शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011
1971 भारत-पाक युध्द
सोमवार, 12 दिसंबर 2011
शुभकामनाएं मध्य रात्रि में क्यों नहीं देंनी चाहिए ?
गुरुवार, 1 दिसंबर 2011
शहीद शालिग्राम शुक्ल
सोमवार, 12 सितंबर 2011
डा. राधाकृष्णन
'दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है और धर्म का अंतिम लक्ष्य सत्य का अनुभव है।' यह विचार भारत के पूर्व राष्ट्रपति, निष्काम योगी डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हैं।
रत्नगर्भा भारतवर्ष में आदर्श गुरुओं की सुदीर्घ परंपरा रही है। गुरुओं की इसी आदर्श परंपरा में आधुनिक युग में एक महामानव का आविर्भाव हुआ, जिन्हें संसार सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन के नाम से जानता है।
वे भारतीय सामाजिक संस्कृति से ओत-प्रोत आस्थावान हिंदू थे। इसके साथ ही अन्य समस्त धर्मावलंबियों के प्रति भी गहरा आदर भाव रखेते थे। जो लोग उनसे वैचारिक मतभेद रखते थे, उनकी बात भी वे बड़े सम्मान एवं धैर्य के साथ सुनते थे। विश्व में उन्हें हिंदुत्व के परम विद्वान के रूप में जाना जाता था।
डा. राधाकृष्णन भाषण कला के आचार्य थे। विश्व के विभिन्न देशों में भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन पर भाषण देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाता था। श्रोता उनके भाषण से मंत्रमुग्ध हो कर रह जाते थे। डा. राधाकृष्णन में विचारों, कल्पना तथा भाषा द्वारा विचित्र ताना-बाना बुनने की अद्भुत क्षमता थी। वस्तुत: उनके प्रवचनों की वास्तविक महत्ता उनके अंतर में निवास करती थी। उनकी यही आध्यात्मिक शक्ति सबको प्रभावित करती थी, अपनी ओर आकर्षित करती थी और संकुचित क्षेत्र से उठाकर उन्मुक्त वातावरण में ले जाती थी।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने का कहना था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-भेद नहीं करती। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अहंकारी जीवन से बेहतर है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सक्षम थे। वे ईसाई मिशनरियों द्वारा की गई भारतीय संस्कृति की आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखते और उसका उचित उत्तर देते थे। डा. राधाकृष्णन का कहना था कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। डॉ. राधाकृष्णन अपने भाषणों मे कहते थे कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। डा. राधाकृष्णन ने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को पूरे विश्व में उच्च स्थान पर स्थापित किया।
डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा कि ‘मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। सब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो्ना चाहिये। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर रहते हुए भी वह शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देते रहे। उनका कहना था कि यदि शिक्षा सही प्रकार से दी जाए तो समाज से अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।
डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे। विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं ही चाय देते थे और साथी की भाँति उन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते थे। राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका मानना था कि जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी न हो तो अध्यापन का कार्य अधिक श्रेष्ठ हो जाता है।
अपने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशन द्वारा सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इन्हें 1922 में 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सटियों के सम्मेलन में कलकत्ता यूनिवर्सटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएँ भी कीं। इनका सभी स्थानों पर शानदार स्वागत किया गया। इन्हें आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों के द्वारा सम्मानित भी किया गया। डॉक्टर राधाकृष्णन को यूरोप एवं अमेरिका के प्रवास के प्रत्येक क्षणों की स्मृति थी। इंग्लैण्ड के समाचारों पत्रों ने इनके वक्तव्यों की आदर के साथ प्रशंसा की। उनकी टिप्पणियों से प्रकट होता था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ऐसी प्रतिभा हैं जो न केवल भारत के दर्शन शास्त्र की व्याख्या कर सकता है बल्कि पश्चिम का दर्शन शास्त्र भी उनकी प्रतिभा के दायरे में आ जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। उनके इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे।
1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। कांग्रेस के अधिकांश सदस्यों को आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। बाद में उनका यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितंबर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा। राष्ट्रपति बनने के बाद कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गए और उन्होंने निवेदन किया था कि वे उनका जन्मदिन 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाना चाहते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा, 'मेरा जन्मदिन 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने के आपके निश्चय से मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।' तभी से 5 सितंबर देश भर में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। सन 1962 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 13 मई, 1962 को 31 तोपों की सलामी के साथ राष्ट्रपति के पद की शपथ ली।
बर्टेड रसेल जो विश्व के जाने-माने दार्शनिक थे, वह राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर अपनी प्रतिक्रिया को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा था – यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक होने के नाते मैं विशेषत: खुश हूँ। प्लेटो ने कहा था कि दार्शनिकों को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रृद्धांजली अर्पित की है।
राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की भाँति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंने सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद वह ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, इंग्लैण्ड, अमेरिका, नेपाल, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया तथा आयरलैण्ड गए। वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन 'व्हाइट हाउस' में हेलीकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुँचे थे। इससे पूर्व विश्व का कोई भी व्यक्ति व्हाइट हाउस में हेलीकॉप्टर द्वारा नहीं पहुँचा था।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की तुलना में राधाकृष्णन का कार्यकाल काफ़ी कठिनाइयों से भरा था। इनके कार्यकाल में जहाँ चीन और पाकिस्तान से युद्ध हुए, वहीं पर दो प्रधानमंत्रियों की पद पर रहते हुए मृत्यु भी हुई। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तो भारत की अपमानजनक पराजय हुई थी। उस समय वी. के. कृष्णामेनन भारत के रक्षामंत्री थे। तब पंडित नेहरू को डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ही मजबूर किया था कि कृष्णामेनन से इस्तीफ़ा तलब करें, जबकि नेहरू जी ऐसा नहीं चाहते थे।
चीन के साथ युद्ध में पराजित होने के बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन पंडित नेहरू की भी आलोचना की थी। बेशक वह पंडित नेहरू के काफ़ी निकट थे, लेकिन उन्होंने आलोचना के स्थान पर आलोचना की और मार्गदर्शन की आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन भी किया। यह राधाकृष्णन ही थे जिन्होंने पंडित नेहरू को मजबूर किया था कि वह लालबहादुर शास्त्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करें। उस समय कामराज योजना के अंतर्गत शास्त्री जी बिना विभाग के मंत्री थे। पंडित नेहरू के गम्भीर रूप से बीमार रहने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय शास्त्रीजी के परामर्श से ही चलता था।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कार्यकाल में ही पंडित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नये प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया। जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए।
1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने देश को सम्बोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यद्यपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफ़ी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति का दायित्व ग्रहण करें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर पूरी तरह से अमल किया।
डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल पूर्ण करने के बाद गृहराज्य के शहर मद्रास चले गए। वहाँ उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। 1968 में उन्हें भारतीय विद्या भवन के द्वारा सर्वश्रेष्ठ सम्मान देते हुए साहित्य अकादमी की सदस्यता प्रदान की गई। डॉक्टर राधाकृष्णन ने एक साधारण भारतीय इंसान की तरह अपना जीवन गुज़ारा था। वह परम्परागत वेशभूषा में रहते थे। वह सफ़ेद वस्त्र धारण करते थे। वह सिर पर दक्षिण भारतीय पगड़ी पहनते थे, जो कि भारतीय संस्कृति का प्रतीक बनकर सारे विश्व में जानी गई। राधाकृष्णन साधारण शाकाहारी भोजन करते थे। उन्होंने एक लेखक के रूप में 150 से अधिक रचनाएँ लिखीं।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
डॉ. राधाकृष्णन के द्वारा अपने देश भारत के लिये किया गया अमूल्य योगदान हमेशा याद किया जायेगा।
वन्दे मातरम............................
भारत माता की जय..................
सोमवार, 15 अगस्त 2011
राष्ट्रगान ?
स्वजनों,
हम स्वतन्त्र देश भारत के नागरिक हैं परन्तु आज भी परतंत्रता, गुलामी की मानसिकता से भरे हैं, तभी तो हम आज भी अपने राष्ट्रीय पर्वों पर ब्रिटिश शासन के गुणगान करने वाले गीत “जन गण मन” को बड़ी शान से गाते हैं ।
कुछ तत्थ्य आपके सामने रख रहा हूँ.........
भारतीय जनमानस ब्रिटिश शासन के खिलाफ था । देश की आजादी के लिये क्रांतिवीर कदम-कदम पर ब्रिटिश शासन को चुनौती दे रहे थे । ब्रिटिश शासन हिल चुका था, घबडा गया था । सन 1905 में बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन में पूरे देश का जनामानस अंग्रेजों के विरोध में उठ खडा हुआ । उस वक्त तक भारत की राजधानी बंगाल का प्रसिद्ध नगर कलकत्ता थी । अंग्रेजों ने अपनी जान बचाने के लिए 1911 में कलकत्ता को राजधानी न रखकर दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया । पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे । अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि भारत के लोगों का ध्यान बाटे और विद्रोह शांत हो जाये ।
इंग्लैंड में उस समय शासन कर रहे किंग जार्ज पंचम ने 1911 में भारत का दौरा किया । अंग्रेजो ने अपने किंग जार्ज को खुश करने के लिये एक स्वागत गीत लिखने के लिये रवीन्द्र नाथ टैगोर पर दबाव डाला । रवीन्द्र नाथ टैगोर का परिवार अंग्रेजों के प्रगाढ़ मित्रों में गिना जाता था । रवीन्द्र नाथ टैगोर के परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे । उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहे । रवीन्द्र नाथ टैगोर के परिवारिक सदस्यों ने अपना बहुत सा पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा रखा था । रवीन्द्र नाथ टैगोर भी अंग्रेजो के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे ।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अंग्रेजों के बहुत दबाव और अपनी अंग्रेजों के प्रति सहानुभूति के कारण एक गीत “जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता" लिखा । इस गीत की सभी पंक्तियों और शब्दों में किंग जार्ज का ही गुणगान है । इस गीत के भावार्थ को निष्पक्ष हो कर समझने पर ही पता लगेगा कि यह गीत वास्तव में अंग्रेजो और किंग जार्ज पंचम के गुणगान करने के लिये लिखा गया था । इस गीत के भावार्थ को समझने पर ही हम जान सकेगे कि यह गीत अंग्रेजों की चाटुकारिता के लिये था |
जन गण मन अधिनायक जय हे ,
भारत भाग्य विधाता ,
पंजाब, सिन्धु , गुजरात , मराठा , द्राविड , उत्कल बंग ,
विन्ध्य हिमाँचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मांगे
गाए सब जय गाथा
जन गन मंगल दायक जय हे ,
भारत भाग्य विधाता ,
जय हे जय हे जय हे ,
जय जय जय जय हे .
रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा रचित इस गीत का अर्थ कुछ इस प्रकार से है ......
"भारत के नागरिक, भारत की जनता आपको ह्रदय से भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है । हे अधिनायक (Superhero) तुम ही भारत के भाग्य विधाता हो । तुम्हारी जय हो! जय हो! जय हो! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त, पंजाब, सिंध, गुजरात, महाराष्ट्र (मराठा), दक्षिण भारत (द्रविड़), उड़ीसा (उत्कल), बंगाल (बंग) आदि तथा भारत के पर्वत विन्ध्याचल और हिमालय एवं भारत की नदियाँ यमुना और गंगा सभी हर्षित है, खुश है, प्रसन्न है । प्रातःकाल जागने पर हम तुम्हारा ही ध्यान करते है और तुम्हारा ही आशीष चाहते है । तुम्हारी ही यश गाथा हम हमेशा गाते है । हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो-किंग जार्ज ) तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो । "
किंग जार्ज पंचम जब भारत आये तब ये गीत उनके स्वागत में गाया गया । किंग जार्ज जब इंग्लैंड वापस गये तब उन्होंने इस गीत “जन गण मन” का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया । अंग्रेजी अनुवाद जब किंग जार्ज ने सुना तो कहा कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की । किंग जार्ज बहुत खुश हुआ । उसने आदेश दिया कि जिस व्यक्ति ने ये गीत उनके सम्मान में लिखा है उसे इंग्लैंड बुलाया जाये । रवीन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए । किंग जार्ज उस समय नोबल पुरस्कार समिति के अध्यक्ष भी थे । उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया । जब रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस नोबल पुरस्कार के विषय में पता चला तो उन्होंने इसे लेने से इन्कार कर दिया । (इस इन्कार का कारण था भारत में इस गीत के लिखे जाने पर भारत की जनता द्वारा रवीन्द्र नाथ टैगोर की भर्त्सना और गाँधी जी के द्वारा रवीन्द्र नाथ टैगोर को मिली फटकार) । रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किंग जार्ज से कहा की आप यदि मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मेरे द्वारा रचित पुस्तक गीतांजलि पर दें लेकिन इस गीत के नाम पर न दें और साथ ही यही प्रचारित भी करें क़ि मुझे नोबेल पुरस्कार मेरी गीतांजलि नामक पुस्तक पर मिला है । किंग जार्ज ने रवीन्द्र नाथ टैगोर की बात मान कर उन्हें सन 1913 में उनकी गीतांजलि नामक पुस्तक पर नोबल पुरस्कार दे दिया ।
रवीन्द्र नाथ टैगोर की अंग्रेजों से मित्रता और सहानुभूति सन 1919 तक कायम रही पर जब जलिया वाला हत्या कांड हुआ तब गाँधी जी ने रवीन्द्र नाथ टैगोर को फटकारते हुए एक पत्र लिखा, उसमे गाँधी जी ने कहा क़ि इतने जघन्य नरसंहार के बाद भी तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरा, कब खुलेगी तुम्हारी आँखे, तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए ? बाद में गाँधी जी स्वयं रवीन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और उनको बहुत फटकारा उन्होंने कहा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अन्ध भक्ति में डूबे हुए हो ? कब तक ऐसे ही डूबे रहोगे, कब तक ऐसे ही चाटुकारिता करते रहोगे ? तब जाकर रवीन्द्र नाथ टैगोर की आँखे खुली और उन्होंने इस हत्या काण्ड का विरोध किया और अपना नोबल पुरस्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया ।
यहाँ एक बात और महत्वपूर्ण है कि सन 1919 से पहले जितना कुछ भी रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वह सब अंग्रेजी सरकार के पक्ष में लिखा और 1919 के बाद उनके लेख कुछ-कुछ अंग्रेजो के खिलाफ होने लगे । रवीन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और ICS ऑफिसर थे । अपने बहनोई को उन्होंने 1919 में एक पत्र लिखा, इसमें उन्होंने लिखा कि ये 'जन गण मन' नामक गीत अंग्रेजो ने मुझ पर दबाव डाल कर जबरदस्ती लिखवाया है । इसके शब्दों का अर्थ भारतीय जनमानस को ठेस पहुंचाने वाला है । भविष्य में इस गीत को न गाया जाये वही अच्छा है । लेकिन अंत में उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि इस पत्र को अभी किसी को न दिखाए क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ परन्तु मेरी मृत्यु के उपरांत इस पत्र को अवश्य सार्वजनिक कर दें ।
7 अगस्त 1941 को रवीन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने सार्वजनिक किया, और सारे देश को ये कहा क़ि इस जन गन मन गीत को न गाया जाये ।
1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी । लेकिन वह दो खेमो में बंटी हुई थी । जिसमे एक खेमे के नेता थे बाल गंगाधर तिलक थे और दूसरे खेमे के मोती लाल नेहरु । मतभेद था सरकार बनाने को लेकर । मोती लाल नेहरु चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजो के साथ मिलकर संयुक्त सरकार (Coalition Government) बनायें । जबकि बाल गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है । इस मतभेद के कारण लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और मोती लाल नेहरु अलग-अलग हो गये और कांग्रेस दो खेमों में बंट गई, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक गरम दल के नेता कहलाने लगे उनके साथ सभी क्रांतिकारी विचारधारा के लोग थे तथा मोती लाल नेहरु नरम दल के नेता कहलाने लगे, उनके साथ वही लोग थे जो अंग्रेजो की दया-कृपा पर निर्भर थे । यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि गांधी जी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो सामाजिक परिदृश्य में किसी तरफ नहीं थे, परन्तु मानसिक और हृदयात्मक लगाव मोती लाल नेहरु से था, यह बात अलग है कि गाँधी जी का दोनों पक्ष बहुत सम्मान करते थे ।
कांग्रेस के नरम दल के समर्थक अंग्रेजो के साथ रहते थे । उनके साथ रहना, उनकी खुशामद करना, उनकी बैठकों में शामिल होना, वे हर समय अंग्रेजो के दबाव में रहते थे । अंग्रेजों को वन्देमातरम से बहुत चिढ होती थी । नरम दल के समर्थक अंग्रेजों को खुश करने के लिये रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा रचित "जन गण मन" गाया करते थे और गरम दल वाले अंग्रेजों और नरम दल के समर्थकों को मुंहतोड जवाब देने के लिये बकिंम चन्द्र चैटर्जी द्वारा रचित "वन्दे मातरम" गाया करते थे ।
नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को वन्देमातरम गीत पसंद नहीं था । अंग्रेजों के कहने पर नरम दल के समर्थकों ने कहना शुरू कर दिया कि मुसलमानों को वन्देमातरम नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें मूर्ति पूजा करने को कहा गया है । उस समय तक मुस्लिम लीग भी अस्तित्व में आ चुकी थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे । मोहम्मद अली जिन्ना ने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया । मोहम्मद अली जिन्ना अंग्रेजों के इशारों पर चलने वालो में गिने जाते थे, उन्होंने भी अंग्रेजों के इशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्दे मातरम गाने से मना कर दिया ।
सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा में राष्ट्र गान के मुद्दे पर लम्बी बहस हुई । संविधान सभा के 319 सांसदों (इसमे मुस्लिम सांसद भी थे) में से 318 सांसदों ने बंकिम चन्द्र चैटर्जी द्वारा लिखित वन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने पर अपनी सहमति जताई । बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना जिनका नाम पंडित जवाहर लाल नेहरु था । जवाहर लाल नेहरु का तर्क था कि वन्दे मातरम गीत से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है इसलिए इसे नहीं गाना चाहिए । जब कि वास्तविकता यह थी कि वन्देमातरम गीत से मुसलमानों को उसवक्त तक कोई आपत्ति नहीं थी बल्कि मुसलमानों ने तो इसे राष्ट्र गान बनाने के पक्ष में संविधान सभा में मतदान किया था । वंदे मातरम गीत से अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचती थी । अंग्रेजों का जवाहर लाल नेहरू पर इस गीत को राष्ट्र गान न रखने का दबाव बढता जा रहा था । अंग्रेजों की सलाह पर जवाहर लाल नेहरू इस मसले को गाँधी जी के पास ले गये क्योंकि जवाहर लाल नेहरू ये जानते थे कि गाँधी जी उनकी बात का विरोध नहीं करेगे और यदि करेगे भी तो अंतिम फैसला उन्ही (जवाहर लाल नेहरू) के हक में ही देगे ।
गाँधी जी भी जन गन मन राष्ट्र गान बनाने के पक्ष में नहीं थे । पर जवाहर लाला नेहरू पर अगाध प्रेम के कारण उन्होंने नेहरू से कहा कि मै जन गण मन को राष्ट्र गान नहीं बनाना चाहत और तुम वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये । गाँधी जी ने तीसरे विकल्प में झंडा गान "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा" (रचइता श्याम लाल गुप्त “पार्षद”) को रखा । लेकिन नेहरु उस पर भी तैयार नहीं हुए । नेहरु का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन गन मन ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है ।
गाँधी जी के राजी न होने के कारण नेहरु ने इस मुद्दे को टाल दिया परन्तु गाँधी जी की मृत्यु के बाद नेहरु ने जन गण मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गया । भारत का जनमानस नाराज न हो इसलिए वन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बना दिया गया वह भी वन्देमातरम गीत के पहले छंद को पूरे गीत को नहीं । लेकिन कभी इसे किसी भी राष्ट्रीय पर्व पर गया नहीं गया । नेहरु कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे कि उनके आका अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे । जन गण मन को इस लिए तरजीह दी गयी क्योंकि वो अंग्रेजों की भक्ति में गाया गया गीत था और वन्देमातरम इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था ।
बीबीसी ने उस वक्त एक सर्वे किया, उसने पूरे संसार में जितने भी भारतीय मूल के लोग रहते थे, उनसे पूछा कि आपको दोनों में से कौन सा गीत भारतीय राष्ट्रगान के रूप में ज्यादा पसंद है तो 99 % लोगों का कथन था कि मुझे वन्देमातरम गीत भारतीय राष्ट्रगान के रूप में ज्यादा पसंद है । बीबीसी के इस सर्वे से एक बात और साफ़ होती है कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय गीतों में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम था । कई देश है जिनके लोगों को इसके बोल समझ में नहीं आते है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय है उससे एक जज्बा पैदा होता है ।
यह है इतिहास वन्दे मातरम का और जन गण मन को राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान बनाए जाने का । अब ये हम भारतीयों को तय करना है कि हमको क्या गाना चाहिये, और किसे अपनाना चाहिये ।
वन्देमातरम.................................
भारत माता की जय.....................
शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011
प्रीति का जन्म स्थान मष्तिष्क है या हृदय....?
पर मेरी पिपासा अभी शान्त नही हुई है...
//और दूसरे लोग वह हैं....जो बुद्धिवाद के व्यापारिक मानदण्ड के पीछे ना भाग कर हृदय एवं भावना के द्वारा जिनके समग्र व्यक्तित्व का संचालन होता है ।//
.... क्या ये दूसरे प्रकार के व्यक्ति बिना अपने मष्तिष्क का प्रयोग किये भगवत आराधन को अपना सुमार्ग बना सकते है...?
आन्तरिक शांति, प्रसन्नता और परमात्मा से सामीप्य प्राप्त करने के लिये जबतक बुध्दि या मष्तिष्क हृदय को प्रेरित नही करेगा तब तक क्या हृदय इस कार्य की दिशा मे अग्रसित होगा...?
महाराज भर्तहरि का जीवन वृतान्त यहां पर उल्लेखित करना चाहता हूं... वे भी राजसी वैभव तभी छोड सके थे जब उनके हृदय मे बाह्य आघात हुआ.. तब उनकी बुध्दि या मष्तिष्क यह सोचने को मजबूर हुआ कि यह बाह्य आकर्षण मित्थ्या है आन्तरिक आनन्द परम सत्ता का अनुसरण ही है... उनको भी परम सत्ता से प्रीति करने को मष्तिष्क ने ही प्रेरित किया....
क्या भाव शून्य हृदय कभी सदमार्ग या ईश्वर भक्ति की ओर बढ सकता है.. कभी नही... और यह भाव मनुष्य का मष्तिष्क ही बनाता है....
मेरा अपना यह मानना है कि मष्तिष्क और हृदय दोनो एक दूसरे के पूरक है... दोनो ही एक दूसरे की सहायता करते है.. सदबुध्दि या परिष्कृत मष्तिष्क और हृदय दोनो का सामजस्य ही भगवत प्रीति या अन्य किसी सुप्रीति को प्रेरित करता है...
....सादर
बल्कि सच तो यह है कि ज्ञान और वैराग्य ये दोनों भक्ति (प्रभु प्रीति) के ही पुत्र हैं, प्रकृति ने अपनी तरफ से मनुष्य को मस्तिष्क (बुद्धि) और हृदय (भाव व प्रीति) दोनो ही दिये हैं....लेकिन व्यक्ति अपने जीवन में अधिकतर प्रायः किसी एक वस्तु की प्रधानता को ले कर जीता है । बुद्धिवाद की प्रधानता में जीने वाला व्यक्ति प्रायः बहिर्मुखी हो कर संसार की
" जिमि प्रति लाभ लोभ अतिकाई " मृग तृष्णा में उलझ कर रह जाता है । तथा उसी बुद्धि को भगवत समर्पित कर के हृदय, प्रेम, प्रीति प्रधान जीवन जीने से उसकी वृत्ति अंतर मुख होकर परमात्मा की तरफ प्रवाहित होती है ।
गीता में भगवान ने कहा है......
" ददामि बुद्धि योगम् तम्, येन माम् उपयान्तिते " भगवान कहते हैं कि.....निरंतर परमात्मा में प्रेम से लगे रहने वाले लोगों को भगवान बुद्धि नहीं.....बुद्धियोग देते हैं (ईश्वर, भक्ति, प्रेम, समर्पित बुद्धि) जिससे व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ।
रामायाण में तुलसी दास जी माँ जानकी की वन्दना करते हुए कहते हैं.......ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपा निरमल मति पावउँ ॥ जब तक पदार्थानुगामिनी बुद्धि के ऊपर इच्छाओं के ऊपर इंद्रिय सुखों से प्रभावित मस्तिष्क एवं विचारों के ऊपर विवेक का परमात्मा की भक्ति से निमज्जित सद विचारों का अनुशासन नहीं होगा तब तक जीवन में पूर्णता संम्भव नहीं है ।
हमेंशा ही ज्ञान की पूर्णता भक्ति में होती है और जो भक्त होता है वह ज्ञानी होता ही है । इस लिये हमारे बुद्धि प्रधान जीवन में भी प्रधानता तो एक मात्र हृदय, भाव, विवेक एवं प्रीति सम्पन्नता की ही होनी चाहिये ।
जो मनुष्य अपने ही समान संपूर्ण जगत मे सम देखता है, सुख अथवा दुख मे सम देखता है वही श्रेष्ठ मनुष्य माना गया है, और यह सम देखने की क्षमता मष्तिष्क के द्वारा ही प्राप्त होती है।
यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि सादृश्यता से सम देखने का यही अभिप्राय है कि जैसे हम अपने सिर, हाथ पैर अथवा शरीर के अन्य अंगों मे भिन्नता होते हुए भी उनमे समान रूप से आत्मभाव रखते है अर्थात सारे अंगों मे अपनापन समान होने से सुख और दुख को समान देखते हैं, वैसे ही सम्पूर्ण जगत को जो मनुष्य समभाव से देखता है वही श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी मे आता है... और यह सम भाव से देखने की प्रेरणा बुध्दि अथवा मष्तिष्क से ही प्राप्त होती है।
अन्त मे इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रीति का जन्म मष्तिष्क और हृदय के सम होने पर ही संभव है ।
आपने आपका कथन शुद्ध ज्ञान योग की पृष्ठभूमि से उठाया है
और मेरी बात भक्ति के धरातल से है, बस इतना ही अन्तर है, और ज्ञान तब तक शुष्क एवं नीरस ही प्रतीत होता है, जब तक उसमें भक्ति संमिश्रित ना हो, हाँ एक बात और भी आपको स्मरण रहनी चाहिये कि......ज्ञान सुरभित, कुसुमित, एवं प्रफुल्लित होता है, एक मात्र भक्ति से ही.......क्योंकि ज्ञान की शोभा {पूर्णता} ही भक्ति से है, साक्षात शुद्ध ज्ञान के मूर्तिमंत विग्रहवान स्वरूप भगवान आद्यगुरू शंकराचार्य ने डिम-डिम घोष करते हुए उद्घोषणा की है कि......." भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज, मूढ़मते " ||
आपका कथन सत्य है परन्तु मष्तिष्क (बुध्दि) को अनदेखा नही किया जा सकता है...
प्रीति दो प्रकार की कही गयी है - (१) वैधी प्रीति, (२) अनुरागा प्रीति ।
वैधी प्रीति में प्रवृत्ति की प्रेरणा शास्त्र से मिलती है, जिसे विधि कहते हैं। शास्त्रग्य, दृढ विश्वासयुक्त, तर्कशील, बुध्दिसम्पन्न तथा निष्ठावान साधक ही वैधी प्रीति के अधिकारी हैं। वे शास्त्र विधि के अनुसार अपने आराध्य की सेवा-पूजा और उपासना करते हैं। उदाहरण स्वरूप - देवर्षि नारद के उपदेश ने प्रह्लाद, ध्रुव आदि के मन मे भगवत प्रीति का बीज अंकुरित किया, ये वैधी प्रीति के अनुगामी थे।
अनुरागा प्रीति अत्यन्त राग के कारण उत्पन्न होती है अनुरागा प्रीति स्वाभाविक आसक्ति ही है। मनुष्य के हृदय में इस अनुरागा प्रीति अथवा स्वाभाविक आसक्ति का बीज भी मष्तिष्क के द्वारा ही रोपित किया जाता है।
वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य प्रीति तो कांचन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठा से कर रहा है। मनुष्य सच्ची प्रीति के लिये हृदय मे कामना ही नही कर रहा। यह कामना मनुष्य के मष्तिष्क द्वारा ही रोपित की जा सकती है पर मनुष्य का मष्तिष्क सिर्फ़ लाभ-लोभ तक ही सीमित रह गया है।
अन्त मे यही कहूंगा कि मनुष्य मे प्रीति के लिये मष्तिष्क और हृदय की समरसता अत्यन्त आवश्यक है।
प्रेम तो लगभग सभी ने किया है अपने जीवन में। विषय, हालात, कारक, कारण, अलग हो सकते हैं परंतु ये सच्चाई सभी की है। किसी ने ईश्वर से तो किसी ने मनुष्य से। प्रेम विषय पर अभी कुछ दिन पहले भी मैंने लिखा था की अध्यात्म, दर्शन, विज्ञान - और सबसे महत्वपूर्ण "अनुभव" - के बिना की गई बातें सिर्फ किताबी और खोखली रह जाती हैं।
पढ़ कर थोड़ा असहज लगा कि प्रेम को सिर्फ ईश्वर से जोड़ा जा रहा था। । प्रेम क्या सिर्फ ईश्वर के लिए है? मनुष्य के सभी भाव क्या ईश्वर के लिए ही हैं? यदि ऐसा है तो घृणा, डाह आदि का क्या? ज्ञान है तो बलपूर्वक जो चाहें क्या वो सिद्ध कर सकते हैं? सत्य कहूँ तो मुझे "योग" नहीं समझते, समझना चाहता भी नहीं हूँ। मेरा विश्वास है कि उपलब्ध सभी ज्ञान लिखित रूप में होने के पीछे मात्र एक कारण है - और वो है - व्यक्ति जिस अनुभव को स्वयं न समझ सके उसको वह अनुभव समझने में सहायता करना। उदा0- ईश्वर है। इसको मानने और पाने के लिए 100 तरह से बताया गया है। परंतु जिसने ईश्वर की स्वतः अनुभूति कर ली हो उसको किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।
हम सभी जानते हैं कि प्रेम एक भाव है। भाव यदि सच्चा है - वास्तविक है - तो वो नपा-तुला नहीं हो सकता, काटा-जोड़ा नहीं हो सकता। भाव हृदय से उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क या दिमाग का इसमें कोई कार्य नहीं। उसका क्रिया भाग तभी बन सकता है जब कि उसमें कोई फ़ायदा-नुकसान देखा जाए।
प्रेम के पूरे जीवनचक्र पर यहाँ चर्चा करना उचित नहीं, संभव भी नहीं... परंतु मेरा मानना है कि प्रारम्भिक दो मुख्य चरण होते हैं - प्रेम भाव का उदय और प्रेम की पूरी तरह से स्थापना। प्रेम चूंकि भाव है अतः इसका उदय हृदय से ही होता है इसमें कोई शंका हो ही नहीं सकती। इसकी स्थापना मस्तिष्क का कार्य है, इसमें कैसी भी शंका के लिए स्थान नहीं है।
निःशंक अनुमोदन है कि मनुष्य मे प्रीति के लिये मष्तिष्क और हृदय की समरसता अत्यन्त आवश्यक है। उदय भानु जी की बात को इसमें जोड़ते हुए कहूँगा कि "परंतु हृदय का स्थान प्राथमिक है"।
-- सादर