आस्तिकता से संपूर्ण जीवों के प्रति अपनत्व, उनके सुख-दुख के प्रति सहानुभूति एवं सेवा करने के प्रति सहज प्रेरणा प्राप्त होती है।
सामान्य समझ वाला व्यक्ति इतना ही जानता है कि " यदि कोई पूजा-पाठ करता है, भगवान के गुणगान करता है, मन्दिर जाता है एवं ईश्वर की सत्ता मे विश्वास भी करता है तो वह आस्तिक है।" परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है।
आस्तिकता कोई अवस्था नही, वह एक ऐसी सतत अनुभूति है जिसमें व्यक्ति स्वयं अपने और ईश्वर को तथा ईश्वर और उसी के अंश सभी जीवधारियों को एक ही जानता है। उन्हे अपना सगा मानकर उनसे प्रेम करता है। उनके सुख से सुखी और संतुष्ट होता है तथा उनके दुख से दुखी होकर उनके दुख को दूर करने के लिये अपनो के समान सदैव तत्पर रहता है।
आस्तिक व्यक्ति उनमें से किसी का अनावश्यक रूप से अपने सुख के लिये प्रयोग नही करता। जड-चेतन सभी में ईश्वर रूप देखता है। ईश्वर सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता का अस्तित्व स्वीकार नही करता। इस प्रकार का सहज व्यक्ति आत्म एवं विश्व कल्याण की भावना से भरा रहता है। इसलिये आसुरी प्रकृतियाँ उससे दूर ही रहती हैं। क्रोध, लोभ, मोह उसे विचलित नही कर पाते।
परन्तु आज क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार एवं अंधकार से ग्रस्त व्यक्ति सुख-दुख एवं स्वहित से इतना अधिक ग्रस्त है कि अपने जीवनदाता तथा उसके कल्याण भाव का सर्वथा विस्मरण कर कुछ निरापद औपचारिक क्रियाएँ अपनाकर अपनी ईशभक्ति के प्रति सन्तुष्ट बना रहता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम आस्तिकता का मूल भाव समझ कर उस भाव का अनुकरण अपने जीवन और दैनिक-चर्या में करें।
बहुत ही सच्ची बात कही आपने..आस्तिकता कोई अवस्था नहीं हैं..बहुत ही सुंदर ढंग से आपने इसके मूल भाव को हम तक पहुँचाया हैं...!!
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