बुधवार, 2 मई 2012

स्त्री की अन्तहीन पीडा

                                  खोखले नारे न तो कभी पेट भर सकते हैं और न ही तन पर चीथडों के अलावा इज्जत ढकने को वस्त्र उपलब्द्ध करा सकते हैं। ये केवल दे सकते हैं---- कोरा आश्वासन और अन्तहीन छलावा।

                                समाज में आज भी स्त्री अन्तहीन पीडा से कसमसा रही है, पीडित जीवन ही भोग रही है। स्त्रियों के कानूनी और सामाजिक अधिकार बहस के कटघरे में खडे हैं।

                              स्त्रीत्व के साथ अभद्र व्यवहार कर मात्र कुछ वर्ष की सजा काटकर अपराधी (पुरुष) अपने अपराध एवं अपराध-बोध से मुक्त हो समाज में फ़िर सिर उठा कर घूमने लगता है। यह है आज के हमारे भारत में स्त्री की दशा।

                             स्त्री पुरातनकाल से ही बडी सहज आलोचना की केन्द्र रही है। किन्तु नारी सशक्तीकरण एवं नारी मुक्ति के बैनर तले भी वह आज कहाँ मुक्त है ? और किससे मुक्त है ? क्या स्त्री, पुरुष शाषित एवं पुरुष प्रधान समाज में भय मुक्त है ? क्या वह पुरुषों की भाँति आवश्यक कार्य से रात्रि को अकेले शहर के किसी कोने में सुरक्षित जा सकती है ? क्या भौतिक रूप से समानता के स्तर पर बराबरी और कहीं-कहीं पर उच्च स्थान पाने वाली स्त्री, समाज में निरीह और अशक्त नही है ?

                         यद्यपि स्त्रियों की शैक्षिक एवं आर्थिक दशा आज के परिवेश में सुधरी है किन्तु स्त्रीत्व के परिवेश में वे आज भी असुरक्षित हैं। समाज के मूर्धन्य व्यक्ति, साहित्यकार, लेखक-लेखिकाओं की दृष्टि से ये मुद्दे ओझल भी नही हुए हैं। इस सामाजिक सत्य को सबने पुरजोर ढंग से उठाया भी है, फ़िर भी समस्या जस की तस है।

                       संभवतः इंसानियत पशुता के आगे दब गयी है, जिस कारण स्त्री निरभिग्न जीने को तरस रही है।

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