मंगलवार, 7 अगस्त 2012

नेहरू का ‘पंचशील’ सिद्धान्त

स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की यों तो अधिकाँश नीतियां अदूरदर्शितापूर्ण और मूर्खतापूर्ण थी, लेकिन उनकी महामूर्खता का परिचय उनके "पंचशील" सिद्धांत से मिलता है| 1954 में भारत और चीन के बीच एक संधि की गई थी, जिसके पांच सिद्धांतों को सम्मिलित रूप में पंचशील कहा जाता था|

ये पांच सिद्धान्त थे....
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1- एक-दूसरे की अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना,
2- एक-दूसरे पर आक्रमण न करना,
3- एक-दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप न करना,
4- समानता के आधार पर परस्पर लाभ के लिये कार्य करना,
5- शांतिपूर्ण सहअस्तित्व

सिद्धान्तों के रूप में तो यह सब अच्छा है, लेकिन नेहरू यह समझने में असफल रहे कि चीन दुनिया का सबसे कमीना देश है और उसके किसी नेता का एक शब्द भी विश्वनीय नही है| उसके लिये किसी समझौते का मूल्य उस कागज़ के बराबर भी नहीं है, जिस पर वह समझौता लिखा गया है| यदि नेहरू ने चीन का इतिहास पढ़ा होता तो वे उसके विस्तारवाद को समझ भी लेते, परन्तु वे छद्म कम्युनिष्ट थे और अन्य कम्युनिस्टों की तरह यह नही मानते थे कि चीन कभी कोई गलत कार्य कर सकता है|

नेहरू को तिब्बत का परिणाम देखकर ही सावधान हो जाना चाहिये था| अपनी अहिंसा-जानी मूर्खता के कारण तिब्बत ने कोई सेना नहीं बनाई थी, जो उसकी सीमाओं की रक्षा कर सके| चीन ने 1951 से ही तिब्बत पर कब्ज़ा करने की कोशिशें चालू कर दी थीं| यह उल्लेखनीय है कि तिब्बत हमेशा ही एक स्वतन्त्र राष्ट्र रहा है, तिब्बत कभी भी चीन का भाग नही रहा| 1949 में एफ्रो-एशियन देशों के सम्मलेन में तिब्बत का प्रतिनिधि भी स्वतन्त्र देश के रूप में शामिल हुआ था| परन्तु चीन अपने विस्तारवाद के कारण उसे अपना प्रांत मानता रहा है| चीन ने कुछ लोगों को उकसाकर तिब्बत में विद्रोह शुरू करा दिया और 1959 में अपनी सेनाएँ भेज कर तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया| वहाँ के वैध शासक दलाई लामा को अपने चंद समर्थकों के साथ वहाँ से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी, वे आज भी भारत में ही रहकर तिब्बत की निर्वासित सरकार चला रहे हैं|

दुर्भाग्य से नेहरू ने "पंचशील" की आड ले कर इसे चीन का आतंरिक मामला बताया और चीन की हरकतों का कोई विरोध नही किया| यदि नेहरू ने चीन का विरोध किया होता तो चीन के विस्तारवाद पर तभी लगाम लग् गयी होती|

यहाँ यह याद दिलाना आवश्यक है कि यदि तिब्बत को एक स्वतन्त्र देश मान लिया जाये तो भारत की एक इंच सीमा भी चीन से नही मिलती| इसलिए ऐसा होने पर भारत-चीन सीमा विवाद ही नही, बल्कि तिब्बत-चीन सीमा विवाद होता|

चीनी विस्तारवाद तिब्बत को ही नहीं बल्कि नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरुणांचल प्रदेश को भी अपने में शामिल करना चाहता है और यह बात किसी से छिपी-ढकी नही है| परन्तु नेहरू आँखे बन्द करके तब तक सोते रहे, जब तक चीन ने भारत पर आक्रमण नहीं कर दिया|

यह बात नहीं कि देश के अन्य नेताओं ने नेहरू को सावधान नही किया था| डा. अम्बेडकर, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. राममनोहर लोहिया ही नहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरू जी ने भी नेहरू को चीनी विस्तारवाद से सावधान रहने और उस पर बिलकुल भी विश्वास न करने की चेतावनी दी थी| परन्तु नेहरू ने इन सभी को मूर्ख बताया था और कहा कि हमें चीनी नेताओं पर पूरा विश्वास है और चीनी नेतृत्व पंचशील का पालन करेंगे|

नेहरू की आँखे तब खुलीं जब 1962 में चीन ने भारत पर खुला आक्रमण कर दिया और भारत का एक बड़ा भूभाग हड़प लिया| यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अपनी और गाँधी की मूर्खता के कारण नेहरू ने भारत की सेनाओं को भी ताकतवर नही बनाया था| जिससे भारत की सेनायें चीन का उचित मुकाबला नहीं कर सकीं और भारत को अपमान का गहरा घूँट पीना पडा| इसके बाद नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया कि हम मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे थे|

आज फिर से हम उसी दोगले चीन पर विश्वास करने लगे हैं| हमें सचेत रहना होगा और भारत की सरकार को भी गलत कदम उठाने से रोकना होगा|


वंदे मातरम..................

भारत माता की जय........