गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

धर्म के लक्षण

धर्म के लक्षण
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धारणाद धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः

धर्म सभी प्राणियों का धारण-पोषण करता है, इसलिये महर्षियों ने उसे धर्म कहा है।

वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मतुष्टि अर्थात अपनी आत्मा को प्रिय लगने वाला - ये धर्म के साक्षात लक्षण हैं।

हिंसा न करना, सच बोलना, चोरी न करना, पवित्र रहना और इन्द्रियों को संयम मे रखना - महर्षियों ने संक्षेप मे इसी को धर्म बताया है।

धर्म के दस लक्षण
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धृति, क्षमा, दम, चोरी न करना, मन, वाणी और शरीर की पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, सुबुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।

क्रूरता न करना (दया), क्षमा, सत्य, अहिंसा, दान, नम्रता, प्रीति, प्रसन्नता, कोमल वाणी और कोमलता - ये दस यम हैं।

पवित्रता, यग्य, तप, दान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, व्रत, मौन, उपवास और स्नान - ये दस नियम हैं।

दया करो किसी को मत मारो पराया हो या अपना, भाई-बन्धु या मित्र हो, शत्रु हो या बैरी - जो विपत्तियों में पडा हो, उसे दुख में देखकर उसकी रक्षा करने का नाम है, दया - करुणा।

जो आदमी माँस खाता है वही घातक नहीं है, आठ व्यक्ति घातक है - १- माँस के लिये सम्म्ति देनेवाला, २- काटने वाला, ३- मारने वाला, ४- खरीदने वाला, ५- बेचने वाला, ६- लाने वाला, ७- पकाने वाला, ८- खाने वाला।

पंच महायग्य
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गृहस्थ के आवास में हिंसा के ये पाँच स्थान हैं - चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली और पानी के घडे। इनसे वह पाप में बँधता है। गृहस्थों को इन दोषों से मुक्त करने के लिये महर्षियों ने प्रतिदिन पंच महायग्य करने को निर्देशित किया है।

ये पाँच महायग्य हैं - १- पढाना-(ब्रह्मयग्य), २- तर्पण-(पितृयग्य), ३- हवन-(देवयग्य),  ४- बलिवैश्यदेव*- (भूतयग्य), ५- अतिथ-सत्कार-(मनुष्य यग्य)
*बलिवैश्यदेव यग्य मे कुत्ता, पतित, चाँडाल, पाप रोगी, कौआ और कृमि इन छै के लिये भोजन मे से छै भाग निकाले।

प्रणाम करने का जिसे स्वभाव है और जो रोज गुरुजनो की सेवा करता है, उसकी आयु और विद्या, यश और बल, बढते हैं।

जो कार्य माता-पिता और गुरू को प्रिय लगे वही कार्य करना चाहिये। इन तीनों के संतुष्ट होने से सारे तप पूरे हो जाते हैं।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

विश्वास का आधार क्या हो ?

"विश्वास का आधार क्या हो ? रूप, रँग, गुण, धर्म, जाति, कुल या शब्द या फ़िर कुछ भी नही। या फ़िर विश्वास किया ही नही जाना चाहिये। अथवा विश्वास सिर्फ़ एक स्वप्न के समान है..? अगर विश्वास न होगा तो फ़िर जीवन को गति कैसे मिलेगी? जिन्हे हम अपना मानते हैं, वो जब हमारे या अपने शब्दों से विमुख हो जाता है तब हम स्तब्ध रह जाते हैं और तब शुरू होता है इस बात का आंकलन कि हमसे भूल कहाँ हुई। तभी विश्वास की नाजुक डोर टूटने लगती है। तब प्रश्न उठता है कि विश्वास का आधार क्या हो............"

स्वप्न और विश्वास में क्या सामंजस्य...? स्वप्न बनते ही हैं टूटने, बिखरने के लिये। स्वप्न हम खुली या बन्द आँखों से अपने मन की धारणाओं के अनुसार गढ लेते है, पर विश्वास की महत्ता अलग है। विश्वास धीरे-धीरे पनपता है और दृढ होता है।

हम सब अपनी धारणाओं की स्वीकृति चाहते हैं, जो हमारी धारणाओं को समर्थन देते हैं, हम उन पर विश्वास करते हैं। पर जब कभी कोई हमारी धारणाओं को मानने वाला हमसे विपरीत हो जाता है तब हम व्यथित हो जाते हैं, हमारे विश्वास को ठेस लगती है और धीरे-धीरे उस व्यक्ति पर से हमारा विश्वास टूट जाता है। तात्पर्य यह है कि हम अपनी धारणायें मनवाने के लिये उतावले रहते हैं और इसी की वजह से परेशान भी।

हम यदि पहले ही व्यक्ति के गाँभीर्य को परख लें तब उसके द्वारा कहे गये शब्द अर्थवान/अर्थहीन हो जाते हैं। तब हमे क्लेश नही होता किसी अपने के द्वारा कहे गये शब्दों से विमुख होने का। यह हम पर निर्भर है कि हम उसको कितना परख पाते हैं। व्यक्ति को परखना हमारे अपने अनुभव पर आधारित है।

विश्वास की डोर नाजुक नही होती। अगर विश्वास की डोर नाजुक है तो वह विश्वास की श्रेणी में आ ही नही सकता। विश्वास तो दृढता से किया जाता है। मन के डावाँडोल होने से अगर विश्वास को ठोकर लगती है तो यह हमारे मन का दोष है न कि विश्वास का।

विश्वास अखण्ड संरचना है। यह टूट नही सकता। यह जरूर है कि विश्वास कभी-कभी गलत हो सकता है। पर गलत विश्वास नही बल्कि जिस व्यक्ति पर विश्वास होता है वह गलत होता है। विश्वास ही जीवन का आधार है। सुखमय संसरण का मूल है। जो विश्वास को नही जानता या नही मानता उसका जीवन धरातल विहीन है, व्यर्थ है। "भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रुपिणौ"---- गोस्वामी तुलसीदास की इस पँक्ति का यही है निहितार्थ।


सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

हिन्दू धर्म की पांच प्रमुख सती नारियाँ

स्त्री का पतिव्रता होना स्त्री का प्रमुख गुण है। एक ही पति या पत्नी धर्म का पालन करना हिन्दू धर्म के कर्तव्यों मे शामिल है। भारत में अनगिनत ऐसी महिलायें हुईं हैं जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल दी जाती है। उनमे से कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन चुकी हैं।

हिन्दू इतिहास के अनुसार इस संसार मे पाँच सती स्त्रियाँ हुईं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं -

१- अनसुइया
२- द्रौपदी
३- सुलक्षणा
४- सावित्री
५- मंदोदरी

१- अनसुइया - पतिव्रता देवियों में अनसुइया का स्थान सबसे ऊँचा है। वे ऋषि अत्रि की पत्नी थी। एक बार त्रिदेव माता अनसुइया की परीक्षा लेने ऋषि अत्रि के आश्रम में भिक्षा मांगने गये और अनसुइया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगीं तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगें। तब माता अनसुइया ने अपने सतीत्व के बल पर तीनों देवों को अबोध बालक बना कर उन्हे भिक्षा दी। यह भी कहा जाता है कि माता अनुसुइया ने श्री राम के वनवास काल मे चित्रकूट प्रवास के समय माता सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया था।

२- द्रौपदी - पाँच पाँडवों की पत्नी द्रौपदी को पाँच कुंवारी कन्याओं में भी गिना जाता है। द्रौपदी के पिता पाँचाल नरेश द्रुपद थे। द्रौपदी के स्वयंवर मे अर्जुन ने अपने वनवास काल में द्रौपदी को वरण किया। अर्जुन अपने अन्य भ्राताओं के साथ द्रौपदी को लेकर माता कुंती के पास अपनी कुटिया में पहुंचे तथा द्वार से ही पुकार कर अर्जुन ने अपनी माता कुंती से कहा, "माते ! आज हम लोग आपके लिये अदभुत भिक्षा ले कर आये हैं।" इस पर कुंती ने भीतर से ही कहा, "पुत्रों ! तुम लोग आपस में मिल-बाँट कर उसका उपभोग कर लो।" बाद में ग्यात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में है, कुंती को बहुत दुख हुआ। किन्तु माता के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिये द्रौपदी ने पाँचों पाँडवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

३- सुलक्षणा - लंकाधिपति रावण के पुत्र मेघनाद (इंद्रजीत) की पत्नी सुलक्षणा को भी पाँच सती नारियों मे स्थान दिया गया है।

४- सावित्री - महाभारत के अनुसार सावित्री राजर्षि अश्वपति की पुत्री थीं। उनके पति का नाम सत्यवान था। सावित्री के पति सत्यवान की असमय मृत्यु के बाद सावित्री ने अपनी तपस्या के बल पर सत्यवान को यमराज के  हाथों से वापस ले लिया था। सावित्री के नाम से ही वट सावित्री नामक व्रत प्रचलित है।

५ - मंदोदरी - मंदोदरी लंकाधिपति रावण की पत्नी थीं। हेमा नामक अप्सरा मंदोदरी की माता थी तथा मयासुर मंदोदरी के पिता थे। मंदोदरी लंकाधिपति रावण को हमेशा अच्छी सलाह देती थीं। यह भी कहा जाता है कि अपने पति रावण के मनोरंजन हेतु मंदोदरी ने ही शतरंज नामक खेल का आविष्कार किया था।


सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

कानपुर मे सिनेमा

                            ब्रिटिश शासन मे उत्तर भारत में औद्योगिक शुरुआत के साथ सिनेमा की शुरुआत कानपुर से ही हुई। सबसे पहले अंग्रेजों ने स्वयं के लिये कुछ सिनेमाघरों को बनवाया जो कि बाद मे भारतीयों द्वारा खरीद लिये गये। "एस्टर टाकीज" और "प्लाजा टाकीज" अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी जिसे बाद मे भारतीयों ने खरीद लिया, जो कि क्रमशः "मिनर्वा सिनेमा" और "सुन्दर टाकीज" के नाम से मशहूर हुईं।
                       
                        कानपुर मे पहला सिनेमाघर "बैकुँठ टाकीज" के नाम से खुला। जिसकी स्थापना कलकत्ता की एक कम्पनी चरवरिया टाकीज प्रा.लि. ने सन 1929 में की। इस टाकीज को सन 1930 में पंचम सिंह नाम के व्यक्ति ने खरीद लिया और टाकीज का नाम बदल कर "कैपिटल टाकीज" कर दिया। इस सिनेमाघर की पूरी छत टिन की बनी थी, जिस वजह से स्थानीय लोग इसे "भडभडिया टाकीज" भी कहते थे।

                        सन 1930-40 का युग कानपुर सिनेमा का स्वर्णिम युग कहा जाता है। कानपुर में सन 1936 "मँजूश्री टाकीज" (घन्टाघर के पास) का निर्माण हुआ, जिसे प्रसाद बजाज ने बनवाया। सन 1937 मे "शीशमहल टाकीज" (पी.रोड) का निर्माण हुआ। सन 1946 में "जयहिंद सिनेमा" (गुमटी नं. पाँच) बना। सन 1946 में ही जवाहर लाल जैन ने "न्यू बसंत टाकीज" और लाला कामता प्रसाद ने "शालिमार टाकीज" का निर्माण कराया। "शालिमार टाकीज" का नाम बाद मे "डिलाइट सिनेमा" हो गया। सन 1940 में "इम्पीरियल टाकीज" (पी.पी.एन. मार्केट के सामने) का निर्माण हुआ। आगे चलकर सूरज नारायण गुप्ता ने "नारायण टाकीज" (बेगम गंज) का निर्माण कराया।

                        70-80  के दशक मे कई सिनेमाघर खुले, जैसे "हीरपैलेस" (माल रोड), "अनुपम टाकीज" (जूही), "सत्यम टाकीज" (माल रोड), "संगीत टाकीज", "सुन्दर टाकीज" (माल रोड), "गुरुदेव टाकीज", "पम्मी थियेटर" आदि।

                        दिलचस्प बात यह है कि शुरुआत मे सिनेमाघरों मे छपा टिकट या पास नही चलता था। तब दर्शकों को अपने हाथ मे "मोहर" लगवा कर सिनेमा घर के अन्दर प्रवेश मिलता था।

                        आज तो कानपुर महानगर मे कई मल्टीफ़्ल्र्केज खुल गये है। जैसे “रेव थ्री”, "रेव मोती”, “ज़ेड एस्क्वायर” आदि। परन्तु जो आनन्द का अनुभव सिनेमाघरों मे था वो आनन्द इन मल्टीफ़्लेकसेज मे नही है।

                         यह कानपुर मे सिनेमा का संक्षिप्त "स्वर्णिम इतिहास" है।

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

स्वामी विवेकानन्द






"अपनी ओजस्वी वाणी से विश्व में भारतीय सँस्कृति व अध्यात्म का शंखनाद करने वाले स्वामी विवेकानन्द एक आदर्श एवं आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। युवाओं के लिये विवेकानन्द साक्षात भगवान के समान थे।स्वामी विवेकानन्द की दी हुई शिक्षा पर जो भी व्यक्ति चलेगा उसे सफ़लता अवश्य मिलेगी। अपनी वाणी और तेज से स्वामी विवेकानन्द ने सारी दुनिया कि आश्चर्यचकित कर दिया था।"

स्वामी विवेकानद का मूल नाम नरेन्द्र नाथ था। उनका जन्म १२ जनवरी १८६३ को कलकत्ता में हुआ था। बाल्यावस्था में ही स्वामी विवेकानन्द जी के व्यवहार में आध्यात्म स्पष्ट झलकता था। स्वामी विवेकानन्द वृति से श्रद्धालु एवं दयालु थे, वे बचपन से ही कोई भी कार्य साहस और निडरता से करते थे। स्वामी विवेकानन्द का पूरा परिवार धार्मिक था, इसी कारण बाल्यावस्था से ही उनमे धार्मिक संस्कार आते गये। सन १८७० मे पठन-पाठन हेतु ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की पाठशाला मे उन्हे भेजा गया। स्वामी विवेकानन्द ने मैट्रिक की परिक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे चल कर कलकत्ता प्रेसीडेन्सी महाविद्यालय से उन्होने "तत्वग्यान" विषय में एम.ए. किया।

स्वामी विवेकानन्द के घर मे पले-बढे उनके एक सम्बन्धी डा. रामचन्द्र दत्त स्वामी रामकृष्ण जी के बहुत भक्त थे। धर्म के प्रति लगाव होने से स्वामी विवेकानन्द के मन में बचपन से ही वैराग्य उत्पन्न हुआ देख डा. दत्त एक बार उनसे बोले - "भाई, धर्म-लाभ ही तुम्हारे जीवन का उद्येश्य है तो तुम ब्राह्मसमाज इत्यादि के झंझट में मत पडो। तुम दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण जी के पस जाओ। डा. दत्त के बतायेनुसार स्वामी विवेकानन्द वहाँ गये और उन्हे वह सब कुछ प्राप्त हुआ जो उनको चाहिये था... ये थी गुरु कृपा। जो उन्हे समय-समय पर स्वप्न आदि के माध्यम से प्राप्त होती रहती थी। इसी तरह का एक प्रसंग.....

"एक दिन रात्रि में अर्धजागृत अवस्था में स्वामी विवेकानन्द को एक अद्भुत स्वप्न दिखाई दिया, उन्होने देखा कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस ज्योतिर्मय देह धारण कर समुद्र से आगे-आगे बढे जा रहे हैं तथा वे मुझे पीछे-पीछे आने के लिये संकेत कर रहे हैं। क्षण भर में विवेकानन्द जी के नेत्र खुल गये। उनका हृदय अवर्णनीय आनन्द से भर उठा। उसके साथ ही "जा’... "जा"... ऐसी देववाणी सुनाई दी। विदेश जाने हेतु सारे संशय समाप्त हो गये। प्रस्थान करने का संकल्प दृढ हो गया। एक-दो दिन में यात्रा की तैयारी पूर्ण हो गई।"

सोमवार ११ सितम्बर १८९३ को प्रातः अनेक धर्मगुरुओं के मंत्रोच्चार के उपरांत संगीतमय वातावरण में धर्मपरिषद का शुभारंभ हुआ। मंच के मध्य भाग में अमेरिका के रोमन कैथोलिक पंथ के धर्मप्रमुख थे। स्वामी विवेकानन्द किसी एक विशिष्ट पंथ के प्रतिनिधि नहीं थे। वे भारत के "सनातन हिन्दू वैदिक धर्म" के प्रतिनिधि के रूप में इस परिषद में आये थे। इस परिषद में छै-सात हजार श्रोता उपस्थित थे। परिषद के मंच से प्रत्येक वक्ता अपना लिखित वक्तव्य पढ कर सुना रहे थे। जब परिषद के अध्यक्ष ने स्वामी जी को बोलने के लिये आमंत्रित किया तब विवेकानन्द जी स्वामी रामकृष्ण परमहंस का स्मरण कर अपनी जगह से उठे और अपना व्याख्यान "अमेरिका की मेरी बहनों और बन्धुओं" कह कर शुरू किया। उनकी चैतन्यपूर्ण तथा ओजस्वी वाणी से सभा मे उपस्थित सभी वक्ता एवं श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये। इन शब्दों में ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि श्रोता अपने स्थान पर खडे हो कर करतल ध्वनि करने लगे। श्रोताऒ की हर्षध्वनि और करतल ध्वनि रुक नही रही थी। स्वामी जी के उन भावपूर्ण शब्दों के अपनत्व से सभी श्रोताओं के हृदय स्पंदित हो गये। "बहनों और बंधुओं" से मानव जाति का आह्वाहन करने वाले स्वामी विवेकानन्द एकमात्र वक्ता थे।

इस परिषद में भारत के विषय में बोलते हुए स्वामी जी ने कहा, "भारत पुण्य भूमि है, कर्म भूमि है, ग्यान भूमि है। यह एक सनातन सत्य है कि भारत अंतर्दृष्टि तथा आध्यात्मिकता का जन्म स्थान है।"

धर्मप्रवर्तक, तत्वचिंतक, विचारवान एवं वेदांतमार्गी राष्ट्रसंत आदि अनेक रूप मे विवेकानन्द का नाम विख्यात है। तरुणावस्था में ही सन्यास की दीक्षा लेकर हिन्दू धर्म के प्रचारक-प्रसारक बने। स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती "अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनाई जाती है।

युवको के लिये उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट करो, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो, जिससे स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों मे आदर्शॊं मे आचरण कर सको।

१९०२ में मात्र ३९ वर्ष की अवस्था में ही स्वामी विवेकानन्द महासमाधि मे लीन हो गये। उनके कहे गये शब्द आज भी सम्पूर्ण विश्व के लिये, मानवता के लिये प्रेरणादायी हैं।

स्वामी विवेकानन्द जी की उत्साही, ओजस्वी एवं ऊर्जा से परिपूर्ण वेद की उक्ति " उतिष्ठ.... जाग्रत... प्राप्य वरान्निबोधित" ( उठो..... जागो..... और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के पूर्व मत रुको) जन-जन को प्रेरणा देते रहेंगे।


वन्दे मातरम.................................

भारत माता की जय.......................



रविवार, 30 सितंबर 2012

भ्रम के साम्राज्य में अँधेरा ही अँधेरा और ....... तन्हाई


आशा गुप्ता ’आशु’ जी से फ़ेसबुक पर हुई वार्ता.................



आशा गुप्ता ’आशु’ - भ्रम के साम्राज्य में अँधेरा ही अँधेरा
                               और......... तन्हाई

Gopal Krishna Shukla - और......... तन्हाई....
                                     भ्रम का मायाजाल

आशा गुप्ता "आशु" - मायावी दुनिया में
                                अस्तित्व का अभाव.......

Gopal Krishna Shukla - और साथ ही स्थिरता शून्य.....

आशा गुप्ता "आशु" - शून्य में तलाशते स्वयं को हम.....

Gopal Krishna Shukla - और "हम" से प्राप्त करते "अहम"......... फ़िर उसी में डूबते चले जाते हैं.....  साकार करने मायावी लोक को......

आशा गुप्ता "आशु" - क्या हासिल....... रिक्तता के सिवाय

Gopal Krishna Shukla - रिक्तता या शून्य ही तो जीवन है

आशा गुप्ता "आशु" - ये जीवन है या अभावों की संवेदना....

Gopal Krishna Shukla - जीवन मिला ही है वेदना की अनुभूति करने के लिये

आशा गुप्ता "आशु" - और इसकी पराकाष्ठा......... अंतर्मन में घुलता विष

Gopal Krishna Shukla - पराकाष्ठा अपने मष्तिष्क की देन है... चाहे तो अंतर्मन में विष भर कर जियें, चाहे वेदना को सहकर परमपिता को जीवन समर्पित कर मोक्ष प्राप्त कर लें..

आशा गुप्ता "आशु" - अनुभूतियों के शिखर से ढुलकते हुए सब कुछ तितर-बितर होने लगता है ऐसे में परमपिता भी कहाँ साथ होते है.. कोई हाथ आगे नही बढाता संभालने के लिये

Gopal Krishna Shukla - अनुभूतियों के शिखर से ढुलकते हुए तभी सब कुछ तितर-बितर होने लगता है, जब हम अपने मष्तिष्क से अपना नियंत्रण खो देते हैं... अपने हृदय को मायावी दुनिया से लगा लेते हैं... ऐसी स्थिति में हम खुद ही अपने साथ नही रहते........ जब तक हम खुद अपने साथ नही रहेंगें तब तक परम शक्ति को कैसे पा सकते है

आशा गुप्ता "आशु" - स्वयं का स्वयं के प्रति व्यवहार जब दुरूह होने लगता है तभी तो ये सारी स्थितियाँ पैदा होती है... अवसाद का वर्चस्व.. कुंठा को ही जन्म देती है ना

Gopal Krishna Shukla - "स्वयं" में जब "स्व" की अधिकता होगी... तभी दुरूह स्थितियाँ और कुंठा जन्म लेगी

आशा गुप्ता "आशु" - कुंठित हृदय.... सुख का अभिलाषी... बस अंतहीन पीडा

Gopal Krishna Shukla - यह "स्व" जन्य परिस्थितियाँ हैं

आशा गुप्ता "आशु" - हाँ..... और कभी-कभी इसके सिवा कोई और उपाय भी नही होता

Gopal Krishna Shukla - उपाय है..... मन को विजित करना

आशा गुप्ता "आशु" - बहुत कठिन है डगर पनघट की......

Gopal Krishna Shukla - "पनघट" की डगर से हट कर यदि "मरघट" की डगर पर ध्यान केंद्रित करें...... तो सब आसान है

आशा गुप्ता "आशु" - हहहहहहहा........ इस लोक में सुख भोग चुके अब आगे की सुधि ली जाये..

Gopal Krishna Shukla -  सच यही है कि.... सुख अगले लोक में ही है...


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शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

माँ गंगा अजेय हैं-------

          सन 1953  दिनांक 29 मई को एवरेस्ट पर अपना पहला कदम रखने वाले एडमंड हिलेरी ने इतिहास रचा। अपार जीवट वाले हिलेरी ने उसके बाद भी हिमालय की दस और चोटियों की चढाई की। हिलेरी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर भी गये तथा विजय हासिल की।

          लेकिन यह तथ्य बहुत कम लोग जानते होंगे कि एक समय ऐसा भी आया जब यही हिलेरी माँ गंगा से हार गये थे। जोशीमठ और श्रीनगर के सरकारी दस्तावेजों में हिलेरी के इस अधूरे अभियान का लेखा-जोखा मिलता है।

          सन 1977 मे हिलेरी "सागर से आकाश" नामक इस अभियान में निकले थे। हिलेरी का मकसद था कोलकाता से बद्रीनाथ तक माँ गंगा की धारा के विपरीत जल प्रवाह पर विजय हासिल करना। हिलेरी के इस दुस्साहसी अभियान में तीन जेट नौकाओं का बेडा था। 1- गंगा, 2- एयर इन्डिया, 3- कीवी। हिलेरी की टीम में 18 लोग शामिल थे जिनमें एक उनका बेटा भी था। हिलेरी का यह अभियान उस समय चर्चा का विषय बना हुआ था।देश-विदेश की निगाहें उन पर लगीं थीं।

          हिलेरी कोलकाता से पौढी गढवाल के श्रीनगर तक बिना किसी बाधा के पहुँच गये, यहां कुछ देर रुकने के बाद बद्रीनाथ के लिये निकल पडे।

          हिलेरी से श्रीनगर मे एक पत्रकार ने साक्षात्कार भी लिया था, जिसे श्रीनगर की नगर पालिका की सन 1977 की स्मारिका में भी देखा जा सकता है। पत्रकार ने हिलेरी से पूछा कि "क्या आप अपने इस मिशन में कामयाब हो पायेंगे? हिलेरी ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया कि "जरूर, मेरा मिशन जरूर सफ़ल होगा।"

          श्रीनगर से कर्णप्रयाग तक गंगा की लहरें हिलेरी को चुनतियाँ देती रहीं और ललकारती रहीं। नंदप्रयाग के पास गंगा के तेज बहाव और खडी चटानों से घिर जाने पर उनकी नावें आगे नही बढ पायीं। हिलेरी ने तमाम कोशिशें की पर अन्त मे हिलेरी को हार माननी पडी और एडमंड हिलेरी को बद्रीनाथ से काफ़ी पहले नंदप्रयाग से ही वापस लौटना पडा। "सागर से आकाश" तक का हिलेरी का यह अभियान सफ़ल नही हो पाया।

          नंद प्रयाग से हिलेरी सडक मार्ग से वापस लौटे। रास्ते मे उनसे कई लोगों ने कहा कि "माँ गंगा को जीतना सरल नही।"

          माँ गंगा से हार जाने की कसक हिलेरी के मन में आजीवन रही। हिलेरी जब दस साल बाद दोबारा उत्तरकाशी के नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में आये तो उन्होने विजिटर बुक में लिखा - "मनुष्य प्रकृति से कभी नही जीत सकता, हमें प्रकृति का सम्मान करना चाहिये।"

जय माँ गंगे-------------------

वन्दे मातरम-----------------

भारत माता की जय-----------


मंगलवार, 7 अगस्त 2012

नेहरू का ‘पंचशील’ सिद्धान्त

स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की यों तो अधिकाँश नीतियां अदूरदर्शितापूर्ण और मूर्खतापूर्ण थी, लेकिन उनकी महामूर्खता का परिचय उनके "पंचशील" सिद्धांत से मिलता है| 1954 में भारत और चीन के बीच एक संधि की गई थी, जिसके पांच सिद्धांतों को सम्मिलित रूप में पंचशील कहा जाता था|

ये पांच सिद्धान्त थे....
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1- एक-दूसरे की अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना,
2- एक-दूसरे पर आक्रमण न करना,
3- एक-दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप न करना,
4- समानता के आधार पर परस्पर लाभ के लिये कार्य करना,
5- शांतिपूर्ण सहअस्तित्व

सिद्धान्तों के रूप में तो यह सब अच्छा है, लेकिन नेहरू यह समझने में असफल रहे कि चीन दुनिया का सबसे कमीना देश है और उसके किसी नेता का एक शब्द भी विश्वनीय नही है| उसके लिये किसी समझौते का मूल्य उस कागज़ के बराबर भी नहीं है, जिस पर वह समझौता लिखा गया है| यदि नेहरू ने चीन का इतिहास पढ़ा होता तो वे उसके विस्तारवाद को समझ भी लेते, परन्तु वे छद्म कम्युनिष्ट थे और अन्य कम्युनिस्टों की तरह यह नही मानते थे कि चीन कभी कोई गलत कार्य कर सकता है|

नेहरू को तिब्बत का परिणाम देखकर ही सावधान हो जाना चाहिये था| अपनी अहिंसा-जानी मूर्खता के कारण तिब्बत ने कोई सेना नहीं बनाई थी, जो उसकी सीमाओं की रक्षा कर सके| चीन ने 1951 से ही तिब्बत पर कब्ज़ा करने की कोशिशें चालू कर दी थीं| यह उल्लेखनीय है कि तिब्बत हमेशा ही एक स्वतन्त्र राष्ट्र रहा है, तिब्बत कभी भी चीन का भाग नही रहा| 1949 में एफ्रो-एशियन देशों के सम्मलेन में तिब्बत का प्रतिनिधि भी स्वतन्त्र देश के रूप में शामिल हुआ था| परन्तु चीन अपने विस्तारवाद के कारण उसे अपना प्रांत मानता रहा है| चीन ने कुछ लोगों को उकसाकर तिब्बत में विद्रोह शुरू करा दिया और 1959 में अपनी सेनाएँ भेज कर तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया| वहाँ के वैध शासक दलाई लामा को अपने चंद समर्थकों के साथ वहाँ से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी, वे आज भी भारत में ही रहकर तिब्बत की निर्वासित सरकार चला रहे हैं|

दुर्भाग्य से नेहरू ने "पंचशील" की आड ले कर इसे चीन का आतंरिक मामला बताया और चीन की हरकतों का कोई विरोध नही किया| यदि नेहरू ने चीन का विरोध किया होता तो चीन के विस्तारवाद पर तभी लगाम लग् गयी होती|

यहाँ यह याद दिलाना आवश्यक है कि यदि तिब्बत को एक स्वतन्त्र देश मान लिया जाये तो भारत की एक इंच सीमा भी चीन से नही मिलती| इसलिए ऐसा होने पर भारत-चीन सीमा विवाद ही नही, बल्कि तिब्बत-चीन सीमा विवाद होता|

चीनी विस्तारवाद तिब्बत को ही नहीं बल्कि नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरुणांचल प्रदेश को भी अपने में शामिल करना चाहता है और यह बात किसी से छिपी-ढकी नही है| परन्तु नेहरू आँखे बन्द करके तब तक सोते रहे, जब तक चीन ने भारत पर आक्रमण नहीं कर दिया|

यह बात नहीं कि देश के अन्य नेताओं ने नेहरू को सावधान नही किया था| डा. अम्बेडकर, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. राममनोहर लोहिया ही नहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरू जी ने भी नेहरू को चीनी विस्तारवाद से सावधान रहने और उस पर बिलकुल भी विश्वास न करने की चेतावनी दी थी| परन्तु नेहरू ने इन सभी को मूर्ख बताया था और कहा कि हमें चीनी नेताओं पर पूरा विश्वास है और चीनी नेतृत्व पंचशील का पालन करेंगे|

नेहरू की आँखे तब खुलीं जब 1962 में चीन ने भारत पर खुला आक्रमण कर दिया और भारत का एक बड़ा भूभाग हड़प लिया| यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अपनी और गाँधी की मूर्खता के कारण नेहरू ने भारत की सेनाओं को भी ताकतवर नही बनाया था| जिससे भारत की सेनायें चीन का उचित मुकाबला नहीं कर सकीं और भारत को अपमान का गहरा घूँट पीना पडा| इसके बाद नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया कि हम मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे थे|

आज फिर से हम उसी दोगले चीन पर विश्वास करने लगे हैं| हमें सचेत रहना होगा और भारत की सरकार को भी गलत कदम उठाने से रोकना होगा|


वंदे मातरम..................

भारत माता की जय........


गुरुवार, 10 मई 2012

अकबर से महान कौन?


UNLEASH THE LEGEND WITHIN................... से साभार


हमारे पाठकों को अपने विद्यालय के दिनों में पढ़े इतिहास में अकबर का नाम और काम बखूबी याद होगा. रियासतों के रूप में टुकड़ों टुकड़ों में टूटे हुए भारत को एक बनाने की बात हो, या हिन्दू मुस्लिम झगडे मिटाने को दीन ए इलाही चलाने की बात, सब मजहब की दीवारें तोड़कर हिन्दू लड़कियों को अपने साथ शादी करने का सम्मान देने की बात हो, या हिन्दुओं के पवित्र स्थानों पर जाकर सजदा करने की, हिन्दुओं पर से जजिया कर हटाने की बात हो या फिर हिन्दुओं को अपने दरबार में जगह देने की, अकबर ही अकबर सब ओर दिखाई देता है. सच है कि हमारे इतिहासकार किसी को महान यूँ ही नहीं कह देते. इस महानता को पाने के लिए राम, कृष्ण, विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, राणा प्रताप, शिवाजी और न जाने ऐसे कितने ही महापुरुषों के नाम तरसते रहे, पर इनके साथ “महान” शब्द न लग सका.
हमें याद है कि इतिहास की किताबों में अकबर पर पूरे अध्याय के अन्दर दो पंक्तियाँ महाराणा प्रताप पर भी होती थीं. मसलन वो कब पैदा हुए, कब मरे, कैसे विद्रोह किया, और कैसे उनके ही राजपूत उनके खिलाफ थे. इतिहासकार महाराणा प्रताप को कभी महान न कह सके. ठीक ही तो है! अकबर और राणा का मुकाबला क्या है? कहाँ अकबर पूरे भारत का सम्राट, अपने हरम में पांच हज़ार से भी ज्यादा औरतों की जिन्दगी रोशन करने वाला, उनसे दिल्लगी कर उन्हें शान बख्शने वाला, बीसियों राजपूत राजाओं को अपने दरबार में रखने वाला, और कहाँ राणा प्रताप, क्षुद्र क्षत्रिय, अपने राज्य के लिए लड़ने वाला, सत्ता का भूखा, सत्ता के लिए वन वन भटककर पत्तलों पर घास की रोटियाँ खाने वाला, जिसका कोई हरम ही नहीं इस तरह का छोटा और निष्ठुर हृदय, सब राजपूतों से केवल इसलिए लड़ने वाला कि उन्होंने अपनी लड़कियां, पत्नियाँ, बहनें अकबर को भेजीं, अकबर “महान” का संधि प्रस्ताव कई बार ठुकराने वाला घमंडी, और मुसलमान राजाओं से रोटी बेटी का सम्बन्ध भी न रखने वाला दकियानूसी, इत्यादि. कहाँ अकबर जैसा त्यागी जो अपने देश को उसके हाल पर छोड़ कर दूसरे देश भारत का भला करने पूरा जीवन यहीं पर रहा, और कहाँ राणा प्रताप जो अपनी जमीन भी ऐसे त्यागी के लिए खाली न कर पाया और इस आशा में कि एक दिन फिर से अपने राज्य पर कब्ज़ा कर लेगा, वनों में धूल फांकता, पत्नी और बच्चों को जंगलों के कष्ट देता सत्ता का भूखा!
अकबर “महान” की महानता बताने से पहले उसके महान पूर्वजों के बारे में थोड़ा जान लेना जरूरी है. भारत में पिछले तेरह सौ सालों से इस्लाम के मानने वालों ने लगातार आक्रमण किये. मुहम्मद बिन कासिम और उसके बाद आने वाले गाजियों ने एक के बाद एक हमला करके, यहाँ लूटमार, बलात्कार, नरसंहार और इन सबसे बढ़कर यहाँ रहने वाले काफिरों को अल्लाह और उसके रसूल की इच्छानुसार मुसलमान बनाने का पवित्र किया. आज के अफगानिस्तान तक पश्चिम में फैला उस समय का भारत धीरे धीरे इस्लाम के शिकंजे में आने लगा. आज के अफगानिस्तान में उस समय अहिंसक बौद्धों की निष्क्रियता ने बहुत नुकसान पहुंचाया क्योंकि इसी के चलते मुहम्मद के गाजियों के लश्कर भारत के अंदर घुस पाए. जहाँ जहाँ तक बौद्धों का प्रभाव था, वहाँ पूरी की पूरी आबादी या तो मुसलमान बना दी गयी या काट दी गयी. जहां हिंदुओं ने प्रतिरोध किया, वहाँ न तो गाजियों की अधिक चली और न अल्लाह की. यही कारण है कि सिंध के पूर्व भाग में आज भी हिंदू बहुसंख्यक हैं क्योंकि सिंध के पूर्व में राजपूत, जाट, आदि वीर जातियों ने इस्लाम को उस रूप में बढ़ने से रोक दिया जिस रूप में वह इराक, ईरान, मिस्र, अफगानिस्तान और सिंध के पश्चिम तक फैला था अर्थात वहाँ की पुरानी संस्कृति को मिटा कर केवल इस्लाम में ही रंग दिया गया पर भारत में ऐसा नहीं हो सका.
पर बीच बीच में लुटेरे आते गए और देश को लूटते गए. तैमूरलंग ने कत्लेआम करने के नए आयाम स्थापित किये और अपनी इस पशुता को बड़ी ढिटाई से अपनी डायरी में भी लिखता गया. इसके बाद मुग़ल आये जो हमारे इतिहास में इस देश से प्यार करने वाले लिखे गए हैं! बताते चलें कि ये देशभक्त और प्रेमपुजारी मुग़ल, तैमूर और चंगेज खान के कुलों के आपस के विवाह संबंधों का ही परिणाम थे. इनमें बाबर हुआ जो अकबर “महान” का दादा था. यह वही बाबर है जिसने अपने काल में न जाने कितने मंदिर तोड़े, कितने ही हिंदुओं को मुसलमान बनाया, कितने ही हिंदुओं के सिर उतारे और उनसे मीनारें बनायीं. यह सब पवित्र कर्म करके वह उनको अपनी डायरी में लिखता भी रहता था ताकि आने वाली उसकी नस्ल इमान की पक्की हो और इसी नेक राह पर चले. क्योंकि मूर्तिपूजा दुनिया की सबसे बड़ी बुराई है और अल्लाह को वह बर्दाश्त नहीं. इस देशभक्त प्रेमपुजारी बाबर ने प्रसिद्ध राम मंदिर भी तुडवाया और उस जगह पर अपने नाम की मस्जिद बनवाई. यह बात अलग है कि वह अपने समय का प्रसिद्ध नशाखोर, शराबी, हत्यारा, समलैंगिक (पुरुषों से भोग करने वाला), छोटे बच्चों के साथ भी बिस्मिल्लाह पढकर भोग करने वाला था. पर वह था पक्का मुसलमान! तभी तो हमारे देश के मुसलमान भाई अपने असली पूर्वजों को भुला कर इस सच्चे मुसलमान के नाम की मस्जिद बनवाने के लिए दिन रात एक किये हुए हैं. खैर यह वो “महान” अकबर का महान दादा था जो अपने पोते के कारनामों से इस्लामी इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों से लिखवा गया.
ऐसे महान दादा के पोते स्वनामधन्य अकबर “महान” के जीवन के कुछ दृश्य आपके सामने रखते हैं. इस काम में हम किसी हिन्दुवादी इतिहासकार के प्रमाण नहीं देंगे क्योंकि वे तो खामखाह अकबर “महान” से चिढ़ते हैं! हम देंगे प्रमाण अबुल फज़ल (अकबर का खास दरबारी) की आइन ए अकबरी और अकबरनामा से. और साथ ही अकबर के जीवन पर सबसे ज्यादा प्रामाणिक इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ की अंग्रेजी की किताब “अकबर- द ग्रेट मुग़ल” से. हम दोनों किताबों के प्रमाणों को हिंदी में देंगे ताकि सबको पढ़ने में आसानी रहे. यहाँ याद रहे कि ये दोनों लेखक सदा इस बात के लिए निशाने पर रहे हैं कि इन्होने अकबर की प्रशंसा करते करते बहुत झूठ बातें लिखी हैं, इन्होने बहुत सी उसकी कमियां छुपाई हैं. पर हम यहाँ यह दिखाएँगे कि अकबर के कर्मों का प्रताप ही कुछ ऐसा था कि सच्चाई सौ परदे फाड़ कर उसी तरह सामने आ जाती है जैसे कि अँधेरे को चीर कर उजाला.
तो अब नजर डालते हैं अकबर महान से जुडी कुछ बातों पर-

अकबर महान का आगाज़

१. विन्सेंट स्मिथ ने किताब यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था. उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था…. अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था” पर देखिये! हमारे इतिहासकारों और कहानीकारों ने अकबर को एक भारतीय के रूप में पेश किया है. जबकि हकीकत यह है कि अकबर के सभी पूर्वज बाबर, हुमायूं, से लेकर तैमूर तक सब भारत में लूट, बलात्कार, धर्म परिवर्तन, मंदिर विध्वंस, आदि कामों में लगे रहे. वे कभी एक भारतीय नहीं थे और इसी तरह अकबर भी नहीं था. और इस पर भी हमारी हिंदू जाति अकबर को हिन्दुस्तान की शान समझती रही!

अकबर महान की सुंदरता और अच्छी आदतें

२. बाबर शराब का शौक़ीन था, इतना कि अधिकतर समय धुत रहता था [बाबरनामा]. हुमायूं अफीम का शौक़ीन था और इस वजह से बहुत लाचार भी हो गया. अकबर ने ये दोनों आदतें अपने पिता और दादा से विरासत में लीं. अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे हुए. पर इतने पर भी इस बात पर तो किसी मुसलमान भाई को शक ही नहीं कि ये सब सच्चे मुसलमान थे.
३. कई इतिहासकार अकबर को सबसे सुन्दर आदमी घोषित करते हैं. विन्सेंट स्मिथ इस सुंदरता का वर्णन यूँ करते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था. उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था. उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था. उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी. उसके नाक के नथुने ऐसे दीखते थे जैसे वो गुस्से में हो. आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था. वह गहरे रंग का था”
४. जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर उसे सदा शेख ही बुलाता था भले ही वह नशे की हालत में हो या चुस्ती की हालत में. इसका मतलब यह है कि अकबर काफी बार नशे की हालत में रहता था.
५. अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात करता करता भी नींद में गिर पड़ता था. वह अक्सर ताड़ी पीता था. वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो जाता था और पागलो के जैसे हरकत करने लगता.

अकबर महान की शिक्षा

६. जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है.

अकबर महान का मातृशक्ति (स्त्रियों) के लिए आदर

७. अबुल फज़ल ने लिखा है कि अपने राजा बनने के शुरूआती सालों में अकबर परदे के पीछे ही रहा! परदे के पीछे वो किस बेशर्मी को बेपर्दा कर रहा था उसकी जानकारी आगे पढ़िए.
८. अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है- “अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और हर एक का अपना अलग घर था.” ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं.
९. आइन ए अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है- “शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था. वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी. दरबारी नर्तकियों को अपने घर ले जाते थे. अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी. कई बार जवान लोगों में लड़ाई झगडा भी हो जाता था. एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”.
अब यहाँ सवाल पैदा होता है कि ये वेश्याएं इतनी बड़ी संख्या में कहाँ से आयीं और कौन थीं? आप सब जानते ही होंगे कि इस्लाम में स्त्रियाँ परदे में रहती हैं, बाहर नहीं. और फिर अकबर जैसे नेक मुसलमान को इतना तो ख्याल होगा ही कि मुसलमान औरतों से वेश्यावृत्ति कराना गलत है. तो अब यह सोचना कठिन नहीं है कि ये स्त्रियां कौन थीं. ये वो स्त्रियाँ थीं जो लूट के माल में अल्लाह द्वारा मोमिनों के भोगने के लिए दी जाती हैं, अर्थात काफिरों की हत्या करके उनकी लड़कियां, पत्नियाँ आदि. अकबर की सेनाओं के हाथ युद्ध में जो भी हिंदू स्त्रियाँ लगती थीं, ये उसी की भीड़ मदिरालय में लगती थी.
१०. अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है- “जब भी कभी कोई रानी, दरबारियों की पत्नियाँ, या नयी लडकियां शहंशाह की सेवा (यह साधारण सेवा नहीं है) में जाना चाहती थीतो पहले उसे अपना आवेदन पत्र हरम प्रबंधक के पास भेजना पड़ता था. फिर यह पत्र महल के अधिकारियों तक पहुँचता था और फिर जाकर उन्हें हरम के अंदर जाने दिया जाता जहां वे एक महीने तक रखी जाती थीं.”
अब यहाँ देखना चाहिए कि चाटुकार अबुल फजल भी इस बात को छुपा नहीं सका कि अकबर अपने हरम में दरबारियों, राजाओं और लड़कियों तक को भी महीने के लिए रख लेता था.पूरी प्रक्रिया को संवैधानिक बनाने के लिए इस धूर्त चाटुकार ने चाल चली है कि स्त्रियाँ खुद अकबर की सेवा में पत्र भेज कर जाती थीं! इस मूर्ख को इतनी बुद्धि भी नहीं थी कि ऐसी कौन सी स्त्री होगी जो पति के सामने ही खुल्लम खुल्ला किसी और पुरुष की सेवा में जाने का आवेदन पत्र दे दे? मतलब यह है कि वास्तव में अकबर महान खुद ही आदेश देकर जबरदस्ती किसी को भी अपने हरम में रख लेता था और उनका सतीत्व नष्ट करता था.
११. रणथंभोर की संधि में अकबर महान की पहली शर्त यह थी कि राजपूत अपनी स्त्रियों की डोलियों को अकबर के शाही हरम के लिए रवाना कर दें यदि वे अपने सिपाही वापस चाहते हैं.
१२. बैरम खान जो अकबर के पिता तुल्य और संरक्षक था, उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के तुल्य स्त्री से शादी की.
१३. ग्रीमन के अनुसार अकबर अपनी रखैलों को अपने दरबारियों में बाँट देता था. औरतों को एक वस्तु की तरह बांटना और खरीदना अकबर महान बखूबी करता था.
१४. मीना बाजार जो हर नए साल की पहली शाम को लगता था, इसमें सब स्त्रियों को सज धज कर आने के आदेश दिए जाते थे और फिर अकबर महान उनमें से किसी को चुन लेते थे.

नेक दिल अकबर महान

१५. ६ नवम्बर १५५६ को १४ साल की आयु में अकबर महान पानीपत की लड़ाई में भाग ले रहा था. हिंदू राजा हेमू की सेना मुग़ल सेना को खदेड़ रही थी कि अचानक हेमू को आँख में तीर लगा और वह बेहोश हो गया. उसे मरा सोचकर उसकी सेना में भगदड़ मच गयी. तब हेमू को बेहोशी की हालत में अकबर महान के सामने लाया गया और इसने बहादुरी से हेमू का सिर काट लिया और तब इसे गाजी के खिताब से नवाजा गया. (गाजी की पदवी इस्लाम में उसे मिलती है जिसने किसी काफिर को कतल किया हो. ऐसे गाजी को जन्नत नसीब होती है और वहाँ सबसे सुन्दर हूरें इनके लिए बुक होती हैं). हेमू के सिर को काबुल भिजा दिया गया एवं उसके धड को दिल्ली के दरवाजे से लटका दिया गया ताकि नए आतंकवादी बादशाह की रहमदिली सब को पता चल सके.
१६. इसके तुरंत बाद जब अकबर महान की सेना दिल्ली आई तो कटे हुए काफिरों के सिरों से मीनार बनायी गयी जो जीत के जश्न का प्रतीक है और यह तरीका अकबर महान के पूर्वजों से ही चला आ रहा है.
१७. हेमू के बूढ़े पिता को भी अकबर महान ने कटवा डाला. और औरतों को उनकी सही जगह अर्थात शाही हरम में भिजवा दिया गया.
१८. अबुल फजल लिखता है कि खान जमन के विद्रोह को दबाने के लिए उसके साथी मोहम्मद मिराक को हथकडियां लगा कर हाथी के सामने छोड़ दिया गया. हाथी ने उसे सूंड से उठाकर फैंक दिया. ऐसा पांच दिनों तक चला और उसके बाद उसको मार डाला गया.
१९. चित्तौड़ पर कब्ज़ा करने के बाद अकबर महान ने तीस हजार नागरिकों का क़त्ल करवाया.
२०. अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया. हमजबान की जबान ही कटवा डाली. मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं. उसके ३०० साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरे पर गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया. विन्सेंट स्मिथ ने यह लिखा है कि अकबर महान फांसी देना, सिर कटवाना, शरीर के अंग कटवाना, आदि सजाएं भी देते थे.
२१. २ सितम्बर १५७३ के दिन अहमदाबाद में उसने २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊंची सिरों की मीनार बनायी. वैसे इसके पहले सबसे ऊंची मीनार बनाने का सौभाग्य भी अकबर महान के दादा बाबर का ही था. अर्थात कीर्तिमान घर के घर में ही रहा!
२२. अकबरनामा के अनुसार जब बंगाल का दाउद खान हारा, तो कटे सिरों के आठ मीनार बनाए गए थे. यह फिर से एक नया कीर्तिमान था. जब दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में पानी पीने को दिया गया.

न्यायकारी अकबर महान

२३. थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले. उन मूर्ख आत्मघाती लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी. जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों तरफ के लोगों को ही अपने सैनिकों से मरवा डाला. और फिर अकबर महान जोर से हंसा.
२४. हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की नीति यही थी कि राजपूत ही राजपूतों के विरोध में लड़ें. बादायुनी ने अकबर के सेनापति से बीच युद्ध में पूछा कि प्रताप के राजपूतों को हमारी तरफ से लड़ रहे राजपूतों से कैसे अलग पहचानेंगे? तब उसने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकिकिसी भी हालत में मरेंगे तो राजपूत ही और फायदा इस्लाम का होगा.
२५. कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ी और उस स्थान पर नमाज पढ़ी.
२६. एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है. इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को इस बात के लिए एक मीनार से नीचे फिंकवा दिया.
२७. अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था. न तो वह किला टोड पाया और न ही किले की सेना अकबर को हरा सकी. विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा. उसने किले के राजा मीरां बहादुर को आमंत्रित किया और अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा. तब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया और अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुका. पर अचानक उसे जमीन पर धक्का दिया गया ताकि वह पूरा सजदा कर सके क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था.
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे. सेनापति ने मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि उसका पिता समर्पण नहीं करेगा चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए. यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया. इस तरह झूठ के बल पर अकबर महान ने यह किला जीता.
यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है. अतः कई लोगों का यह कहना कि अकबर बाद में बदल गया था, एक झूठ बात है.
२८. इसी तरह अपने ताकत के नशे में चूर अकबर ने बुंदेलखंड की प्रतिष्ठित रानी दुर्गावती से लड़ाई की और लोगों का क़त्ल किया.

अकबर महान और महाराणा प्रताप

२९. ऐसे इतिहासकार जिनका अकबर दुलारा और चहेता है, एक बात नहीं बताते कि कैसे एक ही समय पर राणा प्रताप और अकबर महान हो सकते थे जबकि दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी थे?
३०. यहाँ तक कि विन्सेंट स्मिथ जैसे अकबर प्रेमी को भी यह बात माननी पड़ी कि चित्तौड़ पर हमले के पीछे केवल उसकी सब कुछ जीतने की हवस ही काम कर रही थी. वहीँ दूसरी तरफ महाराणा प्रताप अपने देश के लिए लड़ रहे थे और कोशिश की कि राजपूतों की इज्जत उनकी स्त्रियां मुगलों के हरम में न जा सकें. शायद इसी लिए अकबर प्रेमी इतिहासकारों ने राणा को लड़ाकू और अकबर को देश निर्माता के खिताब से नवाजा है!
अकबर महान अगर, राणा शैतान तो
शूकर है राजा, नहीं शेर वनराज है
अकबर आबाद और राणा बर्बाद है तो
हिजड़ों की झोली पुत्र, पौरुष बेकार है
अकबर महाबली और राणा बलहीन तो
कुत्ता चढ़ा है जैसे मस्तक गजराज है
अकबर सम्राट, राणा छिपता भयभीत तो
हिरण सोचे, सिंह दल उसका शिकार है
अकबर निर्माता, देश भारत है उसकी देन
कहना यह जिनका शत बार धिक्कार है
अकबर है प्यारा जिसे राणा स्वीकार नहीं
रगों में पिता का जैसे खून अस्वीकार है.

अकबर और इस्लाम

३१. हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि करके भी इस्लाम को अपने दामन से बाँधे रखा ताकि राजनैतिक फायदा मिल सके. और सबसे मजेदार बात यह है कि वंदे मातरम में शिर्क दिखाने वाले मुल्ला मौलवी अकबर की शराब, अफीम, ३६ बीवियों, और अपने लिए करवाए सजदों में भी इस्लाम को महफूज़ पाते हैं! किसी मौलवी ने आज तक यह फतवा नहीं दिया कि अकबर या बाबर जैसे शराबी और समलैंगिक मुसलमान नहीं हैं और इनके नाम की मस्जिद हराम है.
३२. अकबर ने खुद को दिव्य आदमी के रूप में पेश किया. उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में “अल्लाह ओ अकबर” कह कर अभिवादन किया जाए. भोले भाले मुसलमान सोचते हैं कि वे यह कह कर अल्लाह को बड़ा बता रहे हैं पर अकबर ने अल्लाह के साथ अपना नाम जोड़कर अपनी दिव्यता फैलानी चाही. अबुल फज़ल के अनुसार अकबर खुद को सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) की तरह पेश करता था. ऐसा ही इसके लड़के जहांगीर ने लिखा है.
३३. अकबर ने अपना नया पंथ दीन ए इलाही चलाया जिसका केवल एक मकसद खुद की बडाई करवाना था. उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया!
३४. अकबर को इतना महान बताए जाने का एक कारण ईसाई इतिहासकारों का यह था कि क्योंकि इसने हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों का ही जम कर अपमान किया और इस तरह भारत में अंग्रेजों के इसाईयत फैलाने के उद्देश्य में बड़ा कारण बना. विन्सेंट स्मिथ ने भी इस विषय पर अपनी राय दी है.
३५. अकबर भाषा बोलने में बड़ा चतुर था. विन्सेंट स्मिथ लिखता है कि मीठी भाषा के अलावाउसकी सबसे बड़ी खूबी अपने जीवन में दिखाई बर्बरता है!
३६. अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले. जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है. ये वैसे ही दावे हैं जैसे मुहम्मद साहब के बारे में हदीसों में किये गए हैं. अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी. उसके दरबारियों को तो यह अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए.

अकबर महान और जजिया कर

३७. इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी इस्लामी राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अगर अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से सुरक्षित रखना होता था तो उनको इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे. यानी इसे देकर फिर कोई अल्लाह व रसूल का गाजी आपकी संपत्ति, बेटी, बहन, पत्नी आदि को नहीं उठाएगा. कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था. लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त राखी गयी थी जिसके बदले वहाँ के हिंदुओं को अपनी स्त्रियों को अकबर के हरम में भिजवाना था! यही कारण बना की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियाँ जौहर में जलना अधिक पसंद करती थी.
३८. यह एक सफ़ेद झूठ है कि उसने जजिया खत्म कर दिया. आखिरकार अकबर जैसा सच्चा मुसलमान जजिया जैसे कुरआन के आदेश को कैसे हटा सकता था? इतिहास में कोई प्रमाण नहीं की उसने अपने राज्य में कभी जजिया बंद करवाया हो.

अकबर महान और उसका सपूत

३९. भारत में महान इस्लामिक शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि बादशाह के अपने बच्चे ही उसके खिलाफ बगावत कर बैठते थे! हुमायूं बाबर से दुखी था और जहांगीर अकबर से, शाहजहां जहांगीर से दुखी था तो औरंगजेब शाहजहाँ से. जहांगीर (सलीम) ने १६०२ में खुद को बादशाह घोषित कर दिया और अपना दरबार इलाहबाद में लगाया. कुछ इतिहासकार कहते हैं की जोधा अकबर की पत्नी थी या जहाँगीर की, इस पर विवाद है. संभवतः यही इनकी दुश्मनी का कारण बना, क्योंकि सल्तनत के तख़्त के लिए तो जहाँगीर के आलावा कोई और दावेदार था ही नहीं!
४०. ध्यान रहे कि इतिहासकारों के लाडले और सबसे उदारवादी राजा अकबर ने ही सबसे पहले “प्रयागराज” जैसे काफिर शब्द को बदल कर इलाहबाद कर दिया था.
४१. जहांगीर अपने अब्बूजान अकबर महान की मौत की ही दुआएं करने लगा. स्मिथ लिखता है कि अगर जहांगीर का विद्रोह कामयाब हो जाता तो वह अकबर को मार डालता. बाप को मारने की यह कोशिश यहाँ तो परवान न चढी लेकिन आगे जाकर आखिरकार यह सफलता औरंगजेब को मिली जिसने अपने अब्बू को कष्ट दे दे कर मारा. वैसे कई इतिहासकार यह कहते हैं कि अकबर को जहांगीर ने ही जहर देकर मारा.

अकबर महान और उसका शक्की दिमाग

४२. अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग अकबर को पसंद नहीं!
४३. अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कतल कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब मुल्ला जो इसे नापसंद थे. पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है. और फिर जयमल जिसे मारने के बादउसकी पत्नी को अपने हरम के लिए खींच लाया और लोगों से कहा कि उसने इसे सती होने से बचा लिया!

समाज सेवक अकबर महान

४४. अकबर के शासन में मरने वाले की संपत्ति बादशाह के नाम पर जब्त कर ली जाती थी और मृतक के घर वालों का उस पर कोई अधिकार नहीं होता था.
४५. अपनी माँ के मरने पर उसकी भी संपत्ति अपने कब्जे में ले ली जबकि उसकी माँ उसे सब परिवार में बांटना चाहती थी.

अकबर महान और उसके नवरत्न

४६. अकबर के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और नौ रत्नों की कहानी घड़ी है. असलियत यह है कि अकबर अपने सब दरबारियों को मूर्ख समझता था. उसने कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि इसको योग्य दरबारी नहीं मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं.
४७. प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का हिसाब करता था. इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता दिखाना.
४८. एक और नवरत्न अबुल फजल अकबर का अव्वल दर्जे का चाटुकार था. बाद में जहाँगीर ने इसे मार डाला.
४९. फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह अपने समय का भारत का सबसे बड़ा कवि था. आश्चर्य इस बात का है कि यह सर्वश्रेष्ठ कवि एक अनपढ़ और जाहिल शहंशाह की प्रशंसा का पात्र था! यह ऐसी ही बात है जैसे कोई अरब का मनुष्य किसी संस्कृत के कवि के भाषा सौंदर्य का गुणगान करता हो!
५०. बुद्धिमान बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई में मारा गया. बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं. ध्यान रहे कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में तेनालीराम के नाम से भी प्रचलित हैं.
५१. अगले रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल फजल के हाथों सबसे बड़े रत्न अकबर के आदेश पर मार डाले गए!
५२. मान सिंह जो देश में पैदा हुआ सबसे नीच गद्दार था, ने अपनी बहन जहांगीर को दी. औरबाद में इसी जहांगीर ने मान सिंह की पोती को भी अपने हरम में खींच लिया. यही मानसिंह अकबर के आदेश पर जहर देकर मार डाला गया और इसके पिता भगवान दास ने आत्महत्या कर ली.
५३. इन नवरत्नों को अपनी बीवियां, लडकियां, बहनें तो अकबर की खिदमत में भेजनी पड़ती ही थीं ताकि बादशाह सलामत उनको भी सलामत रखें. और साथ ही अकबर महान के पैरों पर डाला गया पानी भी इनको पीना पड़ता था जैसा कि ऊपर बताया गया है.
५४. रत्न टोडरमल अकबर का वफादार था तो भी उसकी पूजा की मूर्तियां अकबर ने तुडवा दीं. इससे टोडरमल को दुःख हुआ और इसने इस्तीफ़ा दे दिया और वाराणसी चला गया.

अकबर और उसके गुलाम

५५. अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया. इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था.
५६. कंधार में एक बार अकबर ने बहुत से लोगों को गुलाम बनाया क्योंकि उन्होंने १५८१-८२ में इसकी किसी नीति का विरोध किया था. बाद में इन गुलामों को मंडी में बेच कर घोड़े खरीदे गए.
५७. जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम की औरतें जानवरों की तरह सोने के पिंजरों में बंद कर दी जाती थीं.
५८. वैसे भी इस्लाम के नियमों के अनुसार युद्ध में पकडे गए लोग और उनके बीवी बच्चे गुलाम समझे जाते हैं जिनको अपनी हवस मिटाने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है. अल्लाह ने कुरान में यह व्यवस्था दे रखी है.
५९. अकबर बहुत नए तरीकों से गुलाम बनाता था. उसके आदमी किसी भी घोड़े के सिर पर एक फूल रख देते थे. फिर बादशाह की आज्ञा से उस घोड़े के मालिक के सामने दो विकल्प रखे जाते थे, या तो वह अपने घोड़े को भूल जाये, या अकबर की वित्तीय गुलामी क़ुबूल करे.

कुछ और तथ्य

६०. जब अकबर मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं. इसी तरह के और खजाने छह और जगह पर भी थे. इसके बावजूद भी उसने १५९५-१५९९ की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी देश की सहायता में खर्च नहीं किया.
६१. अकबर ने प्रयागराज (जिसे बाद में इसी धर्म निरपेक्ष महात्मा ने इलाहबाद नाम दिया था) में गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो लोग उसके इस्तकबाल करने की जगह घरों में छिप गए. यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है.
६२. एक बहुत बड़ा झूठ यह है कि फतेहपुर सीकरी अकबर ने बनवाया था. इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है. बाकी दरिंदे लुटेरों की तरह इसने भी पहले सीकरी पर आक्रमण किया और फिर प्रचारित कर दिया कि यह मेरा है. इसी तरह इसके पोते और इसी की तरह दरिंदे शाहजहाँ ने यह ढोल पिटवाया था कि ताज महल इसने बनवाया है वह भी अपनी चौथी पत्नी की याद में जो इसके और अपने सत्रहवें बच्चे को पैदा करने के समय चल बसी थी!
तो ये कुछ उदाहरण थे अकबर “महान” के जीवन से ताकि आपको पता चले कि हमारे नपुंसक इतिहासकारों की नजरों में महान बनना क्यों हर किसी के बस की बात नहीं. क्या इतिहासकार और क्या फिल्मकार और क्या कलाकार, सब एक से एक मक्कार, देशद्रोही, कुल कलंक, नपुंसक हैं जिन्हें फिल्म बनाते हुए अकबर तो दीखता है पर महाराणा प्रताप कहीं नहीं दीखता. अब देखिये कि अकबर पर बनी फिल्मों में इस शराबी, नशाखोर, बलात्कारी, और लाखों हिंदुओं के हत्यारे अकबर के बारे में क्या दिखाया गया है और क्या छुपाया. बैरम खान की पत्नी, जो इसकी माता के सामान थी, से इसकी शादी का जिक्र किसी ने नहीं किया. इस जानवर को इस तरह पेश किया गया है कि जैसे फरिश्ता! जोधाबाई से इसकी शादी की कहानी दिखा दी पर यह नहीं बताया कि जोधा असल में जहांगीर की पत्नी थी और शायद दोनों उसका उपभोग कर रहे थे. दिखाया यह गया कि इसने हिंदू लड़की से शादी करके उसका धर्म नहीं बदला, यहाँ तक कि उसके लिए उसके महल में मंदिर बनवाया! असलियत यह है कि बरसों पुराने वफादार टोडरमल की पूजा की मूर्ति भी जिस अकबर से सहन न हो सकी और उसे झट तोड़ दिया, ऐसे अकबर ने लाचार लड़की के लिए मंदिर बनवाया, यह दिखाना धूर्तता की पराकाष्ठा है. पूरी की पूरी कहानियाँ जैसे मुगलों ने हिन्दुस्तान को अपना घर समझा और इसे प्यार दिया, हेमू का सिर काटने से अकबर का इनकार, देश की शान्ति और सलामती के लिए जोधा से शादी, उसका धर्म परिवर्तन न करना, हिंदू रीति से शादी में आग के चारों तरफ फेरे लेना, राज महल में जोधा का कृष्ण मंदिर और अकबर का उसके साथ पूजा में खड़े होकर तिलक लगवाना, अकबर को हिंदुओं को जबरन इस्लाम क़ुबूल करवाने का विरोधी बताना, हिंदुओं पर से कर हटाना, उसके राज्य में हिंदुओं को भी उसका प्रशंसक बताना, आदि ऐसी हैं जो असलियत से कोसों दूर हैं जैसा कि अब आपको पता चल गयी होंगी. “हिन्दुस्तान मेरी जान तू जान ए हिन्दोस्तां” जैसे गाने अकबर जैसे बलात्कारी, और हत्यारे के लिए लिखने वालों और उन्हें दिखाने वालों को उसी के सामान झूठा और दरिंदा समझा जाना चाहिए.
चित्तौड़ में तीस हजार लोगों का कत्लेआम करने वाला, हिंदू स्त्रियों को एक के बाद एक अपनी पत्नी या रखैल बनने पर विवश करने वाला, नगरों और गाँवों में जाकर नरसंहार कराकर लोगों के कटे सिरों से मीनार बनाने वाला, जिस देश के इतिहास में महान, सम्राट, “शान ए हिन्दोस्तां” लिखा जाए और उसे देश का निर्माता कहा जाए कि भारत को एक छत्र के नीचे उसने खड़ा कर दिया, उस देश का विनाश ही होना चाहिए. वहीं दूसरी तरफ जो ऐसे दरिंदे, नपुंसक के विरुद्ध धर्म और देश की रक्षा करता हुआ अपने से कई गुना अधिक सेनाओं से लड़ा, जंगल जंगल मारा मारा फिरता रहा, अपना राज्य छोड़ा, सब साथियों को छोड़ा, पत्तल पर घास की रोटी खाकर भी जिसने वैदिक धर्म की अग्नि को तुर्की आंधी से कभी बुझने नहीं दिया, वह महाराणा प्रताप इन इतिहासकारों और फिल्मकारों की दृष्टि में “जान ए हिन्दुस्तान” तो दूर “जान ए राजस्थान” भी नहीं था! उसे सदा अपने राज्य मेवाड़ की सत्ता के  लिए लड़ने वाला एक लड़ाका ही बताया गया जिसके लिए इतिहास की किताबों में चार पंक्तियाँ ही पर्याप्त हैं. ऐसी मानसिकता और विचारधारा, जिसने हमें अपने असली गौरवशाली इतिहास को आज तक नहीं पढ़ने दिया, हमारे कातिलों और लुटेरों को महापुरुष बताया और शिवाजी और राणा प्रताप जैसे धर्म रक्षकों को लुटेरा और स्वार्थी बताया, को आज अपने पैरों तले रौंदना है. संकल्प कीजिये कि अब आपके घर में अकबर की जगह राणा प्रताप की चर्चा होगी. क्योंकि इतना सब पता होने पर यदि अब भी कोई अकबर के गीत गाना चाहता है तो उस देशद्रोही और धर्मद्रोही को कम से कम इस देश में रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए.
अब तो न अकबर न बाबर से वहशी
दरिन्दे कभी पुज न पायें धरा पर
जो नाम इनका ले कोई अपनी जबाँ से
बता देना राणा की तलवार का बल

इस धूर्त दरिन्दे के पर्दाफाश के बाद, भारत के सच्चे सपूत को अग्निवीर का शत शत नमन :
कोई पूछे कितना था राणा का भाला
तो कहना कि अकबर के जितना था भाला
जो पूछे कोई कैसे उठता था भाला
बता देना हाथों में ज्यों नाचे माला
चलाता था राणा जब रण में ये भाला
उठा देता पांवों को मुग़लों के भाला
जो पूछे कभी क्यों न अकबर लड़ा तो
बता देना कारण था राणा का भाला.



उपरलिखित तथ्यों का विस्तार जानने के लिए पढ़ें:
1. Akbar – the Great Mogul by Vincent Smith
2. Akbarnama by Abul Fazl
3. Ain-e-Akbari by Abul Fazl
4. Who says Akbar is Great by PN Oak


UNLEASH THE LEGEND WITHIN ................................... 

से साभार......

रविवार, 6 मई 2012

दुर्भाग्य





मेरे गाँव के घर के पास ही मेरे खेत हैं, खेत में बने मचान पर बैठकर दूर के खेतों में बुधिया को उसके अपने खेतों में हल चलाते देखता था, फ़िर धान की बालियों के आते ही बुधिया का अपनी मूछों का सहलाना भी यादों में शामिल है अभी तक..............

अब मैं उस घर में नही रहता, शहर आ गया हूँ पर गाँव नही छूटा। अक्सर जाता हूँ। वो मचान आज भी उसी जगह पर है, उस पर चढ कर दूर-दूर का नजारा देखता हूँ। बहुत कुछ बदल गया है। दूर पर जो खेत हुआ करते थे वो अब आधुनिक शहर में तब्दील हो चुके हैं। ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें बन चुकी हैं वहाँ पर...............

और बुधिया भी माडर्न हो गया है, अब हल नही चलाता अपने खेतों में और धान की बालियों को लहलहाते देखने की उसकी उम्मीद भी मर चुकी है, रोज मूँछें साफ़ करता है, पूछो तो कहता है "साहब, अगर रोज सेव नही किया तो ये गार्ड की नौकरी भी चली जायेगी हाथ से ...............

इसे आधुनिकता कहें या एक किसान का जीवन,......

कल जो खेतों का मालिक हुआ करता था, अब वहीं बनी अट्टालिकाओं (मल्टीफ़्लेक्स) में गार्ड की नौकरी करता फ़िरता है................


------ गोपाल कृष्ण शुक्ल