धर्म के लक्षण
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धारणाद धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः
धर्म सभी प्राणियों का धारण-पोषण करता है, इसलिये महर्षियों ने उसे धर्म कहा है।
वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मतुष्टि अर्थात अपनी आत्मा को प्रिय लगने वाला - ये धर्म के साक्षात लक्षण हैं।
हिंसा न करना, सच बोलना, चोरी न करना, पवित्र रहना और इन्द्रियों को संयम मे रखना - महर्षियों ने संक्षेप मे इसी को धर्म बताया है।
धर्म के दस लक्षण
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धृति, क्षमा, दम, चोरी न करना, मन, वाणी और शरीर की पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, सुबुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना।
क्रूरता न करना (दया), क्षमा, सत्य, अहिंसा, दान, नम्रता, प्रीति, प्रसन्नता, कोमल वाणी और कोमलता - ये दस यम हैं।
पवित्रता, यग्य, तप, दान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, व्रत, मौन, उपवास और स्नान - ये दस नियम हैं।
दया करो किसी को मत मारो पराया हो या अपना, भाई-बन्धु या मित्र हो, शत्रु हो या बैरी - जो विपत्तियों में पडा हो, उसे दुख में देखकर उसकी रक्षा करने का नाम है, दया - करुणा।
जो आदमी माँस खाता है वही घातक नहीं है, आठ व्यक्ति घातक है - १- माँस के लिये सम्म्ति देनेवाला, २- काटने वाला, ३- मारने वाला, ४- खरीदने वाला, ५- बेचने वाला, ६- लाने वाला, ७- पकाने वाला, ८- खाने वाला।
पंच महायग्य
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गृहस्थ के आवास में हिंसा के ये पाँच स्थान हैं - चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली और पानी के घडे। इनसे वह पाप में बँधता है। गृहस्थों को इन दोषों से मुक्त करने के लिये महर्षियों ने प्रतिदिन पंच महायग्य करने को निर्देशित किया है।
ये पाँच महायग्य हैं - १- पढाना-(ब्रह्मयग्य), २- तर्पण-(पितृयग्य), ३- हवन-(देवयग्य), ४- बलिवैश्यदेव*- (भूतयग्य), ५- अतिथ-सत्कार-(मनुष्य यग्य)
*बलिवैश्यदेव यग्य मे कुत्ता, पतित, चाँडाल, पाप रोगी, कौआ और कृमि इन छै के लिये भोजन मे से छै भाग निकाले।
प्रणाम करने का जिसे स्वभाव है और जो रोज गुरुजनो की सेवा करता है, उसकी आयु और विद्या, यश और बल, बढते हैं।
जो कार्य माता-पिता और गुरू को प्रिय लगे वही कार्य करना चाहिये। इन तीनों के संतुष्ट होने से सारे तप पूरे हो जाते हैं।