रविवार, 27 नवंबर 2022

ऋषि-मुनि-महर्षि-साधु-संत में अंतर





ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अन्तर होता है??

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है। आज से सैकड़ों साल पहले "ऋषि, मुनि, महर्षि, ब्रह्मर्षि" समाज के पथ-प्रदर्शक माने जाते थे। तब यही लोग अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य किया करते थे तथा समाज को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज के समय में भी हमें कई तीर्थ स्थलों, मन्दिरों, जंगलों और पहाड़ों में साधु-सन्त देखने को मिल जाते हैं। 

ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और सन्त में अंतर ---

ऋषि-मुनि :- ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋष' से है जिसका अर्थ 'देखना' या 'दर्शन शक्ति' होता है। ऋषि अर्थात 'दृष्टा'। भारतीय परम्परा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने अर्थात यथावत समझ पाने वाले को कहा जाता है। वे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये, उनके गूढ़ अर्थों को जाना एवं प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गये शब्दों को लिख कर प्रकट किया। इसीलिए कहा गया है - 

"ऋषयो मन्त्र द्रष्टार: न तू कर्तार;।"

अर्थात ऋषि तो मन्त्र के देखने वाले हैं। न कि बनाने वाले। बनाने वाला तो केवल एक परमात्मा ही है। मुनि वो है जो मनन करे। भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय, और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्छल बुद्धि वाले मुनि कहे जाते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण का रास्ता दिखते हैं। 

महर्षि-ब्रह्मर्षि :- ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुँचने वाले व्यक्ति को "महर्षि" कहा जाता है। महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परमात्मा को समर्पित होते हैं। इससे ऊपर की कोटि के ऋषियों को "ब्रह्मर्षि" कहा जाता है।  गुरू वशिष्ठ और विश्वमित्र "ब्रह्मर्षि" थे। 

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार हर व्यक्ति में तीन प्रकार के चक्षु होते हैं- "ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु एवं परम चक्षु"। जिस व्यक्ति का "ज्ञान चक्षु" जाग्रत हो जाता है, उसे "ऋषि" कहते हैं। जिस व्यक्ति का "दिव्य चक्षु" जाग्रत हो जाता है उसे "महर्षि" कहते हैं। जिस व्यक्ति का "परम चक्षु" जाग्रत हो जाता है उसे "ब्रह्मर्षि" कहते हैं। 

साधु:- साधु, संस्कृत का शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ "सज्जन व्यक्ति" है। ऐसा व्यक्ति जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर नामक 6 विकारों का त्याग कर देता। इन सब विकारों को त्याग करने वाले व्यक्ति को "साधु" की उपाधि दी जाती है। लघु सिद्धान्त कौमुदी में कहा : - "साधनोती परकार्यमिति साधु:" (जो दूसरों का कार्य कर देता है, वह साधु है)। अथवा वो जो साधना करे वो "साधु" कहा जाता है। साधु होने के लिए विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है। साधु (सन्यासी) का मूल उद्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए, धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु-सन्यासी गण साधना-तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते हैं और निज जीवन को त्याग-वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में लीन रहते हैं। 

सन्त : - मत्स्य पुराण के अनुसार "ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय: सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्योस्तातेन सन्त प्रचक्षते।। ब्राह्मण, ग्रन्थ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियाँ हैं। जिनके अंतःकरण में इनका और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वह सन्त कहलाते हैं। हिन्दू धर्म में सन्त उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी होता है। जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है वह "सन्त" कहलाता है। 


---                ---                ---                ---

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें