पुण्यमयी मातृभूमि भारत की विशाल ऐतिहासिक परंपरा में वैभव और पराभव, उत्कर्ष और अपकर्ष के अनेक कालखंड मिलते हैं। उन्नति और अवनति दोनों ही में उसने अपनी राष्ट्रीय चेतना को जागृत रखा है। दोनों ही स्थितियों में अपनी आत्मा को बलवती बनाया है। पराभव प्राप्त होने पर उसने काल-चक्र की गति को बदलने वाले उन कर्मठ वीरों को जन्म दिया, जिन्होंने अपनी मनस्विता, स्वाभिमान एवं नीति निपुणता के द्वारा राष्ट्रीय आत्मा की सुप्त शक्ति को जगाया। यह शक्ति अन्याय और अत्याचार की भीषण आंधी में भी अपने स्थान पर शांत मुद्रा से डटी रही और अगस्त्य मुनि के समान कठिनाइयों के अलंघ्य विन्ध्याचल अतिक्रमण करके समुद्र जैसी उद्दंड एवं विशाल शक्ति को तीन ही चुल्लू में पान करने में समर्थ हुई। इसी प्रकार इसके वैभव और शान्ति के काल में वे ऋषि एवं तत्वज्ञ हुए जिन्होंने आत्मा की ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार करके मानव के कल्याण के लिये सत्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
इसी परंपरा में भारत में एक ऋषि तुल्य आचार्य का भी कालखंड आता है। इन ऋषि तुल्य आचार्य का नाम था विष्णु गुप्त। विष्णु गुप्त एक ब्राह्मण माता-पिता की संतान थे। जन्म से ओजस्वी विष्णु गुप्त अपने देश भारत के प्रति भी समर्पित थे। अध्यापन कार्य उनके जीवकोपार्जन का साधन था। ' आचार्य समाज का विवेक होता है और छात्र उसकी उर्जस्वित शक्ति, दोनों के क्रियाशील रागात्मक सम्बन्ध ही सामाजिक परिवेश को संस्कारित करते हैं ', यह बात आचार्य विष्णु गुप्त " चाणक्य " भलीभांति समझते थे। आचार्य चाणक्य में राष्ट्र निर्माण की अटूट भावना थी।
राष्ट्र की सुरक्षा में ' शस्त्र ' से अधिक ' शास्त्र ' का स्थान है। ' शक्ति ' से अधिक ' युक्ति ' का महत्त्व है। परन्तु यह भी सत्य है की देश की सुरक्षा के लिये ' शास्त्र ' अथवा ' युक्ति ' बगैर ' शस्त्र ' अथवा ' शक्ति ' के निरर्थक हैं। युक्ति और शक्ति का सुन्दर संयोग ही ' सिद्धि ' के रहस्य का उदघाटन करता है।
आचार्य चाणक्य का अपने विषय में कहना था की " मैं ब्राह्मण हूँ। करुणा मेरा साम्राज्य है, प्रेम मेरा धर्म है, आनंद रुपी समुद्र के शान्ति द्वीप का मैं अधिवासी हूँ, चन्द्र एवं सूर्य मेरे नक्षत्र एवं दीप हैं, यह अनंत आकाश वितान तथा शश्य श्यामला कोमला विशम्भरा मेरी शय्या है, बौद्धिक विनोद मेरा कर्म है और संतोष मेरा धन। " परन्तु तत्कालीन भारत के अभिशाप तक्षशिला का देशद्रोही राजकुमार आम्भीक, पंचनद नरेश पुरु तथा मगध का विलासी सम्राट नन्द के द्वारा देश के लिये विकट एवं विषम परिस्थितियों के निर्माण करने से आचार्य चाणक्य को अपनी उपरोक्त पहचान को किनारे कर युक्ति और शक्ति के द्वारा राष्ट्र मंदिर का भव्यतम स्वरुप खड़ा करने के लिये प्रेरित किया। परिणाम स्वरुप उन्होंने अपने दो भावुक और देशनिष्ठ शिष्य चन्द्रगुप्त और सिन्ह्हरण को अपने साथ साधना-पथ पर चलने को प्रेरित किया। आचार्य चाणक्य की संगठन कुशलता से ही नन्द-पुत्री नंदिता तथा आम्भीक-भगनी अलका भी उनके साधना-पथ की सहयात्री बनी।
आचार्य चाणक्य अपनी दूर-दृष्टि से देख रहे थे कि भारत पूर्णतः शक्तिशाली नही है| समाज विश्रंखल व्यक्तिनिष्ठ है| इन अवगुणों के कारण देश दिन-प्रतिदिन दुर्बल हो रहा है| देश कि आत्मा के साथ अपनी आत्मा को समरस करने के कारण इस दुर्बलता की वेदना को अनुभव किया| तब आचार्य चाणक्य ने एक विशाल साम्राज्य के मानचित्र की कल्पना की और उस साम्राज्य का सम्राट चंद्रगुप्त को बनाने का प्रण किया|
आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में एक विशाल सेना का गठन किया और उस सेना तथा चंद्रगुप्त की अजेय शक्ति के द्वारा आचार्य चाणक्य ने विश्व-विजय की कामना करने वाले युध्दोन्मादी सिकंदर की सैन्य-वाहिनियो को अपने अधूरे स्वप्न ही लेकर बेवीलोनिया वापस लौटने के लिए विवश कर दिया| इतिहास साक्षी है कि पुरु के युध्द के पश्चात सिकंदर की छावनी तथा उसके बाहर भी उस क्षेत्र की चप्पा-चप्पा भूमि सिकंदर का मनोबल तोडने वाले व्यक्तियों से भारी पडी थी, जिसका पूरा श्रेय दूरदर्शी आचार्य चाणक्य को ही जाता है| जिसके परिणाम स्वरूप सिकंदर को असफलता की आग में जलते हुए बड़ी दयनीय दशा में वापस लौटना पड़ा| लेकिन सिकंदर अपना अपमान बर्दाश्त नही कर पाया और मार्ग में ही अपने प्राण त्याग दिए तथा अपनी मातृभूमि के दर्शन भी नही कर सका|
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि गुलामी का अथवा गुलाम मनोवृत्ति वाले इतिहासकारों का इतिहास इस इतिहासिक सत्य को नही मानता|
आचार्य चाणक्य जहाँ अलक्षेन्द्र (एलेकजेंडर) जैसे महत्वाकांक्षी, कूटनीतिग्य एवं युध्द-पिपासु साम्राज्यवादी को भारत की सीमा से बहुत दूर खदेड देने की सफलतम योजनाओं स्रष्टा थे वहीँ देश की आतंरिक दशा के प्रति उतने ही सतर्क, सचेष्ट और चिंतित भी थे|
आचार्य चाणक्य जीवनपर्यंत स्वयं पद और प्रतिष्ठा से निर्लिप्त रह कर राष्ट्र को एक सुद्रढ़ आधार पर खडा करते रहे| आचार्य चाणक्य ने उस समय के अनेक गणराज्यों एवं जातियों के परस्पर वैरभाव को मिटाकर उनको एकसूत्रता का व्यावहारिक तथा चिरस्थायी पाठ भी पढ़ाया| इसी का परिणाम था कि उस समय का स्थापित किया हुआ साम्राज्य अनेक झझाओ के बाद भी लंबे समय तक गौरवपूर्ण ढंग से भारतीय संस्कृति की जय-गाथा सुनाता रहा|
आज के समय में अपना देश भारत जिन झंझाओं और परिस्थितियों से गुजर रहा है, उससे निदान पाने के लिए वैसे ही "आचार्य चाणक्य" की आवश्यकता है|
" चाणक्य आओ तुम्हारा यह देश फिर बेहाल है "
वन्दे मातरम........................
भारत माता की जय..................