रविवार, 27 नवंबर 2022

ऋषि-मुनि-महर्षि-साधु-संत में अंतर





ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अन्तर होता है??

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है। आज से सैकड़ों साल पहले "ऋषि, मुनि, महर्षि, ब्रह्मर्षि" समाज के पथ-प्रदर्शक माने जाते थे। तब यही लोग अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य किया करते थे तथा समाज को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज के समय में भी हमें कई तीर्थ स्थलों, मन्दिरों, जंगलों और पहाड़ों में साधु-सन्त देखने को मिल जाते हैं। 

ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और सन्त में अंतर ---

ऋषि-मुनि :- ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋष' से है जिसका अर्थ 'देखना' या 'दर्शन शक्ति' होता है। ऋषि अर्थात 'दृष्टा'। भारतीय परम्परा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने अर्थात यथावत समझ पाने वाले को कहा जाता है। वे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये, उनके गूढ़ अर्थों को जाना एवं प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गये शब्दों को लिख कर प्रकट किया। इसीलिए कहा गया है - 

"ऋषयो मन्त्र द्रष्टार: न तू कर्तार;।"

अर्थात ऋषि तो मन्त्र के देखने वाले हैं। न कि बनाने वाले। बनाने वाला तो केवल एक परमात्मा ही है। मुनि वो है जो मनन करे। भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय, और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्छल बुद्धि वाले मुनि कहे जाते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण का रास्ता दिखते हैं। 

महर्षि-ब्रह्मर्षि :- ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुँचने वाले व्यक्ति को "महर्षि" कहा जाता है। महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परमात्मा को समर्पित होते हैं। इससे ऊपर की कोटि के ऋषियों को "ब्रह्मर्षि" कहा जाता है।  गुरू वशिष्ठ और विश्वमित्र "ब्रह्मर्षि" थे। 

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार हर व्यक्ति में तीन प्रकार के चक्षु होते हैं- "ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु एवं परम चक्षु"। जिस व्यक्ति का "ज्ञान चक्षु" जाग्रत हो जाता है, उसे "ऋषि" कहते हैं। जिस व्यक्ति का "दिव्य चक्षु" जाग्रत हो जाता है उसे "महर्षि" कहते हैं। जिस व्यक्ति का "परम चक्षु" जाग्रत हो जाता है उसे "ब्रह्मर्षि" कहते हैं। 

साधु:- साधु, संस्कृत का शब्द है, जिसका सामान्य अर्थ "सज्जन व्यक्ति" है। ऐसा व्यक्ति जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर नामक 6 विकारों का त्याग कर देता। इन सब विकारों को त्याग करने वाले व्यक्ति को "साधु" की उपाधि दी जाती है। लघु सिद्धान्त कौमुदी में कहा : - "साधनोती परकार्यमिति साधु:" (जो दूसरों का कार्य कर देता है, वह साधु है)। अथवा वो जो साधना करे वो "साधु" कहा जाता है। साधु होने के लिए विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है। साधु (सन्यासी) का मूल उद्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए, धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु-सन्यासी गण साधना-तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते हैं और निज जीवन को त्याग-वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में लीन रहते हैं। 

सन्त : - मत्स्य पुराण के अनुसार "ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय: सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्योस्तातेन सन्त प्रचक्षते।। ब्राह्मण, ग्रन्थ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियाँ हैं। जिनके अंतःकरण में इनका और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वह सन्त कहलाते हैं। हिन्दू धर्म में सन्त उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी होता है। जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है वह "सन्त" कहलाता है। 


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सोमवार, 21 नवंबर 2022

रँगीले नेहरू




            आजादी और आधुनिक भारत के इतिहास की किताबें जवाहर लाल नेहरू के योगदान की बातों से भरी पड़ी हैं। इन्हे पढ़ें तो लगता है कि क्रांतिकारियों ने नहीं बल्कि गांधी-नेहरू ने आजादी की लड़ाई लड़ी और गांधी के बाद अगर किसी ने देश को आजादी दिलाई तो वो सिर्फ जवाहर लाल नेहरू ही थे। नेहरू की इसी विरासत को उनका परिवार आज भी भुना रहा है और तमाम भ्रष्टाचार और अनैतिक कामों के बावजूद राजनीति के केंद्र में बना हुआ है। 

            जवाहर लाल नेहरू और भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन की पत्नी एडविना के बीच रिश्तों की बातें जग जाहिर हैं। लेकिन इस रिश्ते में क्या-क्या हुआ ये कम लोग ही जानते हैं। ऊपरी तौर पर देखा जाए तो ये महज प्रेम-संबंध का मामला था। लेकिन नेहरू ने अपनी प्रेमिका लिए जिस तरह से सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल किया वो जानकार हैरानी होती है। उस दौर में पत्रकार रहे खुशवंत सिंह और कुलदीप नैय्यर ने इन घटनाओं का जिक्र किया है। 

            जवाहर लाल अपनी प्रेमिका एडविना को लगभग रोज चिट्ठी लिखा करते थे। इन चिट्ठियों को लन्दन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी एयर इण्डिया की हुआ करती थी। पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब "एक जिन्दगी काफी नहीं" में लिखा है कि "एयर इण्डिया के हवाई जहाज से नेहरू का गुलाब की खुशबू से भीगा खत लन्दन में भारत के हाई कमिश्नर को सौंपा जाता था। हाई कमिश्नर की जिम्मेदारी होती थी कि वे उस खत को एडविना माउण्टबेटन तक पहुंचाएं। एडविना का जवाबी प्रेम पत्र एयर इण्डिया के ही सरकारी विमान से दिल्ली पहुँचता था और एयर पोर्ट से उसे तीन मूर्ति भवन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी तब के बड़े अधिकारियों की होती थी। अगर कभी इन प्रेम पत्रों के आदान-प्रदान में देरी हो जाती थी तो नेहरू गुस्से में लाल हो जाते थे। यहाँ तक की किसी जरूरी सरकारी काम में व्यस्त होने के कारण भी देरी हो जाए तो नेहरू अफसरों को माफ नहीं करते थे।" सरकारी संसाधनों का अपने निजी काम के लिए इस्तेमाल करने की ये सबसे शर्मनाक मिसाल है। 

            पत्रकार खुशवंत सिंह ने भी जवाहर लाल नेहरू के "रँगीले स्वभाव" के बारे में कई जगहों पर लिखा है। खुशवंत 50 के दशक में लन्दन में भारतीय उच्चायोग में तैनात थे। उन्होंने बताया है कि "देर रात को नेहरू अचानक एडविना के घर पहुँच गए। इस बात की भनक लन्दन के पत्रकारों को लग गई। वो पत्रकार उसी वक्त एडविना के घर पहुँच गए। एक पत्रकार ने घर के अंदर बेडरूम में नेहरू और एडविना की कुछ अंतरंग तस्वीरें भी खींच लीं।" खुशवंत सिह का कहना था कि इस घटना के कारण नेहरू उन पर बहुत गुस्सा हुए। खुशवंत तब हाइकमीशन की तरफ से मीडिया को संभालने का काम करते थे, लिहाजा नेहरू को शक था कि खुशवंत सिंह ने ही मीडिया को बुलाकर उनके अवैध रिश्ते की पोल खुलवा दी। इस घटना का जिक्र एडविना माउण्टबेटन की बेटी पॉमेला हिक्स ने भी किया है। 

            आजादी के बाद जब देश की करोड़ों जनता बेहद गरीबी में जीवन बिता रही थी और देश तमाम चुनौतियों से गुजर रहा था, तब नेहरू का ज्यादातर वक्त एडविना से प्यार मोहब्बत की बातें करने में बीतता था। 21 फरवरी 1960 को जब एडविना का लन्दन में निधन हो गया तो नेहरू ने गेंदे के फूलों का गुलदस्ता भेजा। ये गुलदस्ता भारतीय नौसेना के जहाज "त्रिशूल" से भेजा गया था। ये वो दौर था जब चीन के साथ रिश्ते बिगड़ना शुरू हो गए थे। ऐसे वक्त में जब सेना को मजबूत करने की जरूरत थी, तब देश के प्रधानमंत्री नेहरू नौसेना के युद्धक जहाज का इस्तेमाल अपनी महबूबा को फूल भेजने में कर रहा था। 

            ऐसे थे भारत देश में बच्चों के चाचा के नाम से मशहूर जवाहर लाल नेहरू और उनकी रंगीन मिजाजी। 

शनिवार, 19 नवंबर 2022

रानी लक्ष्मी बाई




दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी। 

            यह कविता हम बचपन से सुनते और गुनगुनाते आ रहे हैं, इन पंक्तियों से हमे झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के शौर्य और अदम्य साहस का पता चलता है और हमारी रगों मे उत्साह-उमंग की लहर दौड़ जाती है। 

            रानी लक्ष्मी बाई मराठा शासित झांसी राज्य की महारानी थी। रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। रानी लक्ष्मी बाई उन महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार से लोहा लेकर उन्हे धूल चटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने महज 29 वर्ष की उम्र में ही अँग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया और रणभूमि में ब्रिटिश सरकार को अपनी वीरता का परिचय देते हुए अपने शौर्य को दर्शाया। 

            रानी लक्ष्मी बाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था। उन्हे लोग प्यार से मनु के नाम से भी पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताँबे तथा माँ का नाम भागीरथी बाई था। रानी लक्ष्मी बाई ने बचपन से ही शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र चलाना भी सीखा था, जिसमे तलवारबाजी में उन्हे महारत हासिल थी। 

            सन 1842 में मणिकर्णिका का विवाह झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ। विवाह के पश्चात उनका नाम लक्ष्मी बाई कर दिया गया। लोग उन्हे रानी लक्ष्मी बाई के नाम से जानने लगे। विवाह के बाद सन 1851 में रानी लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वह 4 माह ही जीवित रहा। इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई और राजा गंगाधर राव ने एक पुत्र को गोद लिया, जिसका नाम उन्होंने दामोदर राव रखा। पुत्र को खो देने के बाद राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। 21 नवंबर 1853 को रानी लक्ष्मी बाई ने अपने पति को खो दिया। राजा गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी राज्य की सारी जिम्मेदारी रानी लक्ष्मी बाई के ऊपर आ गई। 

            रानी लक्ष्मी बाई के शासन मे झांसी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बन कर उभरा। इसी दौरान रानी लक्ष्मी बाई ने झांसी राज्य मे एक मजबूत सेना का गठन किया। इस सेना में पुरुषों के अलावा कई महिलाएं भी शामिल थी। रानी लक्ष्मी बाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना का प्रमुख बनाया गया। रानी लक्ष्मी बाई की सेना में कई ऐसे महारथी थे जिनको युद्ध का काफी अनुभव था, इनमें दोस्त खान, रघुनाथ सिंह, लाला भाऊ बक्शी, मोती बाई, सुंदर - मुन्दर आदि कुछ महारथी थे। 

            10 मई 1857 को मेरठ में ब्रिटिश सेना मे भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह देश के कई राज्यों में बढ़ता चल गया। सन 1858 में सर ह्यू रोज़ के नेतृत्व में अँग्रेजों ने झांसी पर हमला कर दिया। झांसी की ओर से बहादुर सेनापति तात्या टोपे के नेतृत्व में 20000 सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना से डट कर मुकाबला किया। यह युद्ध 2 सप्ताह तक चला। अँग्रेजों ने किले की कई दीवारों को तोड़ दिया तथा किले में कई जगह कब्जा कर लिया, फिर अंग्रेज झांसी पर कब्जा करने में सफल हो गए। किसी तरह रानी लक्ष्मी बाई वहाँ से निकालने में सफल रहीं और वे कालपी पहुँच गईं। 

            अँग्रेजों ने सर ह्यू रोज़ के नेतृत्व में 22 नवंबर 1858 को कालपी पर आक्रमण किया। इस बार रानी लक्ष्मी बाई ने वीरता का परिचय देते हुए तथा पूरी रणनीति अपनाते हुए अँग्रेज सेना से लोहा लिया। अँग्रेज सेना को हार का मुँह देखना पड़ा और अँग्रेज सेना पीछे हट गई। सर ह्यू रोज़ ने दोबारा धोखे से कालपी पर हमला कर दिया, जिसमे रानी लक्ष्मी बाई को हार का सामना करना पड़ा। 

            युद्ध में परास्त होने के बाद रानी लक्ष्मी बाई ने अपने लक्ष्य को सफल बनाने के लिए ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी। कई मुख्य योद्धा नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे तथा बाँदा के नवाब के साथ मिलकर युद्ध किया और अँग्रेजों के गुलाम ग्वालियर के महाराजा को परास्त किया, तथा ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया। ग्वालियर के किले को संभालने के लिए अपने साथी पेशवा को सौंप दिया। 

            रानी लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र की कमान संभाली। उनकी सेना में पुरुषों के अलावा महिलाएं भी शामिल थीं। अँग्रेज रानी लक्ष्मी बाई को न पहचान सकें इस लिए रानी पुरुष की पोशाक में युद्ध करती थीं। इस युद्ध में रानी काफी घायल हुई, सर पर तलवार लगने के कारण वे अपने घोड़े से नीचे गिर गईं, अँग्रेज उन्हे नहीं पहचान पाए और उन्हे वहीं छोड़ दिया। जहाँ से उनके सैनिक उनका पार्थिव शरीर गंगादास मठ ले गए एवं अंतिम संस्कार किया। 

            यह थी वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई की वीरता की कहानी की छोटी सी झलक। 

महारानी लक्ष्मी बाई अमर रहें 

वन्दे मातरम 

भारत माता की जय 


गुरुवार, 17 नवंबर 2022

वीर सावरकर




            भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर नगर में हुआ था। सावरकर महान क्रांतिकारी, चिन्तक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता तो थे ही, एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढ़ंग से लिपिबद्ध किया। हिन्दू राष्ट्र की राजनैतिक विचार धारा "हिन्दुत्व" को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय भी सावरकर को जाता है। 

            क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिन्दुत्व के प्रणेता विनायक सावरकर का जन्म धार्मिक और राष्ट्रीय विचारों वाले दामोदर पंत सावरकर एवं राधाबाई के घर में हुआ था। उनके दो भाई गणेश (बाबाराव) एवं नारायण सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद 1889 में प्लेग की बीमारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला और अनेक कष्ट सहते हुए अपनी सहधर्मिणी के साथ मिलकर अपने छोटे भाई-बहनों का लालन पालन किया। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी मे बड़े भाई गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा असर पड़ा। 

            बचपन से ही मेधावी छात्र रहे विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और साथ ही अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली कुछ कविताएं भी लिखीं, जिन्हे सुनना और पढ़ना अपने आप में स्वर्गिक आनंद देता है। वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित हो उन्होंने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित कर के मित्र मेलों का आयोजन किया और शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित कर दी। 

            आर्थिक संकट के बावजूद बड़े भाई बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा का समर्थन किया और इस हेतु सहायता करने के सभी संभव प्रयत्न किये। इसी बीच सन 1901 में ही रामचन्द्र त्रयंबक चिपलूनकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ, जिसके बाद उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने पुणे के फर्गुयसन कालेज से बी० ए० किया, जहाँ पर भी वे युवकों में बलिदानी भावना जागृत करते रहे। 1904 में उन्होंने अभिनव भारत नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जला कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की। तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हे लन्दन में रह रहे क्रान्तिधर्मा श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति मिली। 

            लन्दन स्थित श्यामजी के इंडिया हाउस से जुड़ना सावरकर जी के जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ न केवल उन्हे समान विचारधारा वाले लोगों से मिलने का अवसर मिला बल्कि अपने विचारों के प्रकटीकरण का उचित मंच भी। 10 मई 1907 को श्यामजी ने इंडिया हाउस लन्दन में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई, जिस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातंत्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। ये अपने आप में बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि इसके पहले इतिहासकार इस घटना को ब्रिटिश नजरिये से देखकर गदर या सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते थे, परन्तु सावरकर ने भारतीय नजरिये से इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की उपमा दी। इसी के बाद इतिहासकारों में उस घटना को देखने की एक नयी दृष्टि उत्पन्न हुई, जिसका पूरा श्रेय सावरकर को जाता है। 

            मराठी भाषा में उनकी पुस्तक "द इण्डियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस : 1857," जून 1908 में तैयार हो गयी, परंतु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिए लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में कुछ उत्साही युवाओं ने इसका अँग्रेजी अनुवाद कर इसे गुप्त रूप से हालैण्ड से प्रकाशित कराया और फिर इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुंचाई गईं। भारतीय क्रांतिकारियों के लिए ये पुस्तक गीता के समान प्रेरणा देने वाली सिद्ध हुईं। इस पुस्तक की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित किये गये। हॉलैंड में प्रकाशित प्रथम संस्करण के बाद इसका द्वितीय संस्करण अमेरिका में गदर पार्टी के लाला हरदयाल ने, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह ने, और चतुर्थ संस्करण सुदूर पूर्व में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने प्रकाशित करवाया। देश की कई भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया और क्रान्ति पथ के राही इसे अपने प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार करने लगे। इस बीच मराठी भाषा में लिखी मूल प्रति पेरिस में मैडम भीखा जी कामा के पास सुरक्षित रही, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांस के हालात बिगड़ने पर अभिनव भारत के डॉक्टर कौतीन्हों को सौंप दिया। लगभग 40 वर्षों तक किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह रक्षा करने के बाद उन्होंने इसे रामलाल बाजपेयी और डॉक्टर मुंजे को सौंप दिया, जिनसे ये मूल प्रतिलिपि पुनः वीर सावरकर को प्राप्त हुई। 

            इसी बीच मई 1909 में सावरकर ने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परंतु उन्हे वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। उन्होंने अँग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी क्रान्ति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया, उन्ही की प्रेरणा से क्रान्तिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लॉर्ड करजन की हत्या करके भारतीयों के अपमान का प्रतिशोध ले लिया। सावरकर की गतिविधियों और लेखों से लन्दन भी काँप उठा और अन्ततः 13 मार्च 1910 को उन्हे लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया। 8 जुलाई 1910 को जब उन्हे लन्दन से बन्दी बना कर भारत लाया जा रहा था, उस समय वे सिपाहियों को चकमा देकर समुद्र में छलाँग लगा कर तैरते हुए फ्रांस के मारसेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़ कर मारसेलिस बन्दरगाह पर जा पहुँचे। उनके इस साहसिक कार्य से पूरा विश्व हिल गया था। जिसके कारण पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुआ। 

            सावरकर का समुद्र में छलाँग लगा कर मरसेलिस पँहुचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हे अवैध तरीके से पुनः हिरासत मे लेने के कारण विफल भले ही रहा हो पर उनकी इस छलाँग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआ और आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पड़ा था। पूरे विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने इसे नापसन्द किया। सावरकर को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपा जाये की माँग पूरे फ्रांस ही नही अपितु पूरे विश्व में हुई। इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आँच पहुँची और फ्रांस में ब्रिटिश कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया, जिसका समर्थन विश्व के जाने-माने लोगों ने किया। अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पड़ा और सावरकर की फ्रांस की भूमि पर किये गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपने का करार करना पड़ा। 

            सावरकर पर मुकदमा चलाकर 24 दिसंबर 1910 को उन्हे आजीवन कारावास की सजा दी गई और इसके बाद 31 जनवरी 1911 को उन्हे दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। नासिक जिले के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए नासिक षडयन्त्र काण्ड के अंतर्गत इन्हे 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया, जहाँ कारावास में ही 21 वर्षों बाद सावरकर की मुलाकात अपने बड़े भाई से हुई, जब वे दोनों कोल्हू से तेल निकालने के बाद जमा कराने के लिए पहुँचे थे। अपार कष्ट सहते और अपने को तिल-तिल गलाते सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। 

            उसके बाद सावरकर ने स्वयं को हिन्दुत्व के लिए समर्पित कर दिया, उनको अनुभूति हो चुकी थी कि सशक्त हिन्दू के बिना सशक्त भारत नहीं बन सकता। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19 वें सत्र के अध्यक्ष चुने गए, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिए अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने हिंदुओं के सैनिकीकरण की वकालत की और इस हेतु घूम-घूम कर हिन्दुओं को सेना मे शामिल होने के लिए प्रेरित किया। जिसके सदपरिणाम बाद में सामने आए, जो उनकी दूरदृष्टि को सिद्ध करते हैं। उन्ही की सलाह पर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भारत से चुपचाप निकल कर विदेश चले गए और आजाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी। सावरकर ने भारत विभाजन का प्रबल विरोध किया और स्वतन्त्रता प्राप्ति पर कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है परंतु वह खण्डित है, जिसका बहुत दुःख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होती, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं। 

            5 फरवरी 1948 को उन पर गाँधी वध का आरोप लगा कर काँग्रेस सरकार ने प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया, जिससे उन्हे बाद में न्यायालय के माध्यम से मुक्ति मिली। मई 1952 में पुणे की एक विशाल सभा मे उन्होंने अपने अभिनव भारत नामक संगठन को उसके उद्येश्य (भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति) के पूर्ण होने पर भँग कर दिया। 

            अपनों की मृत्यु, देश की स्थिति और सरकारी उदासीनता ने उनके शरीर को तोड़ कर रख दिया था। उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा था। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी 1966 को बम्बई में प्रातः 10 बजे उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। 

            दुःखद है कि आज की पीढ़ी सावरकर को बिसरा चुकी है और हमारा सत्ता तंत्र इस महान सेनानी को लोगों की स्मृति में बनाए रखने में विफल रहा है। फिर भी कुछ प्रयास उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने की दिशा में किये गए है। उनकी स्मृति मे डाक टिकट जारी किया गया, संसद में उनका चित्र लगाया गया और पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डे का नाम सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया। 1966 में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म "सजा-ए-काला पानी" में सावरकर जी के बारे में वर्णन किया गया, जिसमें अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। 2001 में वेद राही और सुधीर फड़के ने "वीर सावरकर" नाम से एक बायोपिक चलचित्र बनाया। अपने निर्माण के कई वर्षों के बाद यह रिलीज़ हुई, जिसमें वीर सावरकर का चरित्र शैलेन्द्र गौड़ ने अभिनीत किया। 

            हमारा कर्तव्य है कि हम स्वतन्त्रता संग्राम के महान योद्धा विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य "वीर सावरकर" की स्मृति को अक्षुण रखें। उन्हे कोटी कोटी नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि। 


वन्दे मातरम 

भारत माता की जय 

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

शबरी के राम





            भोली शबरी राम के मुखारविंद को एकटक निहार रही थी। उसके जीवन भर की प्रतीक्षा का आज अंत हो चुका था। राम के दर्शन करके वो धन्य हो रही थी। राम उसके जूठे बेर बड़े चाव से खा रहे थे। उनके चेहरे पर तृप्ति और संतोष का भाव था।

            माता शबरी ने सकुचाते हुए राम से पूछ ही लिया -- "यदि रावण का वध नहीं करना होता तो तुम यहाँ कहाँ से आते?" सहसा राम के मुख पर गंभीरता के भाव प्रकट हुए। राम बोले - "भ्रम में न रहो माँ ! क्या राम सिर्फ रावण का वध करने आया है? अरे रावण को तो लक्ष्मण अपने पैरों से बाण चला कर मार सकता है। दूर अयोध्या से हजारों कोस चल कर इस गहन वन में भटकते हुए राम तो केवल तुमसे मिलने आया है माता। ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखंडी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला-चिल्ला कर उत्तर दे कि "इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।"

            जब कोई कपटी भारत की परंपराओं पर अँगुली उठाए तो काल उसका टेटवा दबा कर कहे " चुप रहो ! भारत की सभ्यता ही एकमात्र सभ्यता है जहाँ राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वन वासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार करता है। "

            "राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाये तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चलकर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है। राम वन में इसलिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएं अवश्य पूरी होती हैं।"

            शबरी एकटक राम के मुख से झलकते राष्टभिमान को निहार रही थी। 

            राम कहते रहे- "राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है। माता ! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के लिए, आदर्श की स्थापना के लिए, राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अन्त करना ही धर्म है। राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है पहले अपने देश में बैठी शत्रु समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषण जैसे देशद्रोहियों की कमर तोड़ी जा सके। राम आया है भावी पीढ़ियों को यह बताने कि रावणों से युद्ध केवल राजा और सेना की शक्ति से नहीं, बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से और वनवासियों के सहयोग से जीते जाते हैं।"

            शबरी की आँखों मे स्नेह और स्वाभिमान के आँसू छलक आए थे। उसने बात बदल कर कहा "कन्द खाओगे?" राम मुस्कुराए और बोले "बिना खाए जाऊँगा नहीं माँ।"

            शबरी कुटिया से झपोली में कन्द ले कर आई और राम के समक्ष रख दिए। राम और लक्ष्मण खाने लगे तो बोली "मीठे हैं न प्रभु?" राम ने हँसते हुए कहा "माँ के पास आकर खट्टे और मीठे का भेद भूल गया हूँ। यही अमृत है, बस इतना समझ रहा हूँ।" शबरी मुस्कुराई और बोली "गुरुदेव ने सही कहा था कि सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो राम।"


साभार - गौरव प्रधान 

शनिवार, 5 नवंबर 2022

महाराजा जामनगर दिग्विजय सिंह और पोलैंड का सम्बन्ध





            आपने पोलैंड का नाम सुना होगा। कुछ लोगों ने पोलैंड की यात्रा भी की होगी। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पोलैंड की राजधानी वारसो में जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह के नाम पर एक चौक क्यों समर्पित किया गया? 

            ये कहानी भारत के वसुधैव कुटुंबकम की धारणा से जुड़ी है। बात दूसरे विश्व युद्ध की है। जब 1939 में जर्मनी और रूस की सेना ने पोलैंड पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध में अपने देश को बचाने के लिए पोलैंड के हजारों सैनिक मारे गये और उनके बच्चे अनाथ हो गये। 

            1941 तक ये बच्चे पोलैंड के शिविरों में रहते रहे, लेकिन इसके बाद रूस ने बच्चों को वहाँ से भगाना शुरू कर दिया। तब 600 से ज्यादा बच्चे अकेले या अपनी माँ के साथ एक नाव पर सवार होकर जान बचाने के लिये निकले थे। अनेक देशों से इन लोगों ने शरण माँगी पर सभी देशों ने शरण देने से इनकार कर दिया। तब भारत अंग्रेजों का गुलाम था और अंग्रेजों ने भी बच्चों को आश्रय देने से मना कर दिया। 

            दूसरे विश्वयुद्ध के समय पोलैंड पूरी तरह तबाह हो गया था। सिर्फ महिलाएं और बच्चे बचे थे बाकी वहाँ के सब पुरुष युद्ध में मारे गये थे। पोलैंड की स्त्रियों ने अपने बच्चों के साथ और कुछ बचे लोगों को साथ लेकर पोलैंड छोड़ दिया। काफी देशों में भटकने के बाद उनका जहाज भारत के गुजरात में स्थित जामनगर के तट पर रुका, तब वहाँ के राजा जाम दिग्विजय सिंह जडेजा ने उनकी दीन-हीन हालत देख कर उन्हे अपने राज्य में आश्रय दिया। केवल आश्रय ही नहीं दिया बल्कि उनके बच्चों को आर्मी की ट्रेनिग दी, उनको पढ़ाया-लिखाया। बाद में उन्हे हथियार देकर पोलैंड भेजा। जहाँ उन्होंने जामनगर में मिली आर्मी की ट्रेनिग से देश को पुनः आजाद कराया। 

            पोलैंड के निवासी महाराजा साहब जामनगर को अन्नदाता मानते है। पोलैंड के संविधान के अनुसार जाम दिग्विजय सिंह उनके लिए ईश्वर के समान है। इसीलिए उनको साक्षी मानकर आज भी वहाँ के नेता संसद में शपथ लेते हैं। पोलैंड मे यदि किसी भी नागरिक ने जाम दिग्विजय सिंह जी का अपमान किया तो सजा के तौर पर उसे तोप के मुँह पर बांध कर उड़ा दिया जाता है। आज भी पोलैंड जाम साहब के उस सुकर्म को नहीं भूला। 

            दुर्भाग्य से भारत देश मे ऐसे इतिहास को नहीं पढ़ाया गया। महाराजा जामनगर दिग्विजय सिह जी को अधिकांश भारतीय जानते ही नहीं होंगे। इन वामियों और कांगीयों ने ऐसे सारे इतिहास को छुपा दिया। परंतु अब समय आ गया है कि जब हम अपने इतिहास को सभी भारतीयों तक पहुंचाएं। 

वन्दे मातरम 

भारत माता की जय