाजन करके सुभाष बाबू के अखंड आजाद हिंद आन्दोलन की पीठ पर छुरा भोंक दिया। विभाजन का घाव तो एक दो पीढ़ियों के बाद भर जाता, लेकिन दो देश, तीन धर्म पर उसके दुष्प्रभावों ने नफरत की शक्ल में जड़े जमा ली हैं जो कि वक़्त गुजरने के साथ और मजबूत ही हुई हैं। अगर नेता जी कि चेतावनियों पर कांग्रेस समय रहते ध्यान देती और अपने गोरे रहनुमाओं के विभाजन के जाल में ना फंसी होती तो मानवता के माथे पर भयानक रक्त-पात का कलंक लगने से बच जाता।

कांग्रेस का तो बस एक ही राग है गांधी जी ने अपने अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिला दी। कांग्रेस की जनसभाओं में गा-गा कर एक ही राग अलापा जाता है--- " दे दी हमें आजादी ----- कर दिया कमाल। " उन सैकड़ों - हजारों शूरवीरों का इतिहास नें कहीं जिक्र ही नहीं जिन्होंने दो-दो आजीवन कारावास भोगे, कोल्हू में बैल कि तरह जोते गये, नंगी पीठों पर कोड़े खाए, वंदेमातरम का उद्घोष करते हुए फांसी का फंदा चूम कर फांसी पर झूल गये। गांधी जी राष्ट्रपिता है, नेहरू जी चाचा है, कांग्रेस की चाटुकारिता में सुभाष बाबू के लिये जगह कहाँ बचती है। गाँधी जी के अहिंसा के बचकाने नारों और नेहरू जी की खोखली नीति एवं भयंकर नादानियों पर अब जनमानस नए सिरे से सोच रहा है और उनके द्वारा की गयी गलतियों से भारत को हुए नुक्सान पर अपना सर धुन रहा है।

युवा वर्ग के लिये नेता जी के विचार काफी दृढ थे। स्वामी विवेकानंद कि तरह वे भी सदैव युवा वर्ग को अपने आन्दोलन से जोड़ते रहे। वे नौजवानों को इतना ताकतवर बनाना चाहते थे कि युवा देश की आजादी के लिये सर्वस्व न्योछावर करने को सहर्ष तैयार रहे। उनका कहना था कि स्वराज की नींव कष्ट और त्याग पर रखी जाती है, जिसपर राष्ट्रनिर्माण होता है। जिसके लिये जरूरी है कि हर परिवार से एक नवजवान भारत माता के चरणों में सर रखने को आगे आये। उनका कहना था कि मेरे कुछ सिद्धांत हैं, उसूल हैं और मैं उनके लिये जान भी दे सकता हूँ। जान बचाने के लिये सिद्धांतो और उसूलों कि तिलांजलि नहीं दे सकता। हमारी लडाई सांसारिक सुख-सुविधा के लिये नहीं है, ना ही हम इस हाड-मांस के शरीर के लिये लड़ रहे हैं। हमारी जंग तो दुष्ट शक्तियों के खिलाफ है। सत्य और स्वतन्त्रता हमारा आदर्श है। रात के बाद दिन आता है, इसी तरह हमारी भी विजय होगी। हम नहीं जानते कि आजादी मिलने तक हम में से कौन जिन्दा रहेगा, पर हमें विश्वास है कि हमें आजादी अवश्य मिलेगी और हमें इसके लिये आत्मविश्वास के साथ अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए।

अंत में मैं सिर्फ इतना और लिखना चाहता हूँ कि " कितना भी झूठ गढ़ा जाए, चाहे झूठ का महल खड़ा कर दिया जाए, पर एक दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की सच्चाई भारत और भारतवासियों के सामने जाहिर होकर रहेगी, तब आने वाली पीढियां राजनीति के इन ठेकेदारों से, इन चाटुकारों से, इन भडुए इतिहासकारों से सुभाष बाबू के बारे में किये गये अनर्गल प्रलापों का प्रमाण मांगेगी।

तभी यह भारत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का ऋण उतार सकेगा, और तभी यह भारत नेताजी के स्वप्नों का भारत होगा। जय हिंद ! !

वन्दे मातरम-------

भारत माता कि जय----------

गुरुवार, 13 मई 2010

हिंदुत्व

आज भारत के अधिकाँश नागरिक और विश्व के अन्यान्य देशों के नागरिक जो हिंदुत्व से अनभिग्य हैं, प्रायः हिन्दू और हिंदुत्व का अर्थ साम्प्रदायिकता समझते हैं। भारत में तो हिंदुत्व एक राजनैतिक नारा समझा जाने लगा है। वोट की राजनीति में राजनीतिज्ञों ने अपने अनर्गल प्रलाप द्वारा भारतीय जनमानस में हिंदुत्व को लेकर एक भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा कर दी है।

भारत के प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित है--

आसिंधो: सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका ।
पितृभू: पुन्यभूश्रैव स वै हिंदुरीति स्मृत: ॥

अर्थात जो सिन्धु नदी से लेकर सागर (कन्याकुमारी) तक विस्तृत इस भारत भूमि को अपनी पितृ-भूमि और पुण्य-भूमि मानता है, वह हिन्दू है।

प्राचीन काल से चली आ रही किसी सामजिक व्यवस्था को मानने वाले समूह को संप्रदाय कहते हैं। जैसे सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म आदि। ये सब भिन्न-भिन्न संप्रदाय हैं, इनकी अपनी-अपनी पूजा पद्धति है, पर एक व्यापक दृष्टि में ये सभी केवल हिन्दू हैं। विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण एवं सैद्धांतिक मतभेदों के रहने पर भी सांस्कृतिक परंपरा की गति में किसी प्रकार का अवरोध नहीं पड़ता। आत्म-कल्याण के साधनों में विविधता होने पर भी सार्वजनिक हित की भावना पर किसी प्रकार की ठेस नहीं लगती। इन सब सम्प्रदायों की यही राष्ट्रीयता की भावना ही हिंदुत्व है।

हिन्दू न तो साम्प्रदायिक है और न ही हिंदुत्व साम्प्रदायिकता है। हिंदुत्व एक सागर है, जिसमे भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय रुपी नदियाँ आकर विलीन हो जाती हैं। तरंगों में लहराती हुई समुद्र की शोभा बढ़ाती हैं और सागर की ही महत्ता के गुणगान करती हैं।

हिंदुत्व एक आदर्श भारतीय राष्ट्रीय समाजवाद है, जिसने समस्त भारतीय समाज को एक सूत्र में आबद्ध कर रखा है। हिंदुत्व साम्प्रदायिकता नहीं राष्ट्रीयता है।

हिंदुत्व विश्व की एक प्राचीन सर्वकल्याणकारी, सर्व सामर्थ्य मय और सम्पूर्ण संस्कृति है।

वन्देमातरम----

भारत माता कि जय--------

मंगलवार, 11 मई 2010

६ मई २०१०

साधु ! साधु !! साधुवाद लेने के पात्र हैं विशेष न्यायालय के माननीय न्यायाधीश श्री ऍम ऍम तहलियानी और भारत सरकार के अधिवक्ता श्री उज्ज्वल निकम जी।

दिनांक ६ मई २०१० के दिन पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब को विशेष न्यायालय द्वारा मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी। बहुत कड़ी मेहनत की श्री उज्ज्वल निकम जी ने। उन्होंने अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग करते हुए अपने देश के लिये अपनी जान जोखिम में डालकर न्यायालय के सामने उचित साक्ष्य प्रस्तुत करके माननीय न्यायाधीश महोदय द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला कराया।

माननीय न्यायाधीश श्री एम एम तहिलयानी और माननीय अधिवक्ता महोदय श्री उज्ज्वल निकम को नमन और साधुवाद।

परन्तु अब यह प्रश्न उठता है कि क्या इस फैसले से आतंकवादियों का पनाहगार और आतंकवादी प्रशिक्षण का केंद्र देश पाकिस्तान कुछ सबक लेगा ? क्या आतंकवादी देश पाकिस्तान अपनी धूल-धूसरित साख को विश्व-पटल पर फिर से सवारने की कोशिश करेगा ?

एक हिन्दुस्तानी होने के नाते ऐसे प्रश्नों के उत्तर अब हमें सोचने ही होंगे, इन पर गहनता से विचार करना होगा।

मेरे अपने विचार से पाकिस्तान का जन्म ही आतंक के द्वारा हुआ है। तो क्या वो अपनी जन्म-जात आदत को बदल सकेगा ? हाँ बदलना अब हम हिन्दुस्तानियों को होगा। अब हम सभी हिन्दुस्तानियों को मिल कर बुलंद आवाज़ में अपने देश की सरकार से मांग करनी होगी कि अब समय है पाकिस्तान जैसे आतंकी अड्डों वाले देश को मुहतोड़ जवाब देने का। आतंकवाद के प्रशिक्षक देश पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने का। पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देते हुए सबक सिखाने का। जिससे फिर कभी पाकिस्तान जैसे कायर देश अपनी कायरता का प्रदर्शन हिन्दुस्तान में करने से बाज आये।

हम हिन्दुस्तानियों को मिलकर भारत सरकार के सामने यह आवाज उठानी होगी कि कसाब और अफजल गुरु जैसे लोगों को सरकारी अतिथि ना बनाकर जल्द से जल्द फांसी के फंदे पर लटकाएं, जिससे इन दरिंदों को दी गयी सजा पूरी हो और इनके जैसे अन्य सिरफिरे आतंकियों और उनके आकाओं को सबक मिले।

अजमल कसाब को फांसी के फंदे पर झुलाने से ही पाकिस्तान को करारा जवाब मिलेगा और साथ ही हम विशेष न्यायालय के माननीय न्यायाधीश और माननीय अधिवक्ता महोदय को सही रूप से धन्यवाद कर सकेंगे।

वन्दे मातरम्------------

भारत माता कि जय-----------

शुक्रवार, 7 मई 2010

सेवा

हिन्दू धर्म में लोक-कल्याण एवं सेवा कार्य को सर्वोपरि माना गया है। सेवा एक सद्गुण  भक्ति-भाव से कि गयी सेवा से प्राप्त शक्ति के प्रभाव से संसार में कुछ भी हासिल करना कठिन नहीं है। भक्ति-भाव से सेवा कार्य करने वाला सभी के लिये प्रिय, आदर और श्रृद्धा का पात्र बन जाता है।



आज के युग में स्वार्थपरता इतनी अधिक हो गयी है कि व्यक्ति खुद से ऊपर उठ कर परमार्थ चिंतन में अपना समय व्यतीत नहीं करना। समाज में ऐसे लोगों कि बहुतायत है जिनके पास भौतिक साधनों का अम्बार लगा है परन्तु वे फिर भी भिखारी बनकर भगवान  से और सुख-समृद्धि प्राप्त करने कि याचना करने में ही अपना समय व्यतीत करते रहते हैं। परमार्थ के लिये उनके पास शायद समय नहीं होता।

हमारे पूर्वज, संत-महात्मा, योगी आदि हमको यही शिक्षा देते रहे है कि हमारे जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह उचित नहीं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हम संग्रह न करें। हमें संग्रह अवश्य करना चाहिए, परन्तु जब समाज को हमारी संगृहीत वस्तु कि आवश्यकता हो तो हमें निसंकोच सेवा भाव से परमार्थ के लिये उसे तुरंत दे देना चाहिए।

भगवान् कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञादि कर्म से होती है। यज्ञादि कर्म तभी संभव हैं जब हम सत्कर्मी होंगे। परमार्थ कर्म, सदभाव और सेवा-कार्य ही सत्कर्म है।

व्रत, उपासना, अर्चना, पूजन ही ईश्वर भक्ति नहीं है। उदार भाव से जन-सेवा, परमार्थ कार्य ईश्वर-भक्ति का एक अभिन्न अंग है। भक्ति-भाव एवं निस्वार्थ की गयी सेवा एक ऐसी आराधना है जिसके सामने स्वार्थपरता, निष्ठुरता और संकीर्णता प्रभावहीन होकर ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को और प्रशस्त करती है। प्रकृति का नियम है कि देने पर ही आपूर्ति होगी। वृक्ष पर मौसम के अनुसार नाना प्रकार के फल लगते हैं और वृक्ष बिना किसी भेद-भाव के सभी को अपने फल सहर्ष देता है। आगे फिर अनुकूल मौसम आने पर वही वृक्ष नए फूल और फलों से लद जाता है। इस प्राकृतिक नियम को हमें अपने जीवन में भी उतारना चाहिए।

सदभाव से प्रेरित होकर लोकहित कि कामना से किये गये सेवा-कार्यों को गीता में यज्ञ के समान बताया गया है।

अतः हमें परमार्थ और सेवा-कार्य के मार्ग पर चलना चाहिए। संग्रह के साथ समर्पण को भी अपनी आदत बनाना चाहिए। सेवा-कर्म और परमार्थ के मार्ग पर चल कर हम ईश्वर के और समीप जा सकेंगे। जिससे हमारा जीवन प्रकाशमय और उल्लासपूर्ण होगा।

वन्दे मातरम-----------

भारत माता कि जय----------