गुरुवार, 17 नवंबर 2022

वीर सावरकर




            भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर नगर में हुआ था। सावरकर महान क्रांतिकारी, चिन्तक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता तो थे ही, एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढ़ंग से लिपिबद्ध किया। हिन्दू राष्ट्र की राजनैतिक विचार धारा "हिन्दुत्व" को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय भी सावरकर को जाता है। 

            क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिन्दुत्व के प्रणेता विनायक सावरकर का जन्म धार्मिक और राष्ट्रीय विचारों वाले दामोदर पंत सावरकर एवं राधाबाई के घर में हुआ था। उनके दो भाई गणेश (बाबाराव) एवं नारायण सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद 1889 में प्लेग की बीमारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला और अनेक कष्ट सहते हुए अपनी सहधर्मिणी के साथ मिलकर अपने छोटे भाई-बहनों का लालन पालन किया। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी मे बड़े भाई गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा असर पड़ा। 

            बचपन से ही मेधावी छात्र रहे विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और साथ ही अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली कुछ कविताएं भी लिखीं, जिन्हे सुनना और पढ़ना अपने आप में स्वर्गिक आनंद देता है। वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित हो उन्होंने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित कर के मित्र मेलों का आयोजन किया और शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित कर दी। 

            आर्थिक संकट के बावजूद बड़े भाई बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा का समर्थन किया और इस हेतु सहायता करने के सभी संभव प्रयत्न किये। इसी बीच सन 1901 में ही रामचन्द्र त्रयंबक चिपलूनकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ, जिसके बाद उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने पुणे के फर्गुयसन कालेज से बी० ए० किया, जहाँ पर भी वे युवकों में बलिदानी भावना जागृत करते रहे। 1904 में उन्होंने अभिनव भारत नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जला कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की। तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हे लन्दन में रह रहे क्रान्तिधर्मा श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति मिली। 

            लन्दन स्थित श्यामजी के इंडिया हाउस से जुड़ना सावरकर जी के जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ न केवल उन्हे समान विचारधारा वाले लोगों से मिलने का अवसर मिला बल्कि अपने विचारों के प्रकटीकरण का उचित मंच भी। 10 मई 1907 को श्यामजी ने इंडिया हाउस लन्दन में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई, जिस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातंत्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। ये अपने आप में बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि इसके पहले इतिहासकार इस घटना को ब्रिटिश नजरिये से देखकर गदर या सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते थे, परन्तु सावरकर ने भारतीय नजरिये से इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की उपमा दी। इसी के बाद इतिहासकारों में उस घटना को देखने की एक नयी दृष्टि उत्पन्न हुई, जिसका पूरा श्रेय सावरकर को जाता है। 

            मराठी भाषा में उनकी पुस्तक "द इण्डियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस : 1857," जून 1908 में तैयार हो गयी, परंतु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिए लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में कुछ उत्साही युवाओं ने इसका अँग्रेजी अनुवाद कर इसे गुप्त रूप से हालैण्ड से प्रकाशित कराया और फिर इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुंचाई गईं। भारतीय क्रांतिकारियों के लिए ये पुस्तक गीता के समान प्रेरणा देने वाली सिद्ध हुईं। इस पुस्तक की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित किये गये। हॉलैंड में प्रकाशित प्रथम संस्करण के बाद इसका द्वितीय संस्करण अमेरिका में गदर पार्टी के लाला हरदयाल ने, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह ने, और चतुर्थ संस्करण सुदूर पूर्व में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने प्रकाशित करवाया। देश की कई भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया और क्रान्ति पथ के राही इसे अपने प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार करने लगे। इस बीच मराठी भाषा में लिखी मूल प्रति पेरिस में मैडम भीखा जी कामा के पास सुरक्षित रही, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांस के हालात बिगड़ने पर अभिनव भारत के डॉक्टर कौतीन्हों को सौंप दिया। लगभग 40 वर्षों तक किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह रक्षा करने के बाद उन्होंने इसे रामलाल बाजपेयी और डॉक्टर मुंजे को सौंप दिया, जिनसे ये मूल प्रतिलिपि पुनः वीर सावरकर को प्राप्त हुई। 

            इसी बीच मई 1909 में सावरकर ने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परंतु उन्हे वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। उन्होंने अँग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी क्रान्ति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया, उन्ही की प्रेरणा से क्रान्तिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लॉर्ड करजन की हत्या करके भारतीयों के अपमान का प्रतिशोध ले लिया। सावरकर की गतिविधियों और लेखों से लन्दन भी काँप उठा और अन्ततः 13 मार्च 1910 को उन्हे लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया। 8 जुलाई 1910 को जब उन्हे लन्दन से बन्दी बना कर भारत लाया जा रहा था, उस समय वे सिपाहियों को चकमा देकर समुद्र में छलाँग लगा कर तैरते हुए फ्रांस के मारसेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़ कर मारसेलिस बन्दरगाह पर जा पहुँचे। उनके इस साहसिक कार्य से पूरा विश्व हिल गया था। जिसके कारण पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ। 

            सावरकर का समुद्र में छलाँग लगा कर मरसेलिस पँहुचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हे अवैध तरीके से पुनः हिरासत मे लेने के कारण विफल भले ही रहा हो पर उनकी इस छलाँग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआ और आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पड़ा था। पूरे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने इसे नापसन्द किया। सावरकर को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाये की माँग पूरे फ्रांस ही नही अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आँच पहुँची और फ्रांस में ब्रिटिश कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया, जिसका समर्थन विश्व के जाने-माने लोगों ने किया। अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पड़ा और सावरकर की फ्रांस की भूमि पर किये गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपने का करार करना पड़ा। 

            सावरकर पर मुकदमा चलाकर 24 दिसंबर 1910 को उन्हे आजीवन कारावास की सजा दी गई और इसके बाद 31 जनवरी 1911 को उन्हे दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। नासिक जिले के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए नासिक षडयन्त्र काण्ड के अंतर्गत इन्हे 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया, जहाँ कारावास में ही 21 वर्षों बाद सावरकर की मुलाकात अपने बड़े भाई से हुई, जब वे दोनों कोल्हू से तेल निकालने के बाद जमा कराने के लिए पहुँचे थे। अपार कष्ट सहते और अपने को तिल-तिल गलाते सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। 

            उसके बाद सावरकर ने स्वयं को हिन्दुत्व के लिए समर्पित कर दिया, उनको अनुभूति हो चुकी थी कि सशक्त हिन्दू के बिना सशक्त भारत नहीं बन सकता। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19 वें सत्र के अध्यक्ष चुने गए, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिए अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने हिंदुओं के सैनिकीकरण की वकालत की और इस हेतु घूम-घूम कर हिन्दुओं को सेना मे शामिल होने के लिए प्रेरित किया। जिसके सदपरिणाम बाद में सामने आए, जो उनकी दूरदृष्टि को सिद्ध करते हैं। उन्ही की सलाह पर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भारत से चुपचाप निकल कर विदेश चले गए और आजाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी। सावरकर ने भारत विभाजन का प्रबल विरोध किया और स्वतन्त्रता प्राप्ति पर कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है परंतु वह खण्डित है, जिसका बहुत दुःख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होती, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं। 

            5 फरवरी 1948 को उन पर गाँधी वध का आरोप लगा कर काँग्रेस सरकार ने प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया, जिससे उन्हे बाद में न्यायालय के माध्यम से मुक्ति मिली। मई 1952 में पुणे की एक विशाल सभा मे उन्होंने अपने अभिनव भारत नामक संगठन को उसके उद्येश्य (भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति) के पूर्ण होने पर भँग कर दिया। 

            अपनों की मृत्यु, देश की स्थिति और सरकारी उदासीनता ने उनके शरीर को तोड़ कर रख दिया था। उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा था। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी 1966 को बम्बई में प्रातः 10 बजे उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। 

            दुःखद है कि आज की पीढ़ी सावरकर को बिसरा चुकी है और हमारा सत्ता तंत्र इस महान सेनानी को लोगों की स्मृति में बनाए रखने में विफल रहा है। फिर भी कुछ प्रयास उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने की दिशा में किये गए है। उनकी स्मृति मे डाक टिकट जारी किया गया, संसद में उनका चित्र लगाया गया और पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डे का नाम सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया। 1966 में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म "सजा-ए-काला पानी" में सावरकर जी के बारे में वर्णन किया गया, जिसमें अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। 2001 में वेद राही और सुधीर फड़के ने "वीर सावरकर" नाम से एक बायोपिक चलचित्र बनाया। अपने निर्माण के कई वर्षों के बाद यह रिलीज़ हुई, जिसमें वीर सावरकर का चरित्र शैलेन्द्र गौड़ ने अभिनीत किया। 

            हमारा कर्तव्य है कि हम स्वतन्त्रता संग्राम के महान योद्धा विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य "वीर सावरकर" की स्मृति को अक्षुण रखें। उन्हे कोटी कोटी नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि। 


वन्दे मातरम 

भारत माता की जय 

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