सन 1857 के महायुद्ध से बहुत पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध देशवासियों का संघर्ष शुरू हो चुका था। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम बहुत संगठित रूप मे सामने आया, इसलिए दुनिया उसे जान पाई। यह महासंग्राम दबा दिया गया पर भारतीय समाज में इसकी अनुगूँज बहुत समय तक बनी रही। इस महासंग्राम की चिंगारी राख के नीचे हमेशा जिन्दा रही। इस महासंग्राम के हिसाब से देखा जाए तो क्रान्तिकारी कहे जाने वाले लोग स्वतन्त्रता के इस समझौताविहीन संघर्ष को अपने रक्त से 63 वर्ष तक सींचते रहे। 1920 के गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन तक यह चिंगारी सुलगती रही। इसके पहले तक तो एक अंग्रेज द्वारा बनाई गई काँग्रेस नामक संस्था अपने जन्म के 35 साल बाद तक मात्र "गॉड सेव द किंग" जैसी प्रार्थनाएं अपनी सभा में गाती रही। जनता के मन में काँग्रेस का संग्रामी रूप असहयोग आन्दोलन के दिनों में पहली बार प्रस्फुटित हुआ।
असहयोग आन्दोलन की लहर में पूरा देश बह गया था। काशी में संस्कृत पढ़ रहे 14 वर्षीय छात्र ने भी इसमें अपनी आहुति दी। चंद्रशेखर तिवारी नामक इस किशोर को धरना देने के आरोप में गिरफ्तार कर पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट की अदालत में पेश किया गया, जो कड़ी सजायें देने के लिए कुख्यात थे। उन्होंने इस किशोर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया, तो उसने अपना नाम "आजाद", पिता का नाम "स्वाधीन" और घर का पता "जेलखाना" बताया। मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए और उन्होंने चंद्रशेखर को पंद्रह बेंतों की सजा सुना दी। जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निवस्त्र देह पर बेंतों के प्रहार किये। प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी। पीड़ा को सहन कर वह बालक हर बेंत के साथ "भारत माता की जय" बोलता जाता था। इस पहली अग्नि परीक्षा में सम्मानपूर्ण उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में नागरिक अभिनंदन किया गया। अब वह बालक चन्द्रशेखर आजाद कहलाने लगा। इस "आजाद" शब्द की सार्थकता को उस बालक से बेहतर शायद ही कभी किसी ने निभाया हो।
चन्द्रशेखर के कोमल शरीर पर लगे बेंतों के घाव तो भर गए पर उनके निशान और कसक देर तक बनी रही। गाँधी द्वारा मनमर्जी से असहयोग आन्दोलन वापस लेने पर बहुत से युवाओं की तरह चन्द्रशेखर को भी धक्का लगा। असहयोग आन्दोलन की लड़ाई से मोहभंग हुआ तो भीतर की छटपटाहट उस बालक को क्रान्तिकारी संग्राम की ओर खींच ले गयी। काशी क्रान्तिकारियों का केन्द्र था। काशी में ही क्रान्ति पथ के पथिक मन्मथनाथ गुप्त मिले और चन्द्रशेखर निर्भीक होकर उनके साथ चल पड़े। फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। चंद्रशेखर आजाद क्रान्तिकारियों कमांडर इन चीफ बन गए। चन्द्रशेखर आजाद एक ऐसा नाम हो गया जो वीरता का पर्याय हो गया।
इस नर शार्दूल चन्द्रशेखर आजाद का जन्म झाबुआ जिले (तत्कालीन मध्य भारत) के एक आदिवासी ग्राम भावर (अब चन्द्रशेखर आजाद नगर) में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। यह गाँव अब झाबुआ जिले से काट कर अलग जिला बना दिए गए अलीराजपुर जिले (छत्तीसगढ़) में आता है। चन्द्रशेखर आजाद के जन्म की यह तिथि उनके साथी भगवान दास माहौर ने आजाद की माँ से प्राप्त जानकारियों के आधार पर निश्चित की थी। "यश की धरोहर" नामक पुस्तक में माहौर जी ने लिखा है, "चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य भारत की झाबुआ तहसील के ग्राम भावरा में हुआ था, ........... आजाद की माता जी का देहान्त 22 मार्च 1951 को झाँसी में मेरे घर पर ही हुआ था। वे मेरे तथा भाई सदाशिव मलरापुरकर के साथ मेरे घर पर ही दो साल रहीं थीं और तभी उन्होंने आजाद के जन्म और बाल्यकाल की बातें बताईं थीं, जिन्हे मैंने नोट कर लिया था। माता जी ने बताया था कि चन्द्रशेखर का जन्म सुदी दूज सोमवार को दिन में दो बजे हुआ था। सम्वत माता जी को विस्मृत हो गया था।" इसी तिथि के आधार पर माहौर जी ने आजाद की जन्म कुण्डली बनाई और आजाद की जन्मतिथि 23 जुलाई 1906 नियत की। हालाँकि उनके पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका कस्बे के लोग उनका जन्म दिवस 7 जनवरी 1906 मानते हैं।
चन्द्रशेखर आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव के रहने वाले थे, वहाँ अपनी विमाता के साथ रहते थे। हालाँकि उनके पूर्वज मूल रूप से मसवानपुर (कानपुर) के निकट भौंती गाँव के रहने वाले थे। सामाजिक मान-प्रतिष्ठा होने के बावजूद तिवारी जी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। सन 1899 में भीषण अकाल पड़ने के कारण उन्हे अपना गाँव बदरका छोड़ना पड़ा। अपने एक रिश्तेदार हजारीलाल का सहारा लेकर वे अपनी पत्नी जगरानी देवी और पुत्र सुखदेव को लेकर अलीराजपुर रियासत जा पहुँचे। बदरका निवासी राम लखन अवस्थी, जो वहाँ पुलिस में दरोगा थे, ने उन्हे पुलिस की नौकरी दिलवा दी परंतु इसमे उनका मन न लगा, क्योंकि अपने लोगों पर ही जोर-जुल्म करना उनको गवारा न था। नौकरी छोड़कर वे समीपस्थ गाँव भाबरा में बस गए। जहाँ उन्होंने भैंस पाल कर दूध का व्यवसाय शुरू किया। किसी बीमारी के कारण भैंसे मर गईं, तब उन्हे पाँच रुपये मासिक पर सरकारी बगीचे में चौकीदारी करनी पड़ी।
इसी निपट विपन्नावस्था में यहीं बालक चन्द्रशेखर का जन्म हुआ और बचपन बीता। बचपन से ही चन्द्रशेखर घुमंतू प्रवृत्ति के थे। अधिकांश समय भील बालकों के साथ जंगलों की खाक छानते फिरते। उन्हे तीर-कमान बनाने का बहुत शौक था और इनसे वे जंगली जानवरों का शिकार करते। जंगल में ही आजाद भील बालकों से निशाना लगाना सीखते। कुश्ती और दंड लगाने का भी उन्हे बहुत शौक था। उनके पिता के मित्र मनोहरलाल त्रिवेदी, जो आजाद के क्रान्तिकारी जीवन में भी उनके बहुत निकट रहे, उन्हे और बड़े भाई सुखदेव को पढ़ाते थे पर पढ़ने में आजाद का मन नहीं लगता था।
परिवार की निर्धनता के कारण कुछ समय आजाद ने तहसीलदार के यहाँ भृत्य की नौकरी की, पर यह गुलामी उनके स्वाभिमानी मन को रास न आयी। पिता के साथ प्रायः किसी न किसी विषय पर उनकी खटपट हो जाती थी, जिस कारण से उनका मन अपने घर से उचटने लगा। एक दिन वो परिवार को बिना बताये घर छोड़ कर चले गये। इस सम्बन्ध में आजाद पर महाकाव्य लिखने वाले श्रीकृष्ण सरल ने लिखा है कि "कुछ लोगों का कहना है कि वे पहले वाराणसी गये थे। तथ्यों के अन्वीक्षण से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि पहले वो बम्बई गये थे, पर वहाँ मन न लगने के कारण वहीं से वाराणसी जा पहुँचे। वाराणसी पहुँचने पर उन्होंने अपने माता-पिता को सूचना दी थी।"
आजाद के फूफा जी पण्डित शिवविनायक मिश्र बनारस में ही रहते थे। कुछ उनका सहारा लिया और कुछ खुद भी पहचान निकाली और "संस्कृत विद्यापीठ" में भर्ती होकर संस्कृत का अध्ययन करने लगे। उन दिनों बनारस में गाँधी के असहयोग आन्दोलन की लहर चल रही थी। विदेशी माल न बेचा जाये, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे। ऐसे ही एक धरने में चन्द्रशेखर भी पकड़े गए और वो चर्चित प्रसंग हुआ जिससे चन्द्रशेखर तिवारी को दुनिया ने चन्द्रशेखर आजाद के रूप में जाना, जिसका विस्तृत विवरण ऊपर किया गया है। बाद में क्रान्तिपथ का राही बनकर वो क्रान्तिकारियों के साथ कदम से कदम मिला कर चल पड़े।
उन दिनों उत्तर भारत का क्रान्तिकारी दल शचीन्द्र नाथ सान्याल और योगेश चन्द्र चटर्जी के नेतृत्व में चल रहा था। अब नई चेतना और विचार के साथ "हिंदुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम से क्रान्तिकारी नया विधान लेकर आये। जिसमें देश की स्वतन्त्रता के लिए क्रान्तिकारी प्रयासों के साथ ही ऐसी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के निर्माण का संकल्प था, जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण सम्भव न होगा।
असहयोग आंदोलन के समय छोड़े गए हथियार क्रान्तिकारियों ने फिर से उठा लिए। क्रान्तिकारी दल के नए नेता के रूप में शाहजहाँपुर के पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल सामने आये। उन्होंने पार्टी चलाने के लिये कुछ धनी और देशद्रोही व्यक्तियों के घरों में डकैतियाँ डालीं, जिनमें चन्द्रशेखर आजाद भी साथ थे। पार्टी नेतृत्व जल्द ही ऐसे कार्यों से ऊब गया। उसे लगा कि यह अपने ही देश वासियों पर ज्यादती है, इसलिए क्यों न सीधे सरकार पर हमला किया जाये।
योजना बनी और 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पर एक सवारी गाड़ी को रोककर सरकारी खजाने की लूट की गयी। इस काम में रामप्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र बख्शी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुंदीलाल और बनवारी लाल ने हिस्सेदारी की। योजना तो पूर्णतः सफल रही पर बाद में कुछ सुराग मिलने पर जब अँग्रेज सरकार ने धर-पकड़ शुरू की तो दल के नेता बिस्मिल और लगभग ४० क्रान्तिकारी युवक सरकार की गिरफ्त में आ गए। चन्द्रशेखर आजाद पकड़े नहीं जा सके।
काकोरी का मुकदमा लखनऊ की अदालत में 18 महीने चला, जिसमें बिस्मिल, अशफाक उल्ला, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को फाँसी की सजायें दी गईं, कुछ को काले पानी की सजा और अन्य को कारावास का दण्ड मिला। इस घटना के बाद संगठन बिखर गया और क्रांति की मशाल बुझती सी लगी, पर एक सूरमा अभी मुक्त था। आजाद फरार हो गए पर चुप नहीं बैठे। 19 दिसंबर 1927 को काकोरी काण्ड में हुई फाँसियों के बाद दल के नेतृत्व का भार उनके काँधों पर आ गया। आजाद ने खिसक कर झाँसी में अपना अड्डा जमा लिया। झाँसी मे आजाद को एक क्रान्तिकारी साथी मास्टर रुद्र नारायण सिंह का संरक्षण मिला। झाँसी में ही सदाशिव राव मलकापुरकर , भगवान दास माहौर और विश्वनाथ वैशम्पायन के रूप में उन्हे अच्छे साथी भी मिल गए।
झाँसी की बुन्देलखंड मोटर कम्पनी में कुछ दिन उन्होंने मोटर मैकेनिक के रूप में काम किया, मोटर चलाना सीखा और पुलिस अधीक्षक की कार चला कर मोटर चलाने का लाइसेन्स भी ले आए। जब झाँसी में पुलिस की हलचल बढ़ने लगी तो आजाद ओरछा राज्य में खिसक गए और सातार नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर ब्रह्मचारी के रूप में रहने लगे। आजाद के न पकड़े जाने का एक रहस्य यह भी था कि संकट के समय वे शहर छोड़कर गाँवों की ओर खिसक जाते थे और स्वयं को सुरक्षित कर लेते थे।
उन्होंने संगठन के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़ा और गुप्त रहकर तेजी से पार्टी का संचालन किया। सौभाग्य से इसमें उन्हे भगत सिंह के बौद्धिक नेतृत्व का जबरदस्त सहयोग मिला। अब "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम में "समाजवादी" शब्द जोड़कर नई योजनाएं तैयार की जाने लगीं। आजाद को पार्टी का सेनापति बनाया गया। स्वतंत्रता से प्रजातन्त्र और फिर समाजवादी लक्ष्य तक की क्रान्तिकारियों की इस संघर्ष यात्रा पर गर्व किया जा सकता है, जबकि दूसरी ओर आजादी के लिए आन्दोलनरत काँग्रेस "पूर्ण स्वतंत्रता" के अपने प्रस्ताव तक भी नहीं पहुँच पायी थी।
साइमन कमीशन का झांसा आया तो देश भर में उसका तीव्र विरोध हुआ। हर कहीं "साइमन गो बैक" के नारे और काले झंडे लहराए गए। लाला लाजपत राय पर ऐसे ही एक जुलूस में लाठियाँ बरसाई गई, जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गये और उनकी मृत्यु हो गयी। क्रान्तिकारियों को लगा कि यह देश का अपमान है और इसका बदला लिया जाना चाहिए। आजाद, भगतसिंह, राजगुरू और कुछ अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर दिन दहाड़े अँग्रेज पुलिस आफिसर साँडर्स को मार कर यह साबित कर दिया कि देश के नौजवानों का खून अभी ठण्डा नहीं हुआ है। उन्होंने देश की जनता और हुकूमत को यह भी बताया कि क्रान्ति के रास्ते में हिंसा होती ही है।
1928 का वर्ष गहरे असंतोष का था। सब ओर हलचल थी। केन्द्रीय असेम्बली में सरकार दो अत्यधिक दमनकारी कानून पेश करने वाली थी। इस माहौल में क्रान्तिकारी दल ने इनका विरोध करने का निर्णय किया। तय हुआ कि जिस समय वह जनविरोधी कानून केन्द्रीय असेम्बली में प्रस्तुत हों, ठीक उसी समय बमों का विस्फोट कर के बहरों के कान खोले जायें। आजाद का विचार था कि ऐसा करने के बाद क्रान्तिकारी वहाँ से निकाल जायें, लेकिन बहुमत से फैसला हुआ कि भगतसिंह और बटूकेश्वर दत्त बम फेंकने के पश्चात अपनी पार्टी की नीतियों, सिद्धांतों, लक्ष्यों और घोषणाओं के पर्चे फेंककर गिरफ़्तारी देंगे तथा मुकदमे के समय अदालत को मंच के रूप में इस्तेमाल कर के जनता और दुनिया के बीच अपना प्रचार करेंगे। ऐसा ही हुआ। भगत सिंह और दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को बहरों के कान खोलने के लिए बम का धमाका किया और जेल चले गये।
भगतसिंह, दत्त और बाद में गिरफ्तार अन्य क्रान्तिकारियों पर "लाहौर षडयन्त्र केस" चला। जिसमें भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फाँसी तथा दूसरों को कालापानी की सजायें सुनाई गईं। इससे पहले आजाद ने भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर गंभीरता से कार्य किया। भगवतीचरण इसी तैयारी में बम परीक्षण करते हुए रावी नदी के तट पर शहीद हो गये। फिर भी आजाद ने अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा, पर भगत सिंह बाहर आने को तैयार ही नहीं हुए।
आजाद निरंतर फरार रहकर निर्भीकता से पार्टी का कार्य कर रहे थे। वे अब ब्रिटिश सत्ता के लिये जबरदस्त चुनौती बन चुके थे। पार्टी के कुछ सदस्यों के विश्वासघात के चलते यह बहादुर सेनानायक आखिरकार 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश पुलिस के द्वारा चारों तरफ से घेर लिया गया। अपनी एक मामूली पिस्तौल और चंद कारतूसों के बल पर उन्होंने जिस तरह शक्तिशाली माने जाने वाले अँग्रेजी साम्राज्यवाद को जबरदस्त टक्कर दी, वह संसार के क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमिट गाथा है। ब्रिटिश पुलिस अफसरों ने भी आजाद की बहादुरी का लोहा माना। पुलिस अधिकारी नॉट बाबर ने उनकी शहादत के बाद उनके शव के पास जाकर हैट उतारकर उन्हे सलामी दी। वो आजाद की पिस्तौल अपने साथ इंग्लैण्ड ले गया था। जिसे स्वतन्त्रता के बाद स्वदेश मंगाया गया।
उस समय उत्तर प्रदेश में पुलिस का इन्स्पेक्टर जनरल हॉलिन्स था। हॉलिन्स ने अँग्रेजी पत्रिका "Men Only" के अक्टूबर 1954 के अंक में भारत में अपनी नौकरी के संस्मरणों के प्रसंग में आजाद और पुलिस की इस लड़ाई का जिक्र किया है। इस लेख के अनुसार आजाद की पहली गोली अंग्रेज पुलिस सुपरिन्टेंडेंट नॉट बाबर की बाँह में लगी, जिसने उसकी कलाई तोड़ दी। पुलिस के सिपाही बाड़ की झाड़ियों के पीछे छिपकर आजाद और उनके साथी पर गोलियाँ चलाने लगे। पुलिस इन्स्पेक्टर विश्वेशर सिंह निशाना लेने के लिये झाड़ी के ऊपर से झाँक रहा था। उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आजाद को एक गाली दी। गाली को सुनकर आजाद को क्रोध आया। उस समय तक आजाद के शरीर में दो-तीन गोलियाँ धँस चुकी थी, जिससे खून बह रहा था। ऐसी हालत में भी आजाद ने इन्स्पेक्टर के झाँकते हुए चेहरे का निशाना लेकर गोली चलाई, जिससे विश्वेश्वर सिंह का जबड़ा टूट गया। हॉलिन्स ने अपने संस्मरण में आजाद के इस निशाने की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि " यह आजाद का अन्तिम परन्तु अत्यधिक प्रशंसा के योग्य निशाना था"।
हॉलिन्स ने तो यही लिखा कि आजाद पुलिस की गोलियों से मारे गए परंतु लड़ाई के समय मौजूद लोगों का कहना था कि वहाँ मौजूद दोनों क्रांतिकारियों मे से एक जख्मी होकर लड़ता रहा, जब कि दूसरा भाग गया। (दूसरे क्रान्तिकारी सुखदेवराज को आजाद ने खुद भगा दिया था, जैसा कि बाद में उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा था।) लड़ने वाले ने आखिरी गोली अपनी कनपटी पर मार ली। उसके गिर पड़ने पर भी पुलिसवालों का उसके समीप जाने का साहस नहीं हुआ। कई गोलियां उसके निष्प्राण शरीर पर मार कर ये निश्चय किया गया कि कहीं वो जिन्दा तो नहीं। पुलिस शरीर को अपनी गाड़ी मे उठा कर ले गयी। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उनकी दाईं कनपटी पर गोली का घाव था और घाव के चारों तरफ के बाल जले हुए थे। यह इस बात का प्रमाण था कि कनपटी का घाव, पिस्तौल कनपटी पर रखकर गोली मारने से हुआ था। गोली दूर से आकर लगने पर कनपटी पर बालों के जलने का कोई कारण नहीं होता।
आजाद के अन्तिम संस्कार के बारे में जानने के लिये उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिव विनायक मिश्र द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा। उनके शब्दों में "आजाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गाँधी आश्रम के एक सज्जन मेरे पास आये। उन्होंने बताया कि आजाद शहीद हो गये हैं और उनके शव को लेने के लिये मुझे इलाहाबाद बुलाया गया है। उसी रात्रि को साढ़े चार बजे की गाड़ी से मैं इलाहाबाद के लिए रवाना हुआ। झूँसी स्टेशन पहुंचते ही एक तार मैंने सिटी मजिस्ट्रेट को दिया आजाद मेरा सम्बन्धी है, शव डिस्ट्राय न की जाये। इलाहाबाद पहुंचकर मैं आनन्द भवन पहुंचा तो कमला नेहरू से मालूम हुआ कि शव पोस्टमार्टम के लिए गया हुआ है। मैं सीधा डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के बँगले पर गया। उन्होंने कहा कि आप पुलिस सुपरिन्टेंडेंट से मिल लीजिए। शायद शव जला दिया गया होगा। मुझे पता नहीं कि शव कहाँ है। मैं सुपरिन्टेंडेंट से मिला तो उन्होंने मुझसे बहुत वाद-विवाद किया। उसके बाद उन्होंने मुझे भुलावा देकर एक खत दारागंज के दरोगा के नाम से दिया कि त्रिवेणी पर लाश गयी है, पुलिस की देख-रेख में इनको अन्त्येष्टि क्रिया करने दी जाये। बँगले के बाहर निकला तो थोड़ी ही दूर पर मालवीय जी के पौत्र श्री पदमकांत मालवीय दिखाई दिए। उन्हे पता चला था कि मैं आया हुआ हूँ। उनकी मोटर पर बैठकर हम दारागंज पुलिस थानेदार के पास गए। वे हमारे साथ त्रिवेणी पर गए। वहाँ कुछ था ही नहीं। हम फिर से डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के पास जा रहे थे कि एक लड़के ने मोटर रुकवा कर बताया कि शव को रसूलाबाद ले गये हैं।"
"रसूलाबाद पहुँचे तो चिता में आग लग चुकी थी। अँग्रेज सैनिकों ने मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी थी और आस-पास पड़ी फूस भी डाल दी थी ताकि आग और तेज हो जाये। पुलिस काफी थी। इंचार्ज अफसर को चिट्ठी दिखाई तो तो उसने मुझे धार्मिक कार्य करने की आज्ञा दे दी। हमने फिर लकड़ी आदि मँगवाकर विधिवत दाह-संस्कार किया। चिता जलते-जलते पुरुषोत्तम दास टण्डन एवं कमला नेहरू भी वहाँ आ गईं थीं। करीब दो-तीन सौ आदमी जमा हो गये थे। चिता के बुझने के बाद मैनें अस्थि-संचय किया। इन्हे मैंने त्रिवेणी संगम में विसर्जित कर दिया। कुछ राख एक पोटली में मैंने एकत्र की तथा थोड़ी सी अस्थियाँ पुलिस वालों से छिपाकर मैं अपने साथ लेता आया। उन अस्थियों में से एक आचार्य नरेन्द्र देव भी ले गए थे। शायद विद्यापीठ में जहाँ आजाद के स्मारक का पत्थर लिखा है, वहाँ उन्होंने उस अस्थि के टुकड़े को रखा है। सायंकाल काले कपड़े में आजाद की भस्मी का चौक पर जुलूस निकला। इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरुद्ध हो गयीं। ऐसा लग रहा था जैसे सारा देश अपने इस सपूत को अन्तिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है। जुलूस के बाद एक सभा हुई। सभा को शचीन्द्र नाथ की पत्नी ने संबोधित करते हुये कहा- जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रख कर सम्मानित किया वैसे ही आजाद को भी सम्मान मिलेगा। शाम की गाड़ी से मैं बनारस चला गया और वहाँ विधिवत आजाद का अन्तिम संस्कार किया।"
कुछ अस्थियाँ शिव विनायक जी मिश्र अपने साथ ले गए थे। मिश्र जी की मृत्यु के बाद वो अस्थियाँ उनके पुत्रों से लेकर जून 1976 के अन्तिम सप्ताह में तांबे के कलश में विद्यापीठ में रखी गयीं। 1 अगस्त 1976 को अस्थि कलश की शोभायात्रा विद्यापीठ वाराणसी से प्रारम्भ हुई और वहाँ से रामनगर, चुनार, मिर्जापुर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, रायबरेली, सोख्ता आश्रम, कालपी, उरई, मोंठ, झाँसी, सातार-तट (ओरछा मध्य प्रदेश), कानपुर, बदरका (उन्नाव) होते हुये 10 अगस्त 1976 को लखनऊ पहुँची। रास्ते में पड़ने वाले हर नगर, कस्बे, गाँव में हजारों लोगों ने इस यात्रा का स्वागत किया। लखनऊ के बनारसी बाग स्थित संग्रहालय के प्रांगण में अस्थिकलश संग्रहालय के अधिकारियों को सौंप दिया। तब से जनता के दर्शनार्थ वह अस्थि कलश वहाँ एक विशेष कक्ष में रखा हुआ है।
आजाद की पिस्तौल के बारे में कहा जाता है कि "इलाहाबाद मालखाने के 1931 के रजिस्टर में 27 फरवरी की तारीख में आजाद के पास मिली पिस्तौल का उल्लेख और विवरण मिला, जिसके साथ ही एक नोट लिखा हुआ था कि वह पिस्तौल नॉट बाबर एस एस पी को (जिनकी गोली से आजाद घायल हुए थे) इंग्लैण्ड जाते समय कुछ चापलूस पुलिस वालों ने भेंट कर दी थी, जिसे वह अपने साथ इंग्लैण्ड ले गए थे।"
नॉट बाबर उत्तर प्रदेश सरकार से पेंशन पाते थे, मुस्तफी ने उन्हे वह पिस्तौल तुरंत वापस करने के लिए लिखा। लेकिन काफी इन्तजार के बाद भी जब उनसे कोई जवाब नहीं मिला तब इस मामले में केंद्र से मदद माँगी गयी। केन्द्रीय शासन के सम्बन्धित सचिव ने इंग्लैण्ड मे उस समय के अपने हाई कमिश्नर अप्पा साहब को लिखा कि नॉट बाबर से मिलकर और उन्हे समझा-बुझा कर अथवा वह जो मूल्य माँगे, उसे देकर, हर हाल में वह पिस्तौल प्राप्त कर ली जाए। पहले तो नॉट बाबर ने आनाकानी की पर बाद में उन्होंने इस शर्त के साथ पिस्तौल अप्पा साहब को वापस की कि इसके बदले में उत्तर प्रदेश सरकार एल्फ्रेड पार्क में स्थित आजाद की मूर्ति की एक फ़ोटो के साथ धन्यवाद का पत्र भेजे। इस प्रकार वह पिस्तौल 1972 के प्रारंभ इंग्लैण्ड से दिल्ली और फिर वहाँ से लखनऊ लायी गई। कई वर्षों तक वह पिस्तौल लखनऊ के संग्रहालय में ही रही। जनता पार्टी के शासन मे जब इलाहाबाद का नया संग्रहालय बनकर तैयार हुआ, तब लखनऊ से इलाहाबाद ले जाकर संग्रहालय के विशेष कक्ष में रखी गयी। जिसे आज भी वहाँ देखा जा सकता है।
14 वर्ष के किशोर असहयोगी से भारतीय क्रान्तिकारी दल के अजेय सेनापति बनने तक की आजाद की महागाथा अत्यन्त रोमांचकारी है। वे बहुत गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे, जो रूढ़ियों से बंधा हुआ था। उनके विद्रोही व्यक्तित्व ने उससे बहुत जल्द ही छुट्टी पा ली। अपनी शुरुआती संस्कृत की पढ़ाई छोड़कर वे असायोग आंदोलन मे कूदे। लेकिन वे वहीं ठहर नहीं गये। उन्होंने तेजी से छलाँग लगाकर क्रान्तिकारी दल की सदस्यता ले ली और थोड़े ही समय में उसके कमांडर इन चीफ के पद तक पहुँच गये। वे लंबे समय तक निरंतर सक्रिय रहे। वे पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर बड़े-बड़े काण्ड करते रहे पर कभी भी पुलिस की गिरफ्त में नहीं आये।
नेहरू ने उन्हे अपनी आत्मकथा मे "फासिस्ट" कहा है। नेहरू ने लिखा है कि "आजाद यह मानने को तैयार नहीं थे कि शांतिपूर्ण साधनों से हिन्दुस्तान को आजादी मिल जाएगी।" परंतु आजाद का यह तर्क था कि "आगे कभी भी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है, परंतु वह आतंकवाद न होगा।" क्या ऐसा कहने वाला फासिस्ट हो सकता है। नेहरू से आजाद के ये तर्क उन्हे बौद्धिक क्रान्तिकारी की श्रेणी मे ला खड़ा करते हैं, और नेहरू का आजाद को फासिस्ट कहना उनके बौद्धिक दिवालियापन को दर्शाता है। गाँधी और गाँधीवादी लगातार क्रांतिकारियों की आलोचना करते हुए उन्हे 'हिंसक', 'हत्यारे' और 'फासिस्ट' कहते रहे, पर गाँधी को 'महात्मा' और 'राष्ट्रपिता' कहने के बाद भी भारत की जनता ने क्रान्तिकारियों की उनकी इस आलोचना को सिरे से खारिज कर दिया।
आजाद का कृतित्व आज भी एक चुनौती है। निरे किताबी समाज के लिये उनका मूल्यांकन करना आसान नहीं। आजाद इतिहास में जिस स्थान में पहुँच गये हैं, वहाँ उन्हे छू पाना भी सम्भव नहीं। उनका स्थान हमारे दिलों में है। हमारे लिए वे नायक थे और सदैव रहेंगे।
वीरता की प्रतिमूर्ति चंद्रशेखर आजाद को कोटि-कोटि नमन ।