रविवार, 6 मई 2012

दुर्भाग्य





मेरे गाँव के घर के पास ही मेरे खेत हैं, खेत में बने मचान पर बैठकर दूर के खेतों में बुधिया को उसके अपने खेतों में हल चलाते देखता था, फ़िर धान की बालियों के आते ही बुधिया का अपनी मूछों का सहलाना भी यादों में शामिल है अभी तक..............

अब मैं उस घर में नही रहता, शहर आ गया हूँ पर गाँव नही छूटा। अक्सर जाता हूँ। वो मचान आज भी उसी जगह पर है, उस पर चढ कर दूर-दूर का नजारा देखता हूँ। बहुत कुछ बदल गया है। दूर पर जो खेत हुआ करते थे वो अब आधुनिक शहर में तब्दील हो चुके हैं। ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें बन चुकी हैं वहाँ पर...............

और बुधिया भी माडर्न हो गया है, अब हल नही चलाता अपने खेतों में और धान की बालियों को लहलहाते देखने की उसकी उम्मीद भी मर चुकी है, रोज मूँछें साफ़ करता है, पूछो तो कहता है "साहब, अगर रोज सेव नही किया तो ये गार्ड की नौकरी भी चली जायेगी हाथ से ...............

इसे आधुनिकता कहें या एक किसान का जीवन,......

कल जो खेतों का मालिक हुआ करता था, अब वहीं बनी अट्टालिकाओं (मल्टीफ़्लेक्स) में गार्ड की नौकरी करता फ़िरता है................


------ गोपाल कृष्ण शुक्ल


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें