शब्द ब्रह्म है और शब्द ही आघात भी। ब्रह्म जहाँ मन को शान्ति प्रदान करता है वहीं आघात मन और शरीर दोनो को कष्ट देता है, क्षति पहुँचाता है। तलवार जो कि शरीर पर चोट करती है, घाव भी देती है, उसकी चोट से, उसके घाव से और उसकी पीड़ा से चिकित्सा द्वारा आराम मिल जाता है, परन्तु शब्द द्वारा किये गये आघात से पैदा हुए घाव को, पीड़ा को किस चिकित्सा से, किस औषधि से ठीक करें, यह पहचान करना मुश्किल होता है।
यह सब जानते हुए भी हम अपने शब्दों/वाक्यो से, लोगों को, अपने करीबियों को, अपने हितैषियों को अपने प्रति समर्पण का भाव रखने वालों को आघात पहुँचाते रहते हैं। हम यह भी नहीं सोचते कि जिसके प्रति हमने ऐसे शब्द प्रयोग किये जिससे उसे आघात पहुँचा उसकी मनःस्थिति कैसी हो रही होगी, उसको कितनी आन्तरिक पीड़ा हो रही होगी। हमें अपने मुख से बोलने के पहले अपने द्वारा कहे जा रहे शब्द/वाक्य पर विचार कर लेना चाहिये जिससे उस शब्द/वाक्य को सुनने पढ़ने वाला व्यथित न हो। हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिये कि मुख से निकले हुए शब्द/वाक्य को वापस नहीं लिया जासकता। वह शब्द/वाक्य अपनी प्रकृति के अनुसार प्रेम का प्रदर्शन या शब्दाघात तो करेगा ही।
जाने-अनजाने हमने भी कई बार ऐसा आघात किया होगा, जिससे लोगों को कष्ट पहुँचा होगा, लोग व्यथित हुए होगें।
सभ्य पुरुष वही है जो अपने ऐसे जाने-अनजाने अपराध को स्वीकार करे और भविष्य मे ऐसे हृदय-आघातिक अपराध न करे। यदि हम अभी भी चेत जायें तो ऐसे अपराध से बच सकते है।
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