"विश्वास का आधार क्या हो ? रूप, रँग, गुण, धर्म, जाति, कुल या शब्द या फ़िर कुछ भी नही। या फ़िर विश्वास किया ही नही जाना चाहिये। अथवा विश्वास सिर्फ़ एक स्वप्न के समान है..? अगर विश्वास न होगा तो फ़िर जीवन को गति कैसे मिलेगी? जिन्हे हम अपना मानते हैं, वो जब हमारे या अपने शब्दों से विमुख हो जाता है तब हम स्तब्ध रह जाते हैं और तब शुरू होता है इस बात का आंकलन कि हमसे भूल कहाँ हुई। तभी विश्वास की नाजुक डोर टूटने लगती है। तब प्रश्न उठता है कि विश्वास का आधार क्या हो............"
स्वप्न और विश्वास में क्या सामंजस्य...? स्वप्न बनते ही हैं टूटने, बिखरने के लिये। स्वप्न हम खुली या बन्द आँखों से अपने मन की धारणाओं के अनुसार गढ लेते है, पर विश्वास की महत्ता अलग है। विश्वास धीरे-धीरे पनपता है और दृढ होता है।
हम सब अपनी धारणाओं की स्वीकृति चाहते हैं, जो हमारी धारणाओं को समर्थन देते हैं, हम उन पर विश्वास करते हैं। पर जब कभी कोई हमारी धारणाओं को मानने वाला हमसे विपरीत हो जाता है तब हम व्यथित हो जाते हैं, हमारे विश्वास को ठेस लगती है और धीरे-धीरे उस व्यक्ति पर से हमारा विश्वास टूट जाता है। तात्पर्य यह है कि हम अपनी धारणायें मनवाने के लिये उतावले रहते हैं और इसी की वजह से परेशान भी।
हम यदि पहले ही व्यक्ति के गाँभीर्य को परख लें तब उसके द्वारा कहे गये शब्द अर्थवान/अर्थहीन हो जाते हैं। तब हमे क्लेश नही होता किसी अपने के द्वारा कहे गये शब्दों से विमुख होने का। यह हम पर निर्भर है कि हम उसको कितना परख पाते हैं। व्यक्ति को परखना हमारे अपने अनुभव पर आधारित है।
विश्वास की डोर नाजुक नही होती। अगर विश्वास की डोर नाजुक है तो वह विश्वास की श्रेणी में आ ही नही सकता। विश्वास तो दृढता से किया जाता है। मन के डावाँडोल होने से अगर विश्वास को ठोकर लगती है तो यह हमारे मन का दोष है न कि विश्वास का।
विश्वास अखण्ड संरचना है। यह टूट नही सकता। यह जरूर है कि विश्वास कभी-कभी गलत हो सकता है। पर गलत विश्वास नही बल्कि जिस व्यक्ति पर विश्वास होता है वह गलत होता है। विश्वास ही जीवन का आधार है। सुखमय संसरण का मूल है। जो विश्वास को नही जानता या नही मानता उसका जीवन धरातल विहीन है, व्यर्थ है। "भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रुपिणौ"---- गोस्वामी तुलसीदास की इस पँक्ति का यही है निहितार्थ।