सुख-दुःख, सफलता-असफलता, उत्थान-पतन का कारक "भाग्य" को मानने वालों को यह समझ लेना आवश्यक है कि भाग्य क्या है और उसका निर्माण किस प्रकार होता है? यह विश्वास कर लेना कि परमात्मा स्वयं अपनी मर्जी से जिसके भाग्य में जो चाहता है वो लिख देता है, ठीक नहीं। ऐसा मानना परमात्मा की न्यायशीलता पर लांछन लगाना है। किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुःख लिख देने में परमात्मा की क्या अभिरुचि हो सकती है? सुखी व्यक्ति से उसे कोई लोभ नहीं होता और दुःखी व्यक्तियों से कोई शत्रुता नहीं होती। परमात्मा तो सबका पिता है, सारे प्राणी उसको समान रूप से प्यारे होते हैं, सबके प्रति परमात्मा का समान भाव रहता है। परमात्मा न तो किसी का पक्ष करता है और न ही किसी का विरोध। भाग्य अथवा प्रारब्ध मनुष्य के अपने कर्मों का फल होता है। जो मनुष्य करने योग्य शुभ कार्य करता है उसका फल उसे सौभाग्य के रूप में प्राप्त होता है और जो अपना जीवन अशुभ कार्यों में लगाता है वह उसके फल के रूप में दुर्भाग्य को प्राप्त करता है।
जो व्यक्ति भाग्य निर्माण के लिए अपने कर्मों की ओर ध्यान न देकर परमात्मा की ओर ही देखा करते हैं, इसी भ्रम के आधार पर वे भाग्यवादी कर्मों से विरत रह कर परमात्मा को मनाने और उसे प्रसन्न करने का उपक्रम करते रहते हैं, तथा चाहते हैं कि उनकी पूजा-अर्चना से प्रसन्न हो कर परमात्मा कर्मफलों का अपना अडिग और अटल नियम बदल दे तथा उनके दुर्भाग्य के स्थान पर सौभाग्य लिख दे। वह कुछ ऐसा चमत्कार कर दे कि बिना कुछ किये जिधर हाथ फैला दें उधर की सारी सम्पत्तियाँ और सारी विभूतियाँ भागकर उसके पास आ जायें। परमात्मा उसे ऐसा भाग्यवान बना दे कि उसके कदम रखते ही उसे सफलता मिल जाये। किन्तु ऐसा कभी नहीं हो सकता। जो बात जिस नियम के अन्तर्गत होगी वह उसी नियम के अनुसार चलेगी। ईश्वरीय नियमों को अपवाद बना सकने की आशा कभी पूरी नहीं हो सकती। "भाग्य मनुष्य के कर्मों का फल होता है। वह उसके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही बनता-बिगड़ता है।"
भाग्य का निर्माण न तो कोई आकस्मिक संयोग है और न उसका बनना-बिगड़ना किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। यह कर्मफलों का विधान है और इसका निर्माता स्वयं मनुष्य ही होता है। यदि मनुष्य चाहता है कि उसके भाग्य में श्री-समृद्धि, वैभव, ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं का समावेश हो तो उसे सत्कर्मों में प्रवृत्त होना ही होगा। अच्छे विचार रखने और अच्छे कर्म करने ही होंगे।
भाग्य - सौभाग्य - दुर्भाग्य के इस प्रतिपादन के साथ मन में एक प्रश्न यह भी उठता है कि संसार में ऐसे बहुत से लोग देखे जाते हैं जो कर्मों के नाम पर असत्कर्म करते हैं और भाग्य मे उनको सौभाग्य मिलता है। निःसंदेह यह एक विचित्र और भ्रम में डालने वाला संयोग है। अनीति, अन्याय और अनाचार का फल तो दुःख तथा दण्ड होना चाहिए। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि दुःख और दण्ड आहारी ही नहीं होते, उनका एक भोग मानसिक और आध्यात्मिक भी होता है, जो प्रायः ऊपर से दिखाई नहीं देता। हो सकता है कि जिन अनीतिवानों को हम बाहर से प्रसन्न और सुखी देख रहे हैं, उनके हृदय में शोक संतापों का दावानल जल रहा हो। उन्हे रेशमी गद्दों पर पड़े-पड़े चिन्ता और आशंकाओं से करवटें बदलनी पड़ती हों। यह सर्वथा सम्भव है कि उनकी अनीति उनकी आत्मा को दिन-प्रतिदिन नर्क के द्वार की ओर खींच रही हो। यह तो भुक्तभोगी ही जान सकता है, जो ऊपर से तो प्रसन्न और सुखी दिखता है और भीतर ही भीतर नर्क की यातना भोग रहा हो।
पापियों और दुष्टों को सुविधापूर्ण स्थिति में देखकर कर्मफलों के प्रतिफल में अविश्वास करने की भूल नहीं करनी चाहिए। यह सर्वथा असंभव है कि पाप कर्म करने पर भी कोई सुख-सौभाग्य का अधिकारी बन सकता है। कर्मों का फल किसी एक जन्म में ही नहीं होता। उनका मनुष्य के पूर्व जन्मों से भी सम्बन्ध होता है। जो वर्तमान में अशुभ कर्म करते हुए भी भाग्यवान दिखाई देता है, वह वास्तव में अपने पूर्व जन्मों के शुभ कर्मों का भोग कर रहा होता है और वर्तमान कुकर्मों द्वारा आगामी जीवन में दुर्भाग्य भोगने की भूमिका तैयार करता है। सौभाग्य-दुर्भाग्य मनुष्य के कर्मों का ही फल होता है। इस सत्य के प्रति भ्रम में नहीं आना चाहिए। यह एक अटल नियम है, इसमें परिवर्तन सम्भव नहीं।
भाग्य मनुष्य के कर्मों के आधार पर बनता है और कर्मों के लिए मनुष्य स्वतन्त्र है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, वह जिस प्रकार के शुभ और अशुभ कर्म करता चलेगा उसी के अनुसार उसका सौभाग्य-दुर्भाग्य भी बनता जाएगा। ईश्वर तो केवल भाग्य लिखने वाला लेखक मात्र है, भाग्य का निर्णायक नहीं। सौभाग्यवान बनने के लिए उसके अनुरूप कर्तव्य करने चाहिए। मनुष्य अपने सत्कर्मों के बल पर अपने भाग्य में सौभाग्य लिखने के लिए ईश्वर को विवश कर सकता है। सत्कर्म करिए, सौभाग्यशाली बनिए। दुष्कर्म करिए, और भाग्य को भयानक बना लीजिए। यह सब मनुष्य के अपने हाथ में होता है, इसका सम्बन्ध अन्य किसी दृश्य अथवा अदृश्य शक्ति व संयोग से नहीं है। भाग्य-निर्माण के लिए जिस कर्म-पथ का निर्माण करना होता है, वह मनुष्य को स्वयं बनाना होगा। परमात्मा ने मनुष्य को इतनी स्वाधीनता, क्षमता और शक्ति देकर ही इस कर्म-भूमि में भेजा है कि वह अपने लिए उपयोगी तथा अनुकूल परिस्थितियों का स्वयं सृजन कर सके, मनुष्य अन्य जीव-जन्तुओं की तरह इस विषय में न तो विवश है और न पराधीन।
अपना कर्तव्य पथ बनाने और उस पर चल कर लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को पूर्णतया आत्म-निर्भर ही होना पड़ता है। दूसरों पर निर्भर होकर वह अपने ध्येय की पूर्ति नहीं कर सकता। यदा-कदा किन्ही समस्याओं अथवा कामों में किन्ही दूसरों की सहायता तथा परामर्श तो लिया जा सकता है पर उन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। कोई बुद्धिमान और सज्जन व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर रास्ता तो बतला सकते हैं, लेकिन किसी के बदले रास्ता तय नहीं कर सकते। वह रास्ते स्वयं चल कर पूरा करना होगा। किसी के भरोसे पर उन्नति और प्रगति की आशा करना व्यर्थ है।
प्रशस्त कर्तव्य पथ का निर्माण स्वावलम्बन द्वारा ही हो सकता है। अपनी उन्नति और सफलता के लिए दूसरों का मुँह देखने वाले संसार में कुछ नहीं कर सकते। परावलम्बी व्यक्ति की वे सारी शक्तियाँ, क्षमताएं और विशेषताएं कुंठित हो जाती हैं, जिन्हे देकर परमात्मा ने उसे संसार में स्वतंत्र रूप से कर्म करने को भेजा है। परावलंबन से आत्म-हीनता का भाव बढ़ता है। परावलंबन से अपनी समस्याओं पर स्वयं विचार करने, उपयोगी निर्णय लेने और कठिनाइयों से टक्कर लेने का साहस नहीं रहता। परावलम्बी जहाँ अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, वहीं वह बहुधा अपनी कठिनाइयों और प्रतिकूलताओं का कारण भी दूसरों को मानता है। इसके विपरीत स्वावलम्बी व्यक्ति सदैव अपने बल, अपनी योग्यता और अपने प्रयत्नों में विश्वास करता है। वह आत्मविश्वास से उत्पन्न साहस के साथ आगे बढ़ता है, परिश्रम तथा पुरुषार्थपूर्वक अपना मार्ग प्रशस्त करता है और दृढ़तापूर्वक उस पर अग्रसर होता है। उसके मार्ग में जो कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ आती हैं उनका डटकर मुकाबला करता है और उन पर विजय पाता है।
पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बलबूते ही आगे बढ़ने पर विश्वास रखता है। अपनी परिस्थितियों का दोष किसी दूसरे को नहीं देता, वह उनका कारण अपनी कमियों अथवा असावधानियों को ही मानता है। वह जानता है कि यह संसार एक दर्पण की तरह है जिसमें अपना ही रूप दिखता है। इस जड़ तथा निरपेक्ष संसार में ऐसी शक्ति नहीं जो किसी के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियाँ निर्माण कर सके। मनुष्य अपने गुणों और दोषों के आधार पर अपनी भली-बुरी परिस्थितियाँ स्वयं बनाता है और उनमें उलझता- सुलझता रहता है।
स्वावलंबी व्यक्ति अपनी परिस्थितियों का उत्तरदायी स्वयं को मानता है। इस कारण वह उनके निवारण के लिए अपने अन्दर ही सुधार और विकास लाता है। अपनी इस नीति के कारण वह जल्द ही अपनी अवांछित परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर लेता है और आगे की ओर बढ़ चलता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह भाग्य का निर्माता स्वयं अपने को माने। सौभाग्य के लिए सत्कर्म करे और कर्तव्य पथ पर जो भी बाधाएं अथवा कठिनाइयाँ आएं उन्हे स्वावलम्बी भावना से दूर करता हुआ बढ़ता जाए। स्वावलम्बी होने से ही सौभाग्य मिलता है। परमशिव परमेश्वर ने मनुष्य को सबसे योग्य और सर्व सक्षम बनाया है। वह अपना विकास किसी भी सीमा तक कर सकता है और उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकता है। इति शुभम ।
नारायण स्मृतिः
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