गुरुवार, 19 जनवरी 2023

अजेय वीर चन्द्रशेखर आजाद

 



            सन 1857 के महायुद्ध से बहुत पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध देशवासियों का संघर्ष शुरू हो चुका था। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम बहुत संगठित रूप मे सामने आया, इसलिए दुनिया उसे जान पाई। यह महासंग्राम दबा दिया गया पर भारतीय समाज में इसकी अनुगूँज बहुत समय तक बनी रही। इस महासंग्राम की चिंगारी राख के नीचे हमेशा जिन्दा रही। इस महासंग्राम के हिसाब से देखा जाए तो क्रान्तिकारी कहे जाने वाले लोग स्वतन्त्रता के इस समझौताविहीन संघर्ष को अपने रक्त से 63 वर्ष तक सींचते रहे। 1920 के गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन तक यह चिंगारी सुलगती रही। इसके पहले तक तो एक अंग्रेज द्वारा बनाई गई काँग्रेस नामक संस्था अपने जन्म के 35 साल बाद तक मात्र "गॉड सेव द किंग" जैसी प्रार्थनाएं अपनी सभा में गाती रही। जनता के मन में काँग्रेस का संग्रामी रूप असहयोग आन्दोलन के दिनों में पहली बार प्रस्फुटित हुआ। 

            असहयोग आन्दोलन की लहर में पूरा देश बह गया था। काशी में संस्कृत पढ़ रहे 14 वर्षीय छात्र ने भी इसमें अपनी आहुति दी। चंद्रशेखर तिवारी नामक इस किशोर को धरना देने के आरोप में गिरफ्तार कर पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट की अदालत में पेश किया गया, जो कड़ी सजायें देने के लिए कुख्यात थे। उन्होंने इस किशोर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया, तो उसने अपना नाम "आजाद", पिता का नाम "स्वाधीन" और घर का पता "जेलखाना" बताया। मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए और उन्होंने चंद्रशेखर को पंद्रह बेंतों की सजा सुना दी। जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निवस्त्र देह पर बेंतों के प्रहार किये। प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी। पीड़ा को सहन कर वह बालक हर बेंत के साथ "भारत माता की जय" बोलता जाता था। इस पहली अग्नि परीक्षा में सम्मानपूर्ण उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में नागरिक अभिनंदन किया गया। अब वह बालक चन्द्रशेखर आजाद कहलाने लगा। इस "आजाद" शब्द की सार्थकता को उस बालक से बेहतर शायद ही कभी किसी ने निभाया हो।

            चन्द्रशेखर के कोमल शरीर पर लगे बेंतों के घाव तो भर गए पर उनके निशान और कसक देर तक बनी रही। गाँधी द्वारा मनमर्जी से असहयोग आन्दोलन वापस लेने पर बहुत से युवाओं की तरह चन्द्रशेखर को भी धक्का लगा। असहयोग आन्दोलन की लड़ाई से मोहभंग हुआ तो भीतर की छटपटाहट उस बालक को क्रान्तिकारी संग्राम की ओर खींच ले गयी। काशी क्रान्तिकारियों का केन्द्र था। काशी में ही क्रान्ति पथ के पथिक मन्मथनाथ गुप्त मिले और चन्द्रशेखर निर्भीक होकर उनके साथ चल पड़े। फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। चंद्रशेखर आजाद क्रान्तिकारियों कमांडर इन चीफ बन गए। चन्द्रशेखर आजाद एक ऐसा नाम हो गया जो वीरता का पर्याय हो गया।

            इस नर शार्दूल चन्द्रशेखर आजाद का जन्म झाबुआ जिले (तत्कालीन मध्य भारत) के एक आदिवासी ग्राम भावर (अब चन्द्रशेखर आजाद नगर) में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। यह गाँव अब झाबुआ जिले से काट कर अलग जिला बना दिए गए अलीराजपुर जिले (छत्तीसगढ़) में आता है। चन्द्रशेखर आजाद के जन्म की यह तिथि उनके साथी भगवान दास माहौर ने आजाद की माँ से प्राप्त जानकारियों के आधार पर निश्चित की थी। "यश की धरोहर" नामक पुस्तक में माहौर जी ने लिखा है, "चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य भारत की झाबुआ तहसील के ग्राम भावरा में हुआ था, ........... आजाद की माता जी का देहान्त 22 मार्च 1951 को झाँसी में मेरे घर पर ही हुआ था। वे मेरे तथा भाई सदाशिव मलरापुरकर के साथ मेरे घर पर ही दो साल रहीं थीं और तभी उन्होंने आजाद के जन्म और बाल्यकाल की बातें बताईं थीं, जिन्हे मैंने नोट कर लिया था। माता जी ने बताया था कि चन्द्रशेखर का जन्म सुदी दूज सोमवार को दिन में दो बजे हुआ था। सम्वत माता जी को विस्मृत हो गया था।" इसी तिथि के आधार पर माहौर जी ने आजाद की जन्म कुण्डली बनाई और आजाद की जन्मतिथि 23 जुलाई 1906 नियत की। हालाँकि उनके पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका कस्बे के लोग उनका जन्म दिवस 7 जनवरी 1906 मानते हैं। 

            चन्द्रशेखर आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव के रहने वाले थे, वहाँ अपनी विमाता के साथ रहते थे। हालाँकि उनके पूर्वज मूल रूप से मसवानपुर (कानपुर) के निकट भौंती गाँव के रहने वाले थे। सामाजिक मान-प्रतिष्ठा होने के बावजूद तिवारी जी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। सन 1899 में भीषण अकाल पड़ने के कारण उन्हे अपना गाँव बदरका छोड़ना पड़ा। अपने एक रिश्तेदार हजारीलाल का सहारा लेकर वे अपनी पत्नी जगरानी देवी और पुत्र सुखदेव को लेकर अलीराजपुर रियासत जा पहुँचे। बदरका निवासी राम लखन अवस्थी, जो वहाँ पुलिस में दरोगा थे, ने उन्हे पुलिस की नौकरी दिलवा दी परंतु इसमे उनका मन न लगा, क्योंकि अपने लोगों पर ही जोर-जुल्म करना उनको गवारा न था। नौकरी छोड़कर वे समीपस्थ गाँव भाबरा में बस गए। जहाँ उन्होंने भैंस पाल कर दूध का व्यवसाय शुरू किया। किसी बीमारी के कारण भैंसे मर गईं, तब उन्हे पाँच रुपये मासिक पर सरकारी बगीचे में चौकीदारी करनी पड़ी। 

            इसी निपट विपन्नावस्था में यहीं बालक चन्द्रशेखर का जन्म हुआ और बचपन बीता। बचपन से ही चन्द्रशेखर घुमंतू प्रवृत्ति के थे। अधिकांश समय भील बालकों के साथ जंगलों की खाक छानते फिरते। उन्हे तीर-कमान बनाने का बहुत शौक था और इनसे वे जंगली जानवरों का शिकार करते। जंगल में ही आजाद भील बालकों से निशाना लगाना सीखते। कुश्ती और दंड लगाने का भी उन्हे बहुत शौक था। उनके पिता के मित्र मनोहरलाल त्रिवेदी, जो आजाद के क्रान्तिकारी जीवन में भी उनके बहुत निकट रहे, उन्हे और बड़े भाई सुखदेव को पढ़ाते थे पर पढ़ने में आजाद का मन नहीं लगता था। 

            परिवार की निर्धनता के कारण कुछ समय आजाद ने तहसीलदार के यहाँ भृत्य की नौकरी की, पर यह गुलामी उनके स्वाभिमानी मन को रास न आयी। पिता के साथ प्रायः किसी न किसी विषय पर उनकी खटपट हो जाती थी, जिस कारण से उनका मन अपने घर से उचटने लगा। एक दिन वो परिवार को बिना बताये घर छोड़ कर चले गये। इस सम्बन्ध में आजाद पर महाकाव्य लिखने वाले श्रीकृष्ण सरल ने लिखा है कि "कुछ लोगों का कहना है कि वे पहले वाराणसी गये थे। तथ्यों के अन्वीक्षण से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि पहले वो बम्बई गये थे, पर वहाँ मन न लगने के कारण वहीं से वाराणसी जा पहुँचे। वाराणसी पहुँचने पर उन्होंने अपने माता-पिता को सूचना दी थी।"

            आजाद के फूफा जी पण्डित शिवविनायक मिश्र बनारस में ही रहते थे। कुछ उनका सहारा लिया और कुछ खुद भी पहचान निकाली और "संस्कृत विद्यापीठ" में भर्ती होकर संस्कृत का अध्ययन करने लगे। उन दिनों बनारस में गाँधी के असहयोग आन्दोलन की लहर चल रही थी। विदेशी माल न बेचा जाये, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे। ऐसे ही एक धरने में चन्द्रशेखर भी पकड़े गए और वो चर्चित प्रसंग हुआ जिससे चन्द्रशेखर तिवारी को दुनिया ने चन्द्रशेखर आजाद के रूप में जाना, जिसका विस्तृत विवरण ऊपर किया गया है। बाद में क्रान्तिपथ का राही बनकर वो क्रान्तिकारियों के साथ कदम से कदम मिला कर चल पड़े। 

            उन दिनों उत्तर भारत का क्रान्तिकारी दल शचीन्द्र नाथ सान्याल और योगेश चन्द्र चटर्जी के नेतृत्व में चल रहा था। अब नई चेतना और विचार के साथ "हिंदुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम से क्रान्तिकारी नया विधान लेकर आये। जिसमें देश की स्वतन्त्रता के लिए क्रान्तिकारी प्रयासों के साथ ही ऐसी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के निर्माण का संकल्प था, जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण सम्भव न होगा। 

            असहयोग आंदोलन के समय छोड़े गए हथियार क्रान्तिकारियों ने फिर से उठा लिए। क्रान्तिकारी दल के नए नेता के रूप में शाहजहाँपुर के पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल सामने आये। उन्होंने पार्टी चलाने के लिये कुछ धनी और देशद्रोही व्यक्तियों के घरों में डकैतियाँ डालीं, जिनमें चन्द्रशेखर आजाद भी साथ थे। पार्टी नेतृत्व जल्द ही ऐसे कार्यों से ऊब गया। उसे लगा कि यह अपने ही देश वासियों  पर ज्यादती है, इसलिए क्यों न सीधे सरकार पर हमला किया जाये। 

            योजना बनी और 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पर एक सवारी गाड़ी को रोककर सरकारी खजाने की लूट की गयी। इस काम में रामप्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र बख्शी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुंदीलाल और बनवारी लाल ने हिस्सेदारी की। योजना तो पूर्णतः सफल रही पर बाद में कुछ सुराग मिलने पर जब अँग्रेज सरकार ने धर-पकड़ शुरू की तो दल के नेता बिस्मिल और लगभग ४० क्रान्तिकारी युवक सरकार की गिरफ्त में आ गए। चन्द्रशेखर आजाद पकड़े नहीं जा सके। 

            काकोरी का मुकदमा लखनऊ की अदालत में 18 महीने चला, जिसमें बिस्मिल, अशफाक उल्ला, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को फाँसी की सजायें दी गईं, कुछ को काले पानी की सजा और अन्य को कारावास का दण्ड मिला। इस घटना के बाद संगठन बिखर गया और क्रांति की मशाल बुझती सी लगी, पर एक सूरमा अभी मुक्त था। आजाद फरार हो गए पर चुप नहीं बैठे। 19 दिसंबर 1927 को काकोरी काण्ड में हुई फाँसियों के बाद दल के नेतृत्व का भार उनके काँधों पर आ गया। आजाद ने खिसक कर झाँसी में अपना अड्डा जमा लिया। झाँसी मे आजाद को एक क्रान्तिकारी साथी मास्टर रुद्र नारायण सिंह का संरक्षण मिला। झाँसी में ही सदाशिव राव मलकापुरकर , भगवान दास माहौर और विश्वनाथ वैशम्पायन के रूप में उन्हे अच्छे साथी भी मिल गए। 

            झाँसी की बुन्देलखंड मोटर कम्पनी में कुछ दिन उन्होंने मोटर मैकेनिक के रूप में काम किया, मोटर चलाना सीखा और पुलिस अधीक्षक की कार चला कर मोटर चलाने का लाइसेन्स भी ले आए। जब झाँसी में पुलिस की हलचल बढ़ने लगी तो आजाद ओरछा राज्य में खिसक गए और सातार नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर ब्रह्मचारी के रूप में रहने लगे। आजाद के न पकड़े जाने का एक रहस्य यह भी था कि संकट के समय वे शहर छोड़कर गाँवों की ओर खिसक जाते थे और स्वयं को सुरक्षित कर लेते थे। 

            उन्होंने संगठन के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़ा और गुप्त रहकर तेजी से पार्टी का संचालन किया। सौभाग्य से इसमें उन्हे भगत सिंह के बौद्धिक नेतृत्व का जबरदस्त सहयोग मिला। अब "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम में "समाजवादी" शब्द जोड़कर नई योजनाएं तैयार की जाने लगीं। आजाद को पार्टी का सेनापति बनाया गया। स्वतंत्रता से प्रजातन्त्र और फिर समाजवादी लक्ष्य तक की क्रान्तिकारियों की इस संघर्ष यात्रा पर गर्व किया जा सकता है, जबकि दूसरी ओर आजादी के लिए आन्दोलनरत काँग्रेस "पूर्ण स्वतंत्रता" के अपने प्रस्ताव तक भी नहीं पहुँच पायी थी। 

            साइमन कमीशन का झांसा आया तो देश भर में उसका तीव्र विरोध हुआ। हर कहीं "साइमन गो बैक" के नारे और काले झंडे लहराए गए। लाला लाजपत राय पर ऐसे ही एक जुलूस में लाठियाँ बरसाई गई, जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गये और उनकी मृत्यु हो गयी। क्रान्तिकारियों को लगा कि यह देश का अपमान है और इसका बदला लिया जाना चाहिए। आजाद, भगतसिंह, राजगुरू और कुछ अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर दिन दहाड़े अँग्रेज पुलिस आफिसर साँडर्स को मार कर यह साबित कर दिया कि देश के नौजवानों का खून अभी ठण्डा नहीं हुआ है। उन्होंने देश की जनता और हुकूमत को यह भी बताया कि क्रान्ति के रास्ते में हिंसा होती ही है। 

            1928 का वर्ष गहरे असंतोष का था। सब ओर हलचल थी। केन्द्रीय असेम्बली में सरकार दो अत्यधिक दमनकारी कानून पेश करने वाली थी। इस माहौल में क्रान्तिकारी दल ने इनका विरोध करने का निर्णय किया। तय हुआ कि जिस समय वह जनविरोधी कानून केन्द्रीय असेम्बली में प्रस्तुत हों, ठीक उसी समय बमों का विस्फोट कर के बहरों के कान खोले जायें। आजाद का विचार था कि ऐसा करने के बाद क्रान्तिकारी वहाँ से निकाल जायें, लेकिन बहुमत से फैसला हुआ कि भगतसिंह और बटूकेश्वर दत्त बम फेंकने के पश्चात अपनी पार्टी की नीतियों, सिद्धांतों, लक्ष्यों और घोषणाओं के पर्चे फेंककर गिरफ़्तारी देंगे तथा मुकदमे के समय अदालत को मंच के रूप में इस्तेमाल कर के जनता और दुनिया के बीच अपना प्रचार करेंगे। ऐसा ही हुआ। भगत सिंह और दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को बहरों के कान खोलने के लिए बम का धमाका किया और जेल चले गये। 

            भगतसिंह, दत्त और बाद में गिरफ्तार अन्य क्रान्तिकारियों पर "लाहौर षडयन्त्र केस" चला। जिसमें भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फाँसी तथा दूसरों को कालापानी की सजायें सुनाई गईं। इससे पहले आजाद ने भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर गंभीरता से कार्य किया। भगवतीचरण इसी तैयारी में बम परीक्षण करते हुए रावी नदी के तट पर शहीद हो गये। फिर भी आजाद ने अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा, पर भगत सिंह बाहर आने को तैयार ही नहीं हुए। 

            आजाद निरंतर फरार रहकर निर्भीकता से पार्टी का कार्य कर रहे थे। वे अब ब्रिटिश सत्ता के लिये जबरदस्त चुनौती बन चुके थे। पार्टी के कुछ सदस्यों के विश्वासघात के चलते यह बहादुर सेनानायक आखिरकार 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश पुलिस के द्वारा चारों तरफ से घेर लिया गया। अपनी एक मामूली पिस्तौल और चंद कारतूसों के बल पर उन्होंने जिस तरह शक्तिशाली माने जाने वाले अँग्रेजी साम्राज्यवाद को जबरदस्त टक्कर दी, वह संसार के क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमिट गाथा है। ब्रिटिश पुलिस अफसरों ने भी आजाद की बहादुरी का लोहा माना। पुलिस अधिकारी नॉट बाबर ने उनकी शहादत के बाद उनके शव के पास जाकर हैट उतारकर उन्हे सलामी दी। वो आजाद की पिस्तौल अपने साथ इंग्लैण्ड ले गया था। जिसे स्वतन्त्रता के बाद स्वदेश मंगाया गया। 

            उस समय उत्तर प्रदेश में पुलिस का इन्स्पेक्टर जनरल हॉलिन्स था। हॉलिन्स ने अँग्रेजी पत्रिका "Men Only" के अक्टूबर 1954 के अंक में भारत में अपनी नौकरी के संस्मरणों के प्रसंग में आजाद और पुलिस की इस लड़ाई का जिक्र किया है। इस लेख के अनुसार आजाद की पहली गोली अंग्रेज पुलिस सुपरिन्टेंडेंट नॉट बाबर की बाँह में लगी, जिसने उसकी कलाई तोड़ दी। पुलिस के सिपाही बाड़ की झाड़ियों के पीछे छिपकर आजाद और उनके साथी पर गोलियाँ चलाने लगे। पुलिस इन्स्पेक्टर विश्वेशर सिंह निशाना लेने के लिये झाड़ी के ऊपर से झाँक रहा था। उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आजाद को एक गाली दी। गाली को सुनकर आजाद को क्रोध आया। उस समय तक आजाद के शरीर में दो-तीन गोलियाँ धँस चुकी थी, जिससे खून बह रहा था। ऐसी हालत में भी आजाद ने इन्स्पेक्टर के झाँकते हुए चेहरे का निशाना लेकर गोली चलाई, जिससे विश्वेश्वर सिंह का जबड़ा टूट गया। हॉलिन्स ने अपने संस्मरण में आजाद के इस निशाने की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि " यह आजाद का अन्तिम परन्तु अत्यधिक प्रशंसा के योग्य निशाना था"। 

            हॉलिन्स ने तो यही लिखा कि आजाद पुलिस की गोलियों से मारे गए परंतु लड़ाई के समय मौजूद लोगों का कहना था कि वहाँ मौजूद दोनों क्रांतिकारियों मे से एक जख्मी होकर लड़ता रहा, जब कि दूसरा भाग गया। (दूसरे क्रान्तिकारी सुखदेवराज को आजाद ने खुद भगा दिया था, जैसा कि बाद में उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा था।) लड़ने वाले ने आखिरी गोली अपनी कनपटी पर मार ली। उसके गिर पड़ने पर भी पुलिसवालों का उसके समीप जाने का साहस नहीं हुआ। कई गोलियां उसके निष्प्राण शरीर पर मार कर ये निश्चय किया गया कि कहीं वो जिन्दा तो नहीं। पुलिस शरीर को अपनी गाड़ी मे उठा कर ले गयी। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उनकी दाईं कनपटी पर गोली का घाव था और घाव के चारों तरफ के बाल जले हुए थे। यह इस बात का प्रमाण था कि कनपटी का घाव, पिस्तौल कनपटी पर रखकर गोली मारने से हुआ था। गोली दूर से आकर लगने पर कनपटी पर बालों के जलने का कोई कारण नहीं होता।

            आजाद के अन्तिम संस्कार के बारे में जानने के लिये उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिव विनायक मिश्र द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा। उनके शब्दों में "आजाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गाँधी आश्रम के एक सज्जन मेरे पास आये। उन्होंने बताया कि आजाद शहीद हो गये हैं और उनके शव को लेने के लिये मुझे इलाहाबाद बुलाया गया है। उसी रात्रि को साढ़े चार बजे की गाड़ी से मैं इलाहाबाद के लिए रवाना हुआ। झूँसी स्टेशन पहुंचते ही एक तार मैंने सिटी मजिस्ट्रेट को दिया आजाद मेरा सम्बन्धी है, शव डिस्ट्राय न की जाये। इलाहाबाद पहुंचकर मैं आनन्द भवन पहुंचा तो कमला नेहरू से मालूम हुआ कि शव पोस्टमार्टम के लिए गया हुआ है। मैं सीधा डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के बँगले पर गया। उन्होंने कहा कि आप पुलिस सुपरिन्टेंडेंट से मिल लीजिए। शायद शव जला दिया गया होगा। मुझे पता नहीं कि शव कहाँ है। मैं सुपरिन्टेंडेंट से मिला तो उन्होंने मुझसे बहुत वाद-विवाद किया। उसके बाद उन्होंने मुझे भुलावा देकर एक खत दारागंज के दरोगा के नाम से दिया कि त्रिवेणी पर लाश गयी है, पुलिस की देख-रेख में इनको अन्त्येष्टि क्रिया करने दी जाये। बँगले के बाहर निकला तो थोड़ी ही दूर पर मालवीय जी के पौत्र श्री पदमकांत मालवीय दिखाई दिए। उन्हे पता चला था कि मैं आया हुआ हूँ। उनकी मोटर पर बैठकर हम दारागंज पुलिस थानेदार के पास गए। वे हमारे साथ त्रिवेणी पर गए। वहाँ कुछ था ही नहीं। हम फिर से डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के पास जा रहे थे कि एक लड़के ने मोटर रुकवा कर बताया कि शव को रसूलाबाद ले गये हैं।" 

            "रसूलाबाद पहुँचे तो चिता में आग लग चुकी थी। अँग्रेज सैनिकों ने मिट्टी का तेल  छिड़क कर आग लगा दी थी और आस-पास पड़ी फूस भी डाल दी थी ताकि आग और तेज हो जाये। पुलिस काफी थी। इंचार्ज अफसर को चिट्ठी दिखाई तो तो उसने मुझे धार्मिक कार्य करने की आज्ञा दे दी। हमने फिर लकड़ी आदि मँगवाकर विधिवत दाह-संस्कार किया। चिता जलते-जलते पुरुषोत्तम दास टण्डन एवं कमला नेहरू भी वहाँ आ गईं थीं। करीब दो-तीन सौ आदमी जमा हो गये थे। चिता के बुझने के बाद मैनें अस्थि-संचय किया। इन्हे मैंने त्रिवेणी संगम में विसर्जित कर दिया। कुछ राख एक पोटली में मैंने एकत्र की तथा थोड़ी सी अस्थियाँ पुलिस वालों से छिपाकर मैं अपने साथ लेता आया। उन अस्थियों में से एक आचार्य नरेन्द्र देव भी ले गए थे। शायद विद्यापीठ में जहाँ आजाद के स्मारक का पत्थर लिखा है, वहाँ उन्होंने उस अस्थि के टुकड़े को रखा है। सायंकाल काले कपड़े में आजाद की भस्मी का चौक पर जुलूस निकला। इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरुद्ध हो गयीं। ऐसा लग  रहा था जैसे सारा देश अपने इस सपूत को अन्तिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है। जुलूस के बाद एक सभा हुई। सभा को शचीन्द्र नाथ की पत्नी ने संबोधित करते हुये कहा- जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रख कर सम्मानित किया वैसे ही आजाद को भी सम्मान मिलेगा। शाम की गाड़ी से मैं बनारस चला गया और वहाँ विधिवत आजाद का अन्तिम संस्कार किया।"

            कुछ अस्थियाँ शिव विनायक जी मिश्र अपने साथ ले गए थे। मिश्र जी की मृत्यु के बाद वो अस्थियाँ उनके पुत्रों से लेकर जून 1976 के अन्तिम सप्ताह में तांबे के कलश में विद्यापीठ में रखी गयीं। 1 अगस्त 1976 को अस्थि कलश की शोभायात्रा विद्यापीठ वाराणसी से प्रारम्भ हुई और वहाँ से रामनगर, चुनार, मिर्जापुर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, रायबरेली, सोख्ता आश्रम, कालपी, उरई, मोंठ, झाँसी, सातार-तट (ओरछा मध्य प्रदेश), कानपुर, बदरका (उन्नाव) होते हुये 10 अगस्त 1976 को लखनऊ पहुँची। रास्ते में पड़ने वाले हर नगर, कस्बे, गाँव में हजारों लोगों ने इस यात्रा का स्वागत किया। लखनऊ के बनारसी बाग स्थित संग्रहालय के प्रांगण में अस्थिकलश संग्रहालय के अधिकारियों को सौंप दिया। तब से जनता के दर्शनार्थ वह अस्थि कलश वहाँ एक विशेष कक्ष में रखा हुआ है। 

            आजाद की पिस्तौल के बारे में कहा जाता है कि "इलाहाबाद मालखाने के 1931 के रजिस्टर में 27 फरवरी की तारीख में आजाद के पास मिली पिस्तौल का उल्लेख और विवरण मिला, जिसके साथ ही एक नोट लिखा हुआ था कि वह पिस्तौल नॉट बाबर एस एस पी को (जिनकी गोली से आजाद घायल हुए थे) इंग्लैण्ड जाते समय कुछ चापलूस पुलिस वालों ने भेंट कर दी थी, जिसे वह अपने साथ इंग्लैण्ड ले गए थे।"

            नॉट बाबर उत्तर प्रदेश सरकार से पेंशन पाते थे, मुस्तफी ने उन्हे वह पिस्तौल तुरंत वापस करने के लिए लिखा। लेकिन काफी इन्तजार के बाद भी जब उनसे कोई जवाब नहीं मिला तब इस मामले में केंद्र से मदद माँगी गयी। केन्द्रीय शासन के सम्बन्धित सचिव ने इंग्लैण्ड मे उस समय के अपने हाई कमिश्नर अप्पा साहब को लिखा कि नॉट बाबर से मिलकर और उन्हे समझा-बुझा कर अथवा वह जो मूल्य माँगे, उसे देकर, हर हाल में वह पिस्तौल प्राप्त कर ली जाए। पहले तो नॉट बाबर ने आनाकानी की पर बाद में उन्होंने इस शर्त के साथ पिस्तौल अप्पा साहब को वापस की कि इसके बदले में उत्तर प्रदेश सरकार एल्फ्रेड पार्क में स्थित आजाद की मूर्ति की एक फ़ोटो के साथ धन्यवाद का पत्र भेजे। इस प्रकार वह पिस्तौल 1972 के प्रारंभ इंग्लैण्ड से दिल्ली और फिर वहाँ से लखनऊ लायी गई। कई वर्षों तक वह पिस्तौल लखनऊ के संग्रहालय में ही रही। जनता पार्टी के शासन मे जब इलाहाबाद का नया संग्रहालय बनकर तैयार हुआ, तब लखनऊ से इलाहाबाद ले जाकर संग्रहालय के विशेष कक्ष में रखी गयी। जिसे आज भी वहाँ देखा जा सकता है। 

            14 वर्ष के किशोर असहयोगी से भारतीय क्रान्तिकारी दल के अजेय सेनापति बनने तक की आजाद की महागाथा अत्यन्त रोमांचकारी है। वे बहुत गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे, जो रूढ़ियों से बंधा हुआ था। उनके विद्रोही व्यक्तित्व ने उससे बहुत जल्द ही छुट्टी पा ली। अपनी शुरुआती संस्कृत की पढ़ाई छोड़कर वे असायोग आंदोलन मे कूदे। लेकिन वे वहीं ठहर नहीं गये। उन्होंने तेजी से छलाँग लगाकर क्रान्तिकारी दल की सदस्यता ले ली और थोड़े ही समय में उसके कमांडर इन चीफ के पद तक पहुँच गये। वे लंबे समय तक निरंतर सक्रिय रहे। वे पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर बड़े-बड़े काण्ड करते रहे पर कभी भी पुलिस की गिरफ्त में नहीं आये। 

            नेहरू ने उन्हे अपनी आत्मकथा मे "फासिस्ट" कहा है। नेहरू ने लिखा है कि "आजाद यह मानने को तैयार नहीं थे कि शांतिपूर्ण साधनों से हिन्दुस्तान को आजादी मिल जाएगी।" परंतु आजाद का यह तर्क था कि "आगे कभी भी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है, परंतु वह आतंकवाद न होगा।" क्या ऐसा कहने वाला फासिस्ट हो सकता है। नेहरू से आजाद के ये तर्क उन्हे बौद्धिक क्रान्तिकारी की श्रेणी मे ला खड़ा करते हैं, और नेहरू का आजाद को फासिस्ट कहना उनके बौद्धिक दिवालियापन को दर्शाता है। गाँधी और गाँधीवादी लगातार क्रांतिकारियों की आलोचना करते हुए उन्हे 'हिंसक', 'हत्यारे' और 'फासिस्ट' कहते रहे, पर गाँधी को 'महात्मा' और 'राष्ट्रपिता' कहने के बाद भी भारत की जनता ने क्रान्तिकारियों की उनकी इस आलोचना को सिरे से खारिज कर दिया।

            आजाद का कृतित्व आज भी एक चुनौती है। निरे किताबी समाज के लिये उनका मूल्यांकन करना आसान नहीं। आजाद इतिहास में जिस स्थान में पहुँच गये हैं, वहाँ उन्हे छू पाना भी सम्भव नहीं। उनका स्थान हमारे दिलों में है। हमारे लिए वे नायक थे और सदैव रहेंगे। 


तुमने दिया देश को जीवन, देश तुम्हें क्या देगा। 
अपनी आग तेज करने को, नाम तुम्हारा लेगा।। 

वीरता की प्रतिमूर्ति चंद्रशेखर आजाद को कोटि-कोटि नमन ।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

भाग्य-सौभाग्य-दुर्भाग्य

            सुख-दुःख, सफलता-असफलता, उत्थान-पतन का कारक "भाग्य" को मानने वालों को यह समझ लेना आवश्यक है कि भाग्य क्या है और उसका निर्माण किस प्रकार होता है? यह विश्वास कर लेना कि परमात्मा स्वयं अपनी मर्जी से जिसके भाग्य में जो चाहता है वो लिख देता है, ठीक नहीं। ऐसा मानना परमात्मा की न्यायशीलता पर लांछन लगाना है। किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुःख लिख देने में परमात्मा की क्या अभिरुचि हो सकती है? सुखी व्यक्ति से उसे कोई लोभ नहीं होता और दुःखी व्यक्तियों से कोई शत्रुता नहीं होती। परमात्मा तो सबका पिता है, सारे प्राणी उसको समान रूप से प्यारे होते हैं, सबके प्रति परमात्मा का समान भाव रहता है। परमात्मा न तो किसी का पक्ष करता है और न ही किसी का विरोध। भाग्य अथवा प्रारब्ध मनुष्य के अपने कर्मों का फल होता है। जो मनुष्य करने योग्य शुभ कार्य करता है उसका फल उसे सौभाग्य के रूप में प्राप्त होता है और जो अपना जीवन अशुभ कार्यों में लगाता है वह उसके फल के रूप में दुर्भाग्य को प्राप्त करता है। 

            जो व्यक्ति भाग्य निर्माण के लिए अपने कर्मों की ओर ध्यान न देकर परमात्मा की ओर ही देखा करते हैं, इसी भ्रम के आधार पर वे भाग्यवादी कर्मों से विरत रह कर परमात्मा को मनाने और उसे प्रसन्न करने का उपक्रम करते रहते हैं, तथा चाहते हैं कि उनकी पूजा-अर्चना से प्रसन्न हो कर परमात्मा कर्मफलों का अपना अडिग और अटल नियम बदल दे तथा उनके दुर्भाग्य के स्थान पर सौभाग्य लिख दे। वह कुछ ऐसा चमत्कार कर दे कि बिना कुछ किये जिधर हाथ फैला दें उधर की सारी सम्पत्तियाँ और सारी विभूतियाँ भागकर उसके पास आ जायें। परमात्मा उसे ऐसा भाग्यवान बना दे कि उसके कदम रखते ही उसे सफलता मिल जाये। किन्तु ऐसा कभी नहीं हो सकता। जो बात जिस नियम के अन्तर्गत होगी वह उसी नियम के अनुसार चलेगी। ईश्वरीय नियमों को अपवाद बना सकने की आशा कभी पूरी नहीं हो सकती। "भाग्य मनुष्य के कर्मों का फल होता है। वह उसके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही बनता-बिगड़ता है।"

            भाग्य का निर्माण न तो कोई आकस्मिक संयोग है और न उसका बनना-बिगड़ना किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। यह कर्मफलों का विधान है और इसका निर्माता स्वयं मनुष्य ही होता है। यदि मनुष्य चाहता है कि उसके भाग्य में श्री-समृद्धि, वैभव, ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं का समावेश हो तो उसे सत्कर्मों में प्रवृत्त होना ही होगा। अच्छे विचार रखने और अच्छे कर्म करने ही होंगे। 

            भाग्य - सौभाग्य - दुर्भाग्य के इस प्रतिपादन के साथ मन में एक प्रश्न यह भी उठता है कि संसार में ऐसे बहुत से लोग देखे जाते हैं जो कर्मों के नाम पर असत्कर्म करते हैं और भाग्य मे उनको सौभाग्य मिलता है। निःसंदेह यह एक विचित्र और भ्रम में डालने वाला संयोग है। अनीति, अन्याय और अनाचार का फल तो दुःख तथा दण्ड होना चाहिए। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि दुःख और दण्ड आहारी ही नहीं होते, उनका एक भोग मानसिक और आध्यात्मिक भी होता है, जो प्रायः ऊपर से दिखाई नहीं देता। हो सकता है कि जिन अनीतिवानों को हम बाहर से प्रसन्न और सुखी देख रहे हैं, उनके हृदय में शोक संतापों का दावानल जल रहा हो। उन्हे रेशमी गद्दों पर पड़े-पड़े चिन्ता और आशंकाओं से करवटें बदलनी पड़ती हों। यह सर्वथा सम्भव है कि उनकी अनीति उनकी आत्मा को दिन-प्रतिदिन नर्क के द्वार की ओर खींच रही हो। यह तो भुक्तभोगी ही जान सकता है, जो ऊपर से तो प्रसन्न और सुखी दिखता है और भीतर ही भीतर नर्क की यातना भोग रहा हो। 

            पापियों और दुष्टों को सुविधापूर्ण स्थिति में देखकर कर्मफलों के प्रतिफल में अविश्वास करने की भूल नहीं करनी चाहिए। यह सर्वथा असंभव है कि पाप कर्म करने पर भी कोई सुख-सौभाग्य का अधिकारी बन सकता है। कर्मों का फल किसी एक जन्म में ही नहीं होता। उनका मनुष्य के पूर्व जन्मों से भी सम्बन्ध होता है। जो वर्तमान में अशुभ कर्म करते हुए भी भाग्यवान दिखाई देता है, वह वास्तव में अपने पूर्व जन्मों के शुभ कर्मों का भोग कर रहा होता है और वर्तमान कुकर्मों द्वारा आगामी जीवन में दुर्भाग्य भोगने की भूमिका तैयार करता है। सौभाग्य-दुर्भाग्य मनुष्य के कर्मों का ही फल होता है। इस सत्य के प्रति भ्रम में नहीं आना चाहिए। यह एक अटल नियम है, इसमें परिवर्तन सम्भव नहीं। 

            भाग्य मनुष्य के कर्मों के आधार पर बनता है और कर्मों के लिए मनुष्य स्वतन्त्र है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, वह जिस प्रकार के शुभ और अशुभ कर्म करता चलेगा उसी के अनुसार उसका सौभाग्य-दुर्भाग्य भी बनता जाएगा। ईश्वर तो केवल भाग्य लिखने वाला लेखक मात्र है, भाग्य का निर्णायक नहीं। सौभाग्यवान बनने के लिए उसके अनुरूप कर्तव्य करने चाहिए। मनुष्य अपने सत्कर्मों के बल पर अपने भाग्य में सौभाग्य लिखने के लिए ईश्वर को विवश कर सकता है। सत्कर्म करिए, सौभाग्यशाली बनिए। दुष्कर्म करिए, और भाग्य को भयानक बना लीजिए। यह सब मनुष्य के अपने हाथ में होता है, इसका सम्बन्ध अन्य किसी दृश्य अथवा अदृश्य शक्ति व संयोग से नहीं है। भाग्य-निर्माण के लिए जिस कर्म-पथ का निर्माण करना होता है, वह मनुष्य को स्वयं बनाना होगा। परमात्मा ने मनुष्य को इतनी स्वाधीनता, क्षमता और शक्ति देकर ही इस कर्म-भूमि में भेजा है कि वह अपने लिए उपयोगी तथा अनुकूल परिस्थितियों का स्वयं सृजन कर सके, मनुष्य अन्य जीव-जन्तुओं की तरह इस विषय में न तो विवश है और न पराधीन। 

            अपना कर्तव्य पथ बनाने और उस पर चल कर लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को पूर्णतया आत्म-निर्भर ही होना पड़ता है। दूसरों पर निर्भर होकर वह अपने ध्येय की पूर्ति नहीं कर सकता। यदा-कदा किन्ही समस्याओं अथवा कामों में किन्ही दूसरों की सहायता तथा परामर्श तो लिया जा सकता है पर उन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। कोई बुद्धिमान और सज्जन व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर रास्ता तो बतला सकते हैं, लेकिन किसी के बदले रास्ता तय नहीं कर सकते। वह रास्ते स्वयं चल कर पूरा करना होगा। किसी के भरोसे पर उन्नति और प्रगति की आशा करना व्यर्थ है। 

            प्रशस्त कर्तव्य पथ का निर्माण स्वावलम्बन द्वारा ही हो सकता है। अपनी उन्नति और सफलता के लिए दूसरों का मुँह देखने वाले संसार में कुछ नहीं कर सकते। परावलम्बी व्यक्ति की वे सारी शक्तियाँ, क्षमताएं और विशेषताएं कुंठित हो जाती हैं, जिन्हे देकर परमात्मा ने उसे संसार में स्वतंत्र रूप से कर्म करने को भेजा है। परावलंबन से आत्म-हीनता का भाव बढ़ता है। परावलंबन से अपनी समस्याओं पर स्वयं विचार करने, उपयोगी निर्णय लेने और कठिनाइयों से टक्कर लेने का साहस नहीं रहता। परावलम्बी जहाँ अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, वहीं वह बहुधा अपनी कठिनाइयों और प्रतिकूलताओं का कारण भी दूसरों को मानता है। इसके विपरीत स्वावलम्बी व्यक्ति सदैव अपने बल, अपनी योग्यता और अपने प्रयत्नों में विश्वास करता है। वह आत्मविश्वास से उत्पन्न साहस के साथ आगे बढ़ता है, परिश्रम तथा पुरुषार्थपूर्वक अपना मार्ग प्रशस्त करता है और दृढ़तापूर्वक उस पर अग्रसर होता है। उसके मार्ग में जो कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ आती हैं उनका डटकर मुकाबला करता है और उन पर विजय पाता है। 

            पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बलबूते ही आगे बढ़ने पर विश्वास रखता है। अपनी परिस्थितियों का दोष किसी दूसरे को नहीं देता, वह उनका कारण अपनी कमियों अथवा असावधानियों को ही मानता है। वह जानता है कि यह संसार एक दर्पण की तरह है जिसमें अपना ही रूप दिखता है। इस जड़ तथा निरपेक्ष संसार में ऐसी शक्ति नहीं जो किसी के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियाँ निर्माण कर सके। मनुष्य अपने गुणों और दोषों के आधार पर अपनी भली-बुरी परिस्थितियाँ स्वयं बनाता है और उनमें उलझता- सुलझता रहता है। 

            स्वावलंबी व्यक्ति अपनी परिस्थितियों का उत्तरदायी स्वयं को मानता है। इस कारण वह उनके निवारण के लिए अपने अन्दर ही सुधार और विकास लाता है। अपनी इस नीति के कारण वह जल्द ही अपनी अवांछित परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर लेता है और आगे की ओर बढ़ चलता है। 

            मनुष्य को चाहिए कि वह भाग्य का निर्माता स्वयं अपने को माने। सौभाग्य के लिए सत्कर्म करे और कर्तव्य पथ पर जो भी बाधाएं अथवा कठिनाइयाँ आएं उन्हे स्वावलम्बी भावना से दूर करता हुआ बढ़ता जाए। स्वावलम्बी होने से ही सौभाग्य मिलता है। परमशिव परमेश्वर ने मनुष्य को सबसे योग्य और सर्व सक्षम बनाया है। वह अपना विकास किसी भी सीमा तक कर सकता है और उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकता है। इति शुभम । 

नारायण स्मृतिः 


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रविवार, 27 नवंबर 2022

ऋषि-मुनि-महर्षि-साधु-संत में अंतर





ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अन्तर होता है??

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है। आज से सैकड़ों साल पहले "ऋषि, मुनि, महर्षि, ब्रह्मर्षि" समाज के पथ-प्रदर्शक माने जाते थे। तब यही लोग अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य किया करते थे तथा समाज को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज के समय में भी हमें कई तीर्थ स्थलों, मन्दिरों, जंगलों और पहाड़ों में साधु-सन्त देखने को मिल जाते हैं। 

ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और सन्त में अंतर ---

ऋषि-मुनि :- ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋष' से है जिसका अर्थ 'देखना' या 'दर्शन शक्ति' होता है। ऋषि अर्थात 'दृष्टा'। भारतीय परम्परा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने अर्थात यथावत समझ पाने वाले को कहा जाता है। वे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये, उनके गूढ़ अर्थों को जाना एवं प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गये शब्दों को लिख कर प्रकट किया। इसीलिए कहा गया है - 

"ऋषयो मन्त्र द्रष्टार: न तू कर्तार;।"

अर्थात ऋषि तो मन्त्र के देखने वाले हैं। न कि बनाने वाले। बनाने वाला तो केवल एक परमात्मा ही है। मुनि वो है जो मनन करे। भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय, और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्छल बुद्धि वाले मुनि कहे जाते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण का रास्ता दिखते हैं। 

महर्षि-ब्रह्मर्षि :- ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुँचने वाले व्यक्ति को "महर्षि" कहा जाता है। महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परमात्मा को समर्पित होते हैं। इससे ऊपर की कोटि के ऋषियों को "ब्रह्मर्षि" कहा जाता है।  गुरू वशिष्ठ और विश्वमित्र "ब्रह्मर्षि" थे। 

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार हर व्यक्ति में तीन प्रकार के चक्षु होते हैं- "ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु एवं परम चक्षु"। जिस व्यक्ति का "ज्ञान चक्षु" जाग्रत हो जाता है, उसे "ऋषि" कहते हैं। जिस व्यक्ति का "दिव्य चक्षु" जाग्रत हो जाता है उसे "महर्षि" कहते हैं। जिस व्यक्ति का "परम चक्षु" जाग्रत हो जाता है उसे "ब्रह्मर्षि" कहते हैं। 

साधु:- साधु, संस्कृत का शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ "सज्जन व्यक्ति" है। ऐसा व्यक्ति जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर नामक 6 विकारों का त्याग कर देता। इन सब विकारों को त्याग करने वाले व्यक्ति को "साधु" की उपाधि दी जाती है। लघु सिद्धान्त कौमुदी में कहा : - "साधनोती परकार्यमिति साधु:" (जो दूसरों का कार्य कर देता है, वह साधु है)। अथवा वो जो साधना करे वो "साधु" कहा जाता है। साधु होने के लिए विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है। साधु (सन्यासी) का मूल उद्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए, धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु-सन्यासी गण साधना-तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते हैं और निज जीवन को त्याग-वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में लीन रहते हैं। 

सन्त : - मत्स्य पुराण के अनुसार "ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय: सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्योस्तातेन सन्त प्रचक्षते।। ब्राह्मण, ग्रन्थ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियाँ हैं। जिनके अंतःकरण में इनका और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वह सन्त कहलाते हैं। हिन्दू धर्म में सन्त उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी होता है। जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है वह "सन्त" कहलाता है। 


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सोमवार, 21 नवंबर 2022

रँगीले नेहरू




            आजादी और आधुनिक भारत के इतिहास की किताबें जवाहर लाल नेहरू के योगदान की बातों से भरी पड़ी हैं। इन्हे पढ़ें तो लगता है कि क्रांतिकारियों ने नहीं बल्कि गांधी-नेहरू ने आजादी की लड़ाई लड़ी और गांधी के बाद अगर किसी ने देश को आजादी दिलाई तो वो सिर्फ जवाहर लाल नेहरू ही थे। नेहरू की इसी विरासत को उनका परिवार आज भी भुना रहा है और तमाम भ्रष्टाचार और अनैतिक कामों के बावजूद राजनीति के केंद्र में बना हुआ है। 

            जवाहर लाल नेहरू और भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन की पत्नी एडविना के बीच रिश्तों की बातें जग जाहिर हैं। लेकिन इस रिश्ते में क्या-क्या हुआ ये कम लोग ही जानते हैं। ऊपरी तौर पर देखा जाए तो ये महज प्रेम-संबंध का मामला था। लेकिन नेहरू ने अपनी प्रेमिका लिए जिस तरह से सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल किया वो जानकार हैरानी होती है। उस दौर में पत्रकार रहे खुशवंत सिंह और कुलदीप नैय्यर ने इन घटनाओं का जिक्र किया है। 

            जवाहर लाल अपनी प्रेमिका एडविना को लगभग रोज चिट्ठी लिखा करते थे। इन चिट्ठियों को लन्दन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी एयर इण्डिया की हुआ करती थी। पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब "एक जिन्दगी काफी नहीं" में लिखा है कि "एयर इण्डिया के हवाई जहाज से नेहरू का गुलाब की खुशबू से भीगा खत लन्दन में भारत के हाई कमिश्नर को सौंपा जाता था। हाई कमिश्नर की जिम्मेदारी होती थी कि वे उस खत को एडविना माउण्टबेटन तक पहुंचाएं। एडविना का जवाबी प्रेम पत्र एयर इण्डिया के ही सरकारी विमान से दिल्ली पहुँचता था और एयर पोर्ट से उसे तीन मूर्ति भवन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी तब के बड़े अधिकारियों की होती थी। अगर कभी इन प्रेम पत्रों के आदान-प्रदान में देरी हो जाती थी तो नेहरू गुस्से में लाल हो जाते थे। यहाँ तक की किसी जरूरी सरकारी काम में व्यस्त होने के कारण भी देरी हो जाए तो नेहरू अफसरों को माफ नहीं करते थे।" सरकारी संसाधनों का अपने निजी काम के लिए इस्तेमाल करने की ये सबसे शर्मनाक मिसाल है। 

            पत्रकार खुशवंत सिंह ने भी जवाहर लाल नेहरू के "रँगीले स्वभाव" के बारे में कई जगहों पर लिखा है। खुशवंत 50 के दशक में लन्दन में भारतीय उच्चायोग में तैनात थे। उन्होंने बताया है कि "देर रात को नेहरू अचानक एडविना के घर पहुँच गए। इस बात की भनक लन्दन के पत्रकारों को लग गई। वो पत्रकार उसी वक्त एडविना के घर पहुँच गए। एक पत्रकार ने घर के अंदर बेडरूम में नेहरू और एडविना की कुछ अंतरंग तस्वीरें भी खींच लीं।" खुशवंत सिह का कहना था कि इस घटना के कारण नेहरू उन पर बहुत गुस्सा हुए। खुशवंत तब हाइकमीशन की तरफ से मीडिया को संभालने का काम करते थे, लिहाजा नेहरू को शक था कि खुशवंत सिंह ने ही मीडिया को बुलाकर उनके अवैध रिश्ते की पोल खुलवा दी। इस घटना का जिक्र एडविना माउण्टबेटन की बेटी पॉमेला हिक्स ने भी किया है। 

            आजादी के बाद जब देश की करोड़ों जनता बेहद गरीबी में जीवन बिता रही थी और देश तमाम चुनौतियों से गुजर रहा था, तब नेहरू का ज्यादातर वक्त एडविना से प्यार मोहब्बत की बातें करने में बीतता था। 21 फरवरी 1960 को जब एडविना का लन्दन में निधन हो गया तो नेहरू ने गेंदे के फूलों का गुलदस्ता भेजा। ये गुलदस्ता भारतीय नौसेना के जहाज "त्रिशूल" से भेजा गया था। ये वो दौर था जब चीन के साथ रिश्ते बिगड़ना शुरू हो गए थे। ऐसे वक्त में जब सेना को मजबूत करने की जरूरत थी, तब देश के प्रधानमंत्री नेहरू नौसेना के युद्धक जहाज का इस्तेमाल अपनी महबूबा को फूल भेजने में कर रहा था। 

            ऐसे थे भारत देश में बच्चों के चाचा के नाम से मशहूर जवाहर लाल नेहरू और उनकी रंगीन मिजाजी। 

शनिवार, 19 नवंबर 2022

रानी लक्ष्मी बाई




दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी। 

            यह कविता हम बचपन से सुनते और गुनगुनाते आ रहे हैं, इन पंक्तियों से हमे झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के शौर्य और अदम्य साहस का पता चलता है और हमारी रगों मे उत्साह-उमंग की लहर दौड़ जाती है। 

            रानी लक्ष्मी बाई मराठा शासित झांसी राज्य की महारानी थी। रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। रानी लक्ष्मी बाई उन महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार से लोहा लेकर उन्हे धूल चटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने महज 29 वर्ष की उम्र में ही अँग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया और रणभूमि में ब्रिटिश सरकार को अपनी वीरता का परिचय देते हुए अपने शौर्य को दर्शाया। 

            रानी लक्ष्मी बाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था। उन्हे लोग प्यार से मनु के नाम से भी पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताँबे तथा माँ का नाम भागीरथी बाई था। रानी लक्ष्मी बाई ने बचपन से ही शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र चलाना भी सीखा था, जिसमे तलवारबाजी में उन्हे महारत हासिल थी। 

            सन 1842 में मणिकर्णिका का विवाह झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ। विवाह के पश्चात उनका नाम लक्ष्मी बाई कर दिया गया। लोग उन्हे रानी लक्ष्मी बाई के नाम से जानने लगे। विवाह के बाद सन 1851 में रानी लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वह 4 माह ही जीवित रहा। इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई और राजा गंगाधर राव ने एक पुत्र को गोद लिया, जिसका नाम उन्होंने दामोदर राव रखा। पुत्र को खो देने के बाद राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। 21 नवंबर 1853 को रानी लक्ष्मी बाई ने अपने पति को खो दिया। राजा गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी राज्य की सारी जिम्मेदारी रानी लक्ष्मी बाई के ऊपर आ गई। 

            रानी लक्ष्मी बाई के शासन मे झांसी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बन कर उभरा। इसी दौरान रानी लक्ष्मी बाई ने झांसी राज्य मे एक मजबूत सेना का गठन किया। इस सेना में पुरुषों के अलावा कई महिलाएं भी शामिल थी। रानी लक्ष्मी बाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना का प्रमुख बनाया गया। रानी लक्ष्मी बाई की सेना में कई ऐसे महारथी थे जिनको युद्ध का काफी अनुभव था, इनमें दोस्त खान, रघुनाथ सिंह, लाला भाऊ बक्शी, मोती बाई, सुंदर - मुन्दर आदि कुछ महारथी थे। 

            10 मई 1857 को मेरठ में ब्रिटिश सेना मे भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह देश के कई राज्यों में बढ़ता चल गया। सन 1858 में सर ह्यू रोज़ के नेतृत्व में अँग्रेजों ने झांसी पर हमला कर दिया। झांसी की ओर से बहादुर सेनापति तात्या टोपे के नेतृत्व में 20000 सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना से डट कर मुकाबला किया। यह युद्ध 2 सप्ताह तक चला। अँग्रेजों ने किले की कई दीवारों को तोड़ दिया तथा किले में कई जगह कब्जा कर लिया, फिर अंग्रेज झांसी पर कब्जा करने में सफल हो गए। किसी तरह रानी लक्ष्मी बाई वहाँ से निकालने में सफल रहीं और वे कालपी पहुँच गईं। 

            अँग्रेजों ने सर ह्यू रोज़ के नेतृत्व में 22 नवंबर 1858 को कालपी पर आक्रमण किया। इस बार रानी लक्ष्मी बाई ने वीरता का परिचय देते हुए तथा पूरी रणनीति अपनाते हुए अँग्रेज सेना से लोहा लिया। अँग्रेज सेना को हार का मुँह देखना पड़ा और अँग्रेज सेना पीछे हट गई। सर ह्यू रोज़ ने दोबारा धोखे से कालपी पर हमला कर दिया, जिसमे रानी लक्ष्मी बाई को हार का सामना करना पड़ा। 

            युद्ध में परास्त होने के बाद रानी लक्ष्मी बाई ने अपने लक्ष्य को सफल बनाने के लिए ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी। कई मुख्य योद्धा नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे तथा बाँदा के नवाब के साथ मिलकर युद्ध किया और अँग्रेजों के गुलाम ग्वालियर के महाराजा को परास्त किया, तथा ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया। ग्वालियर के किले को संभालने के लिए अपने साथी पेशवा को सौंप दिया। 

            रानी लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र की कमान संभाली। उनकी सेना में पुरुषों के अलावा महिलाएं भी शामिल थीं। अँग्रेज रानी लक्ष्मी बाई को न पहचान सकें इस लिए रानी पुरुष की पोशाक में युद्ध करती थीं। इस युद्ध में रानी काफी घायल हुई, सर पर तलवार लगने के कारण वे अपने घोड़े से नीचे गिर गईं, अँग्रेज उन्हे नहीं पहचान पाए और उन्हे वहीं छोड़ दिया। जहाँ से उनके सैनिक उनका पार्थिव शरीर गंगादास मठ ले गए एवं अंतिम संस्कार किया। 

            यह थी वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई की वीरता की कहानी की छोटी सी झलक। 

महारानी लक्ष्मी बाई अमर रहें 

वन्दे मातरम 

भारत माता की जय 


गुरुवार, 17 नवंबर 2022

वीर सावरकर




            भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर नगर में हुआ था। सावरकर महान क्रांतिकारी, चिन्तक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता तो थे ही, एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढ़ंग से लिपिबद्ध किया। हिन्दू राष्ट्र की राजनैतिक विचार धारा "हिन्दुत्व" को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय भी सावरकर को जाता है। 

            क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिन्दुत्व के प्रणेता विनायक सावरकर का जन्म धार्मिक और राष्ट्रीय विचारों वाले दामोदर पंत सावरकर एवं राधाबाई के घर में हुआ था। उनके दो भाई गणेश (बाबाराव) एवं नारायण सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद 1889 में प्लेग की बीमारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला और अनेक कष्ट सहते हुए अपनी सहधर्मिणी के साथ मिलकर अपने छोटे भाई-बहनों का लालन पालन किया। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी मे बड़े भाई गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा असर पड़ा। 

            बचपन से ही मेधावी छात्र रहे विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और साथ ही अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली कुछ कविताएं भी लिखीं, जिन्हे सुनना और पढ़ना अपने आप में स्वर्गिक आनंद देता है। वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित हो उन्होंने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित कर के मित्र मेलों का आयोजन किया और शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित कर दी। 

            आर्थिक संकट के बावजूद बड़े भाई बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा का समर्थन किया और इस हेतु सहायता करने के सभी संभव प्रयत्न किये। इसी बीच सन 1901 में ही रामचन्द्र त्रयंबक चिपलूनकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ, जिसके बाद उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने पुणे के फर्गुयसन कालेज से बी० ए० किया, जहाँ पर भी वे युवकों में बलिदानी भावना जागृत करते रहे। 1904 में उन्होंने अभिनव भारत नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जला कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की। तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हे लन्दन में रह रहे क्रान्तिधर्मा श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति मिली। 

            लन्दन स्थित श्यामजी के इंडिया हाउस से जुड़ना सावरकर जी के जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ न केवल उन्हे समान विचारधारा वाले लोगों से मिलने का अवसर मिला बल्कि अपने विचारों के प्रकटीकरण का उचित मंच भी। 10 मई 1907 को श्यामजी ने इंडिया हाउस लन्दन में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई, जिस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातंत्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। ये अपने आप में बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि इसके पहले इतिहासकार इस घटना को ब्रिटिश नजरिये से देखकर गदर या सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते थे, परन्तु सावरकर ने भारतीय नजरिये से इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की उपमा दी। इसी के बाद इतिहासकारों में उस घटना को देखने की एक नयी दृष्टि उत्पन्न हुई, जिसका पूरा श्रेय सावरकर को जाता है। 

            मराठी भाषा में उनकी पुस्तक "द इण्डियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस : 1857," जून 1908 में तैयार हो गयी, परंतु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिए लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में कुछ उत्साही युवाओं ने इसका अँग्रेजी अनुवाद कर इसे गुप्त रूप से हालैण्ड से प्रकाशित कराया और फिर इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुंचाई गईं। भारतीय क्रांतिकारियों के लिए ये पुस्तक गीता के समान प्रेरणा देने वाली सिद्ध हुईं। इस पुस्तक की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित किये गये। हॉलैंड में प्रकाशित प्रथम संस्करण के बाद इसका द्वितीय संस्करण अमेरिका में गदर पार्टी के लाला हरदयाल ने, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह ने, और चतुर्थ संस्करण सुदूर पूर्व में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने प्रकाशित करवाया। देश की कई भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया और क्रान्ति पथ के राही इसे अपने प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार करने लगे। इस बीच मराठी भाषा में लिखी मूल प्रति पेरिस में मैडम भीखा जी कामा के पास सुरक्षित रही, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांस के हालात बिगड़ने पर अभिनव भारत के डॉक्टर कौतीन्हों को सौंप दिया। लगभग 40 वर्षों तक किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह रक्षा करने के बाद उन्होंने इसे रामलाल बाजपेयी और डॉक्टर मुंजे को सौंप दिया, जिनसे ये मूल प्रतिलिपि पुनः वीर सावरकर को प्राप्त हुई। 

            इसी बीच मई 1909 में सावरकर ने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परंतु उन्हे वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। उन्होंने अँग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी क्रान्ति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया, उन्ही की प्रेरणा से क्रान्तिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लॉर्ड करजन की हत्या करके भारतीयों के अपमान का प्रतिशोध ले लिया। सावरकर की गतिविधियों और लेखों से लन्दन भी काँप उठा और अन्ततः 13 मार्च 1910 को उन्हे लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया। 8 जुलाई 1910 को जब उन्हे लन्दन से बन्दी बना कर भारत लाया जा रहा था, उस समय वे सिपाहियों को चकमा देकर समुद्र में छलाँग लगा कर तैरते हुए फ्रांस के मारसेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़ कर मारसेलिस बन्दरगाह पर जा पहुँचे। उनके इस साहसिक कार्य से पूरा विश्व हिल गया था। जिसके कारण पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ। 

            सावरकर का समुद्र में छलाँग लगा कर मरसेलिस पँहुचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हे अवैध तरीके से पुनः हिरासत मे लेने के कारण विफल भले ही रहा हो पर उनकी इस छलाँग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआ और आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पड़ा था। पूरे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने इसे नापसन्द किया। सावरकर को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाये की माँग पूरे फ्रांस ही नही अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आँच पहुँची और फ्रांस में ब्रिटिश कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया, जिसका समर्थन विश्व के जाने-माने लोगों ने किया। अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पड़ा और सावरकर की फ्रांस की भूमि पर किये गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपने का करार करना पड़ा। 

            सावरकर पर मुकदमा चलाकर 24 दिसंबर 1910 को उन्हे आजीवन कारावास की सजा दी गई और इसके बाद 31 जनवरी 1911 को उन्हे दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। नासिक जिले के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए नासिक षडयन्त्र काण्ड के अंतर्गत इन्हे 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया, जहाँ कारावास में ही 21 वर्षों बाद सावरकर की मुलाकात अपने बड़े भाई से हुई, जब वे दोनों कोल्हू से तेल निकालने के बाद जमा कराने के लिए पहुँचे थे। अपार कष्ट सहते और अपने को तिल-तिल गलाते सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। 

            उसके बाद सावरकर ने स्वयं को हिन्दुत्व के लिए समर्पित कर दिया, उनको अनुभूति हो चुकी थी कि सशक्त हिन्दू के बिना सशक्त भारत नहीं बन सकता। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19 वें सत्र के अध्यक्ष चुने गए, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिए अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने हिंदुओं के सैनिकीकरण की वकालत की और इस हेतु घूम-घूम कर हिन्दुओं को सेना मे शामिल होने के लिए प्रेरित किया। जिसके सदपरिणाम बाद में सामने आए, जो उनकी दूरदृष्टि को सिद्ध करते हैं। उन्ही की सलाह पर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भारत से चुपचाप निकल कर विदेश चले गए और आजाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी। सावरकर ने भारत विभाजन का प्रबल विरोध किया और स्वतन्त्रता प्राप्ति पर कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है परंतु वह खण्डित है, जिसका बहुत दुःख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होती, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं। 

            5 फरवरी 1948 को उन पर गाँधी वध का आरोप लगा कर काँग्रेस सरकार ने प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया, जिससे उन्हे बाद में न्यायालय के माध्यम से मुक्ति मिली। मई 1952 में पुणे की एक विशाल सभा मे उन्होंने अपने अभिनव भारत नामक संगठन को उसके उद्येश्य (भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति) के पूर्ण होने पर भँग कर दिया। 

            अपनों की मृत्यु, देश की स्थिति और सरकारी उदासीनता ने उनके शरीर को तोड़ कर रख दिया था। उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा था। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी 1966 को बम्बई में प्रातः 10 बजे उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। 

            दुःखद है कि आज की पीढ़ी सावरकर को बिसरा चुकी है और हमारा सत्ता तंत्र इस महान सेनानी को लोगों की स्मृति में बनाए रखने में विफल रहा है। फिर भी कुछ प्रयास उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने की दिशा में किये गए है। उनकी स्मृति मे डाक टिकट जारी किया गया, संसद में उनका चित्र लगाया गया और पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डे का नाम सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया। 1966 में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म "सजा-ए-काला पानी" में सावरकर जी के बारे में वर्णन किया गया, जिसमें अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। 2001 में वेद राही और सुधीर फड़के ने "वीर सावरकर" नाम से एक बायोपिक चलचित्र बनाया। अपने निर्माण के कई वर्षों के बाद यह रिलीज़ हुई, जिसमें वीर सावरकर का चरित्र शैलेन्द्र गौड़ ने अभिनीत किया। 

            हमारा कर्तव्य है कि हम स्वतन्त्रता संग्राम के महान योद्धा विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य "वीर सावरकर" की स्मृति को अक्षुण रखें। उन्हे कोटी कोटी नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि। 


वन्दे मातरम 

भारत माता की जय 

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

शबरी के राम





            भोली शबरी राम के मुखारविंद को एकटक निहार रही थी। उसके जीवन भर की प्रतीक्षा का आज अंत हो चुका था। राम के दर्शन करके वो धन्य हो रही थी। राम उसके जूठे बेर बड़े चाव से खा रहे थे। उनके चेहरे पर तृप्ति और संतोष का भाव था।

            माता शबरी ने सकुचाते हुए राम से पूछ ही लिया -- "यदि रावण का वध नहीं करना होता तो तुम यहाँ कहाँ से आते?" सहसा राम के मुख पर गंभीरता के भाव प्रकट हुए। राम बोले - "भ्रम में न रहो माँ ! क्या राम सिर्फ रावण का वध करने आया है? अरे रावण को तो लक्ष्मण अपने पैरों से बाण चला कर मार सकता है। दूर अयोध्या से हजारों कोस चल कर इस गहन वन में भटकते हुए राम तो केवल तुमसे मिलने आया है माता। ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखंडी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला-चिल्ला कर उत्तर दे कि "इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।"

            जब कोई कपटी भारत की परंपराओं पर अँगुली उठाए तो काल उसका टेटवा दबा कर कहे " चुप रहो ! भारत की सभ्यता ही एकमात्र सभ्यता है जहाँ राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वन वासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार करता है। "

            "राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाये तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चलकर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है। राम वन में इसलिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएं अवश्य पूरी होती हैं।"

            शबरी एकटक राम के मुख से झलकते राष्टभिमान को निहार रही थी। 

            राम कहते रहे- "राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है। माता ! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के लिए, आदर्श की स्थापना के लिए, राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अन्त करना ही धर्म है। राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है पहले अपने देश में बैठी शत्रु समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषण जैसे देशद्रोहियों की कमर तोड़ी जा सके। राम आया है भावी पीढ़ियों को यह बताने कि रावणों से युद्ध केवल राजा और सेना की शक्ति से नहीं, बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से और वनवासियों के सहयोग से जीते जाते हैं।"

            शबरी की आँखों मे स्नेह और स्वाभिमान के आँसू छलक आए थे। उसने बात बदल कर कहा "कन्द खाओगे?" राम मुस्कुराए और बोले "बिना खाए जाऊँगा नहीं माँ।"

            शबरी कुटिया से झपोली में कन्द ले कर आई और राम के समक्ष रख दिए। राम और लक्ष्मण खाने लगे तो बोली "मीठे हैं न प्रभु?" राम ने हँसते हुए कहा "माँ के पास आकर खट्टे और मीठे का भेद भूल गया हूँ। यही अमृत है, बस इतना समझ रहा हूँ।" शबरी मुस्कुराई और बोली "गुरुदेव ने सही कहा था कि सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो राम।"


साभार - गौरव प्रधान 

शनिवार, 5 नवंबर 2022

महाराजा जामनगर दिग्विजय सिंह और पोलैंड का सम्बन्ध





            आपने पोलैंड का नाम सुना होगा। कुछ लोगों ने पोलैंड की यात्रा भी की होगी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पोलैंड की राजधानी वारसो में जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह के नाम पर एक चौक क्यों समर्पित किया गया? 

            ये कहानी भारत के वसुधैव कुटुंबकम की धारणा से जुड़ी है। बात दूसरे विश्व युद्ध की है। जब 1939 में जर्मनी और रूस की सेना ने पोलैंड पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध में अपने देश को बचाने के लिए पोलैंड के हजारों सैनिक मारे गये और उनके बच्चे अनाथ हो गये। 

            1941 तक ये बच्चे पोलैंड के शिविरों में रहते रहे, लेकिन इसके बाद रूस ने बच्चों को वहाँ से भगाना शुरू कर दिया। तब 600 से ज्यादा बच्चे अकेले या अपनी माँ के साथ एक नाव पर सवार होकर जान बचाने के लिये निकले थे। अनेक देशों से इन लोगों ने शरण माँगी पर सभी देशों ने शरण देने से इनकार कर दिया। तब भारत अंग्रेजों का गुलाम था और अंग्रेजों ने भी बच्चों को आश्रय देने से मना कर दिया। 

            दूसरे विश्वयुद्ध के समय पोलैंड पूरी तरह तबाह हो गया था। सिर्फ महिलाएं और बच्चे बचे थे बाकी वहाँ के सब पुरुष युद्ध में मारे गये थे। पोलैंड की स्त्रियों ने अपने बच्चों के साथ और कुछ बचे लोगों को साथ लेकर पोलैंड छोड़ दिया। काफी देशों में भटकने के बाद उनका जहाज भारत के गुजरात में स्थित जामनगर के तट पर रुका, तब वहाँ के राजा जाम दिग्विजय सिंह जडेजा ने उनकी दीन-हीन हालत देख कर उन्हे अपने राज्य में आश्रय दिया। केवल आश्रय ही नहीं दिया बल्कि उनके बच्चों को आर्मी की ट्रेनिग दी, उनको पढ़ाया-लिखाया। बाद में उन्हे हथियार देकर पोलैंड भेजा। जहाँ उन्होंने जामनगर में मिली आर्मी की ट्रेनिग से देश को पुनः आजाद कराया। 

            पोलैंड के निवासी महाराजा साहब जामनगर को अन्नदाता मानते है। पोलैंड के संविधान के अनुसार जाम दिग्विजय सिंह उनके लिए ईश्वर के समान है। इसीलिए उनको साक्षी मानकर आज भी वहाँ के नेता संसद में शपथ लेते हैं। पोलैंड मे यदि किसी भी नागरिक ने जाम दिग्विजय सिंह जी का अपमान किया तो सजा के तौर पर उसे तोप के मुँह पर बांध कर उड़ा दिया जाता है। आज भी पोलैंड जाम साहब के उस सुकर्म को नहीं भूला। 

            दुर्भाग्य से भारत देश मे ऐसे इतिहास को नहीं पढ़ाया गया। महाराजा जामनगर दिग्विजय सिह जी को अधिकांश भारतीय जानते ही नहीं होंगे। इन वामियों और कांगीयों ने ऐसे सारे इतिहास को छुपा दिया। परंतु अब समय आ गया है कि जब हम अपने इतिहास को सभी भारतीयों तक पहुंचाएं। 

वन्दे मातरम 

भारत माता की जय 


रविवार, 30 अक्टूबर 2022

जोधा-अकबर एक झूठी कहानी

             "जोधा-अकबर" एक झूठी कहानी है। सैकड़ों सालों से प्रचारित इस झूठ का खंडन समय-समय पर कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने किया है। पुरातत्व विभाग भी यही मानता है कि जोधा एक झूठ है, जिस झूठ को वामी इतिहासकारों और फिल्मी भाँड़ों ने मिलकर प्रचारित किया है।

            वामी इतिहासकार और फिल्मी भाँड़ जिसे "जोधा बाई" के नाम से प्रचारित करते है, असल मे वो राजा मान सिंह की परसियन ईरानी दासी "हरकू बाई" थी। यह बात "जयपुर रिकार्ड" में भी अंकित है। 

            वामी इतिहासकार कहते हैं कि कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया। परंतु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नहीं किया। अकबर कालीन इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ पाँच बेगमें बताई है --

1- सलीमा सुल्तान 

2- मरियम उद ज़मानी 

3- रज़िया बेगम 

4- कासिम बानो बेगम 

5- बीबी दौलत शाद 

            अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा "अकबरनामा" में भी किसी राजपूत रानी से अपने निकाह का कोई जिक्र नहीं किया। परंतु राजपूतों और हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए कुछ हिन्दू विरोधी इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं शताब्दी में "मरियम उद जमानी" को जोधा बाई बता कर झूठी अफवाह और मनगढ़ंत कहानी को फैलाया। इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए। जबकि अकबरनामा और जहाँगीर नामा में इसका कोई जिक्र नहीं था। 

            18 वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर, राजपूत बता कर, उसके मान सिंह की बेटी की झूठी पहचान को प्रचारित करना शुरू किया गया। फिर 18 वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टाड़ ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटीक्स आफ राजस्थान" में मरियम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई का कल्पित एवं झूठा नाम दिया गया। इस तरह से ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया कि आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन-जन कि जबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चुका है। 

            जोधा बाई और अकबर के इस झूठे विवाह प्रसंग से मन मे कुछ अनुत्तरित प्रश्न कौंधने लगते हैं --

            "आन, बान, और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिये पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं?"

            "हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती है? "

            अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' पुस्तक में जोधा बाई का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं मिलता। एक अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' जो जहाँगीर की आत्मकथा है उसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहाँगीर ने अपनी माँ जोधा बाई का एक बार भी जिक्र नहीं किया। कुछ स्थानों में हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। 

            अब जोधा बाई के बारे में सभी ऐतिहासिक दावे झूठ के पुलिंदे लग रहे हैं। कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आई कि "जोधा बाई" का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है। 

            इस खोजबीन में इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर एक नई और चौंकाने वाली बात सामने आई कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी। जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी। रुकमा की बेटी होने के कारण उसे 'रुकमा-बिट्टी' बुलाते थे। आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया। चूँकि हीर कुँवर का लालन-पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भाँति परिचित हो गई थी। 

            राजा भारमल उसे हीर कुँवरनी या कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बना कर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया। जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया। 

            चूँकि लालन-पालन राजभवन में होने के कारण राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था और सनातनी रिवाजों के साथ अकबर से विवाह करवाया, निकाह नहीं, इसलिए ऐतिहासिक ग्रंथों मे हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया। जबकि वह कच्छवाह राजकुमारी नहीं बल्कि दासी-पुत्री थी। राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो 'हल्दी-चन्दन किया था। 

            इस विवाह के विषय में कई अरबी इतिहासकारों ने अपना मत व्यक्त किया है, जिसका हिन्दी रूपांतर निम्नवत है -- 

            1-  (“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) 

            "हम यकीन नहीं करते, इस निकाह पर हमें सन्देह है। "

            2- इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है। 

            3- (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) 

            "'अकबर-ए-महूरियत' में साफ लिखा है कि हमें इस हिन्दू निकाह पर सन्देह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आँखों में आँसू नहीं थे और न ही हिन्दू गोद भराई की रस्म हुई थी।" 

            सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन देव जी और गुरू गोविंद सिंह जी ने इस विवाह के विषय में कहा कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनों का इस्तेमाल करना सीख लिया है, राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगे हैं। 

            17 वीं सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिए आए तब उन्होंने अपनी रचना "परसी तित्ता" में लिखा "यह भारतीय राजा एक परसियन वैशया को सही हरम में भेज रहा है। अतः हमारे देव ( अहुरा मझदा ) इस राजा को स्वर्ग दें। 

            भारतीय राजाओं के दरबार में राव और भाँट का विशेष स्थान होता था। वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे, उन्होंने साफ लिखा है --

            "गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले गयाली पसवान कुमारी, राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत।" (1563 AD)

            मतलब "आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है। हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत।" 

            ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझ कर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्येश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है। 


गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

देवराहा बाबा





            देवरहा बाबा एक ऐसे महान संत योगिराज थे जिनके चरणों में सिर रख कर आशीर्वाद पाने के लिए देश ही नहीं विदेशों के राष्ट्राध्यक्ष तक लालायित रहते थे। वह उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के रहने वाले थे। हालाँकि, मंगलवार 19 जून सन 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपने प्राण त्यागने वाले इन बाबा के जन्म की तिथि के बारे में बहुत संशय है। 

            उनकी उम्र के बारे में भी एक मत नहीं है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बाबा 900 वर्ष कि आयु तक जीवित रहे। बाबा के सम्पूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत हैं, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल तक मानते हैं। 

            देवरहा बाबा एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं संत पुरुष थे। डा. राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। देवरहा बाबा पूज्य महर्षि पातंजली द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे। 

            श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। कहते हैं कि प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे, जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी। श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है। 

            जनश्रुति के मुताबिक बाबा खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन में कहीं से कभी भी चले जाते थे। उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में काँटे नहीं होते थे। चारों तरफ सुगन्ध ही सुगन्ध होती थी। 

            लोगों मे विश्वास है कि बाबा जल पर चलते थे। अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी किसी सवारी का प्रयोग नहीं किया और न ही उन्हे कभी किसी सवारी से कहीं आते-जाते देखा गया। बाबा कुम्भ के समय प्रयागराज आते थे। 

            यमुना के किनारे वृंदावन में वे 30 मिनट तक पानी के भीतर बिना साँस लिए रहते थे। उनको जानवरों कि भाषा भी समझ में आती थी। लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई या कर रहा है।  कहते हैं कि वे अवतारी व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था। 

            उनकी कहानियों में कई चमत्कारिक पलों का भी वर्णन है, जैसे वह फ़ोटो कैमरे और टी वी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फ़ोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फ़ोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था। 

            हालाँकि, अपनी उम्र, कठिन तप, सिद्धियों चमत्कारों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी कोई दावा नहीं किया। लेकिन उनके इर्द-गिर्द ऐसे लोगों कि भीड़ भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजती देखी गई। अत्यंत सहज, सरल और सुलभ, देवरहा बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे। 

            कहते हैं कि भारत के पहले राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हे अपने बचपन में देखा था। देश-दुनिया के कई महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधु-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था। उनसे जुड़ी कई घटनाएं इन सिद्ध सन्त को मानवता, ज्ञान, तप और युग के लिए विख्यात बनाती हैं। 

            सन 1987 जून के महीने में वृंदावन में यमुना नदी के पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को बाबा के दर्शन करने आना था। उनके लिए बन रहे हेलीपैड के बीच मे एक बबूल के पेड़ की डाल रुकावट पैदा कर रही थी। आला अफसरों ने उस डाल को काटने के आदेश दे दिए। जिसकी सूचना देवरहा बाबा को मिली, सूचना मिलते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अधिकारी को अपने पास बुलाया और पूछा पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा ऐसा करना प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। बाबा बोले, "तुम यहाँ अपने प्रधानमंत्री को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, प्रधानमंत्री का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन उसका दण्ड तो बेचारे इस पेड़ को भुगतना पड़ेगा। वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो उसे मैं क्या जवाब दूंगा? नहीं! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा।" अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का आदेश है कि इस पेड़ कि एक टहनी काट दो, इसलिए इसकी टहनी को काटा ही जाएगा। मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए। बाबा ने कहा यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है। नहीं! यह पेड़ नहीं कटेगा। इस घटनाक्रम से अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी। आखिर बाबा ने ही उन्हे तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब प्रधानमंत्री का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे प्रधानमंत्री का कार्यक्रम मैं स्थगित करा देता हूँ। आश्चर्य कि दो घण्टे बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय से रेडियोग्राम आ गया कि कार्यक्रम स्थगित हो गया। कुछ हफ्तों बाद राजीव गाँधी वहाँ आए, लेकिन वह पेड़ नहीं कटा। अब इसे क्या कहेंगे, चमत्कार या संयोग? आप खुद तय कीजिए। 

            बाबा कि शरण में आने वालों में कई विशिष्ट लोग थे। उनके भक्तों में डा राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं। उनके पास लोग हठयोग सीखने भी आते थे। सुपात्र देखकर वे हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे। योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक, समाधि आदि पर वे गूढ़ विवेचन करते थे। कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हे बुलाया जाता था, वहाँ वे सम्बन्धित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते थे। 

            लोग यही सोचते थे कि बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया। ध्यान, प्राणायाम, समाधि की पद्धतियों के वे सिद्ध थे ही, धर्माचार्य, पण्डित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद भी करते थे। उन्होंने जीवन में लंबी-लंबी साधनाएं कीं। जन-कल्याण के लिए वृक्षों, वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य-जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहीर था। 

            कहते हैं कि देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इन्दिरा गांधी चुनाव हार गईं तब वो भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। बाबा ने अपने हाथ के पंजे से उन्हे आशीर्वाद दिया। वहाँ से वापस आने के बाद इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया। इसके बाद 1980 में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचण्ड बहुमत प्राप्त किया और इन्दिरा गांधी फ़िर से देश की प्रधान मंत्री बनी। 

            बाबा महान योगी और सिद्ध सन्त थे। उनके चमत्कार हजारों लोगों को झंकृत करते रहे। आशीर्वाद देने का उनका ढंग बड़ा निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख देते थे वो धन्य हो जाता था। पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे। उनके आश्रम में बबूल तो थे मगर काँटा विहीन थे। यही नहीं बबूल खुश्बू भी बिखेरते थे। उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था। बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे। कहते हैं कि उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। श्रीफल का रस उन्हे बहुत पसन्द था। देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण रखते थे। 

            बाबा कि ख्याति इतनी थी कि जार्ज पंचम जब भारत आए तो अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गाँव तक उनके आश्रम तक पहुँच गए। दरअसल, इंग्लैण्ड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इण्डिया के साधु-सन्त महान होते हैं। प्रिंस फ़िलिप ने जवाब दिया- हाँ, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन 1911 की बात है। 

            डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जब दो-तीन साल के थे तब अपने माता-पिता के साथ बाबा के यहाँ गए थे। बाबा उन्हे देखते ही बोल पड़े - यह बच्चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने एक पत्र लिख कर बाबा को कृतज्ञता प्रकट की। फिर सन 1954 के प्रयागराज कुम्भ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन किया। 

            देवरहा बाबा 30 मिनट तक पानी में बिना साँस लिए रह सकते थे, उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी, खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे। 

            उनके भक्त उन्हे दया का महासमुद्र बताते हैं, और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्त से लुटाई भी। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वर्षा जल की भाँति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा। मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवा है। 

             बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्य दृष्टि के साथ तेज नजर, कडक आवाज, दिल खोलकर हँसना, और खूब बतियाना, बाबा की आदत थी। याददाश्त इतनी तेज थी कि दशकों बाद मिले व्यक्ति को भी पहचान लेते थे और उसके दादा-परदादा तक का नाम बात देते थे। 

            देवरहा बाबा की बलिष्ठ कद-काठी थी, लेकिन देह त्यागने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकड़ी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहाँ नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। जल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन वाराणसी के रामनगर में गङ्गा के बीच, माघ में प्रयाग, फाल्गुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। 

            खुद कभी कुछ खाया नहीं, लेकिन भक्तगण जो कुछ भी लेकर पहुँचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना प्राप्त करने के लिए सैकड़ों लोगों की भीड़ हर जगह जुटती थी, और फिर अचानक 11 जून 1990 को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया। ऐसा लगा कि जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का मिजाज बदल गया। यमुना कि लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे। डाक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड़कर निकलने पर आमादा है। 

            19 तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी। आकाश में काले बादल छा गए। तेज आँधियाँ, और तूफान आ गए। यमुना जैसे समुद्र को मात करने को उतावली थी। लहरों की उछाल बाबा की मचान तक पहुँचने लगा, और इन्ही सबके बीच शाम को चार बजे बाबा का शरीर स्पंदन रहित हो गया। भक्तों की अपार भीड़ भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी। 

बाबा के भक्त आज भी उन्हे पूजते हैं। बाबा कि यशकीर्ति युगों-युगों तक जनमानस मे जीवित रहेगी।