मानव के दुखों का कारण मन की वृत्तियों पर व्यक्ति के नियन्त्रण का अभाव है। यह अभाव इस कारण है कि व्यक्ति के पास मन तो है पर "मनन" नहीं।
अगर मन व्यक्ति का दास हो जाये तो सजग व्यक्ति अच्छा-बुरा पहचान कर मन को अच्छाई मे लगा कर बुराई को रोक सकता है। तब उस व्यक्ति के पास शान्ति ही शान्ति रहेगी।
आज के भौतिकतावादी समाज में आगे बढने की होड में मनुष्य मन को ही अपना विवेक, ग्यान, समझदारी आदि सौंप कर स्वयं उसका गुलाम बना बैठा है। जब कि मन उसका है, उसे स्वामी बन कर मन को अपनी कुशलता एवं आवश्यकतानुसार चलाना चाहिये।
मन का सकारात्मक दिशा में प्रयोग जहाँ एक ओर परम सत्य का अनुरागी बना देता है वहीं दूसरी ओर मन का नकारात्मक प्रयोग क्लेश, दुख और अशान्ति के द्वार खोल देता है।
वर्तमान समय में मानव के दुख, रुदन, अवसाद आदि का मूल कारण मन की विभ्रान्त स्थिति ही है, जो मन को भटकाये रहती है। भटकते रहने वाला मन कभी भी संसार के वास्तविक स्वरूप का आंकलन नही करने देता। इस संसार के स्वरूप के सत्य ग्यान का अभाव मानव अस्तित्व को ही संकट मे डाले रहता है। इस कारण ग्यान-चक्षुओं को बन्द किये हुए मानव पैसे को ही सब-कुछ मानकर स्वयं पैसा बन कर रह गया है।
मन बहुत चंचल है। इतना चंचल कि कोई अगर चाहे कि पकड कर इसे रोक ले तो यह असंभव है। जितना इसे रोकना चाहेंगें उतना ही तेजी से ये भागेगा। मन की यह तेजी बताती है कि इसमे अपार शक्ति है। यह क्षण भर में संसार के पार दूसरे लोक में पहुँच सकता है तथा पल भर में ही फ़िर अपनी पसन्द की क्रीडा में लग सकता है।
यदि हम चाहें तो अपने दृढ संकल्प के बल पर मन को युक्तिपूर्वक एक स्थान पर रोक कर अनन्त शक्ति के धनी बन सकते हैं। यह कार्य कठिन नही, सिर्फ़ सार्थक प्रयास की आवश्यकता है।
आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत - अमर शहीद मंगल पाण्डेय - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर दर्शन.....
जवाब देंहटाएंआभार
अनु
लाजवाब !!!
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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