प्रीति का जन्म स्थान मष्तिष्क है या हृदय....?
पर मेरी पिपासा अभी शान्त नही हुई है...
//और दूसरे लोग वह हैं....जो बुद्धिवाद के व्यापारिक मानदण्ड के पीछे ना भाग कर हृदय एवं भावना के द्वारा जिनके समग्र व्यक्तित्व का संचालन होता है ।//
.... क्या ये दूसरे प्रकार के व्यक्ति बिना अपने मष्तिष्क का प्रयोग किये भगवत आराधन को अपना सुमार्ग बना सकते है...?
आन्तरिक शांति, प्रसन्नता और परमात्मा से सामीप्य प्राप्त करने के लिये जबतक बुध्दि या मष्तिष्क हृदय को प्रेरित नही करेगा तब तक क्या हृदय इस कार्य की दिशा मे अग्रसित होगा...?
महाराज भर्तहरि का जीवन वृतान्त यहां पर उल्लेखित करना चाहता हूं... वे भी राजसी वैभव तभी छोड सके थे जब उनके हृदय मे बाह्य आघात हुआ.. तब उनकी बुध्दि या मष्तिष्क यह सोचने को मजबूर हुआ कि यह बाह्य आकर्षण मित्थ्या है आन्तरिक आनन्द परम सत्ता का अनुसरण ही है... उनको भी परम सत्ता से प्रीति करने को मष्तिष्क ने ही प्रेरित किया....
क्या भाव शून्य हृदय कभी सदमार्ग या ईश्वर भक्ति की ओर बढ सकता है.. कभी नही... और यह भाव मनुष्य का मष्तिष्क ही बनाता है....
मेरा अपना यह मानना है कि मष्तिष्क और हृदय दोनो एक दूसरे के पूरक है... दोनो ही एक दूसरे की सहायता करते है.. सदबुध्दि या परिष्कृत मष्तिष्क और हृदय दोनो का सामजस्य ही भगवत प्रीति या अन्य किसी सुप्रीति को प्रेरित करता है...
....सादर
बल्कि सच तो यह है कि ज्ञान और वैराग्य ये दोनों भक्ति (प्रभु प्रीति) के ही पुत्र हैं, प्रकृति ने अपनी तरफ से मनुष्य को मस्तिष्क (बुद्धि) और हृदय (भाव व प्रीति) दोनो ही दिये हैं....लेकिन व्यक्ति अपने जीवन में अधिकतर प्रायः किसी एक वस्तु की प्रधानता को ले कर जीता है । बुद्धिवाद की प्रधानता में जीने वाला व्यक्ति प्रायः बहिर्मुखी हो कर संसार की
" जिमि प्रति लाभ लोभ अतिकाई " मृग तृष्णा में उलझ कर रह जाता है । तथा उसी बुद्धि को भगवत समर्पित कर के हृदय, प्रेम, प्रीति प्रधान जीवन जीने से उसकी वृत्ति अंतर मुख होकर परमात्मा की तरफ प्रवाहित होती है ।
गीता में भगवान ने कहा है......
" ददामि बुद्धि योगम् तम्, येन माम् उपयान्तिते " भगवान कहते हैं कि.....निरंतर परमात्मा में प्रेम से लगे रहने वाले लोगों को भगवान बुद्धि नहीं.....बुद्धियोग देते हैं (ईश्वर, भक्ति, प्रेम, समर्पित बुद्धि) जिससे व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ।
रामायाण में तुलसी दास जी माँ जानकी की वन्दना करते हुए कहते हैं.......ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपा निरमल मति पावउँ ॥ जब तक पदार्थानुगामिनी बुद्धि के ऊपर इच्छाओं के ऊपर इंद्रिय सुखों से प्रभावित मस्तिष्क एवं विचारों के ऊपर विवेक का परमात्मा की भक्ति से निमज्जित सद विचारों का अनुशासन नहीं होगा तब तक जीवन में पूर्णता संम्भव नहीं है ।
हमेंशा ही ज्ञान की पूर्णता भक्ति में होती है और जो भक्त होता है वह ज्ञानी होता ही है । इस लिये हमारे बुद्धि प्रधान जीवन में भी प्रधानता तो एक मात्र हृदय, भाव, विवेक एवं प्रीति सम्पन्नता की ही होनी चाहिये ।
जो मनुष्य अपने ही समान संपूर्ण जगत मे सम देखता है, सुख अथवा दुख मे सम देखता है वही श्रेष्ठ मनुष्य माना गया है, और यह सम देखने की क्षमता मष्तिष्क के द्वारा ही प्राप्त होती है।
यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि सादृश्यता से सम देखने का यही अभिप्राय है कि जैसे हम अपने सिर, हाथ पैर अथवा शरीर के अन्य अंगों मे भिन्नता होते हुए भी उनमे समान रूप से आत्मभाव रखते है अर्थात सारे अंगों मे अपनापन समान होने से सुख और दुख को समान देखते हैं, वैसे ही सम्पूर्ण जगत को जो मनुष्य समभाव से देखता है वही श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी मे आता है... और यह सम भाव से देखने की प्रेरणा बुध्दि अथवा मष्तिष्क से ही प्राप्त होती है।
अन्त मे इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रीति का जन्म मष्तिष्क और हृदय के सम होने पर ही संभव है ।
आपने आपका कथन शुद्ध ज्ञान योग की पृष्ठभूमि से उठाया है
और मेरी बात भक्ति के धरातल से है, बस इतना ही अन्तर है, और ज्ञान तब तक शुष्क एवं नीरस ही प्रतीत होता है, जब तक उसमें भक्ति संमिश्रित ना हो, हाँ एक बात और भी आपको स्मरण रहनी चाहिये कि......ज्ञान सुरभित, कुसुमित, एवं प्रफुल्लित होता है, एक मात्र भक्ति से ही.......क्योंकि ज्ञान की शोभा {पूर्णता} ही भक्ति से है, साक्षात शुद्ध ज्ञान के मूर्तिमंत विग्रहवान स्वरूप भगवान आद्यगुरू शंकराचार्य ने डिम-डिम घोष करते हुए उद्घोषणा की है कि......." भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज, मूढ़मते " ||
आपका कथन सत्य है परन्तु मष्तिष्क (बुध्दि) को अनदेखा नही किया जा सकता है...
प्रीति दो प्रकार की कही गयी है - (१) वैधी प्रीति, (२) अनुरागा प्रीति ।
वैधी प्रीति में प्रवृत्ति की प्रेरणा शास्त्र से मिलती है, जिसे विधि कहते हैं। शास्त्रग्य, दृढ विश्वासयुक्त, तर्कशील, बुध्दिसम्पन्न तथा निष्ठावान साधक ही वैधी प्रीति के अधिकारी हैं। वे शास्त्र विधि के अनुसार अपने आराध्य की सेवा-पूजा और उपासना करते हैं। उदाहरण स्वरूप - देवर्षि नारद के उपदेश ने प्रह्लाद, ध्रुव आदि के मन मे भगवत प्रीति का बीज अंकुरित किया, ये वैधी प्रीति के अनुगामी थे।
अनुरागा प्रीति अत्यन्त राग के कारण उत्पन्न होती है अनुरागा प्रीति स्वाभाविक आसक्ति ही है। मनुष्य के हृदय में इस अनुरागा प्रीति अथवा स्वाभाविक आसक्ति का बीज भी मष्तिष्क के द्वारा ही रोपित किया जाता है।
वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य प्रीति तो कांचन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठा से कर रहा है। मनुष्य सच्ची प्रीति के लिये हृदय मे कामना ही नही कर रहा। यह कामना मनुष्य के मष्तिष्क द्वारा ही रोपित की जा सकती है पर मनुष्य का मष्तिष्क सिर्फ़ लाभ-लोभ तक ही सीमित रह गया है।
अन्त मे यही कहूंगा कि मनुष्य मे प्रीति के लिये मष्तिष्क और हृदय की समरसता अत्यन्त आवश्यक है।
यह प्रश्न कुछ दिन पूर्व मष्तिष्क में आया| जिस पर कई विद्वत जनों ने अपने विचार रखे..... वह सारे कथ्य यहाँ प्रस्तुत है.....
डा. रजनीश शुक्ल-- प्रीति बौद्ध पदार्थ है या हृद्य है, अनुभव है या अनुभूति। भाव है या गुण, इन प्रश्नों के उत्तर भी चाहिये तभी विवेचन हो सकेगा।
ज्योति कुमार लोहानी-- ये मस्तिष्क बड़ा शरारती है, ऐसे प्रश्न यही खड़े करता है...ह्रदय तो सिर्फ पीता है, एक बार पीने की लत लग गयी तो छूटे नहीं छूटती और ऐसे प्रश्न तंग भी नहीं करते....
ज्योति कुमार लोहानी-- हरि माया कृत दोष गुन, बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब, अस बिचारि मन माहिं ॥
मानसी पाण्डेय-- वास्तविक प्रीति का जन्म स्थान तो निःसंदेह हृदय में ही होता है । शुद्ध, पवित्र हृदय में प्रगट होने वाली प्रीति परमात्मा तक से मिलाप कराने वाली होती है ।
गोपाल कृष्ण शुक्ल-- मानसी जी तो क्या प्रीति के लिये मष्तिष्क की कोई आवश्यकता नही...
मानसी पाण्डेय-- मस्तिष्क से तो बुद्धिवाद का जन्म होता है....और बुद्धि में लाभ हानि का आंकलन होता है, और यदि प्रीति के साथ लाभ या हानि का प्रबन्ध जुड़ा, तो वहाँ व्यापार जन्म लेता है । मस्तिष्क से तो राजनीति हो सकती है....प्रीति नहीं......क्योंकि प्रीति पुष्पित, पल्वित एवं फलित होती है भाव के द्वारा, और भाव की राजधानी तो हृदय ही है.....मस्तिष्क नहीं ।
रुचिर तिवारी-- मेरा मानना है कि जब तक मष्तिष्क में विचार नहीं आयेंगे तब तक ह्रदय क्या कर सकता है, तभी तो मष्तिष्क (मन) को वश में रखने के लिए ध्यान लगाया जाता है| जो प्रीति का विषय आया है उसमे मष्तिष्क और ह्रदय को एक दूसरे का पूरक माना जा सकता है|
गोपाल कृष्ण शुक्ल-- मनुष्य के पास हृदय और मष्तिष्क दोनो ही होते है, जिसमे कि मनुष्य का मष्तिष्क हृदय से आगे ही रहता है... उदाहरण के लिये पक्षी और पशु को ले सकते है... पक्षी अगर मनुष्य का पालतू है तब तो मनुष्य उसके साथ प्रेम भाव रखेगा अन्यथा उसे उडा देगा या मांसभक्षण करने वाला मनुष्य बहुत ही स्वाद के साथ इसे अपने उदर मे पहुंचा देगा... दूसरा पशु है, इसके साथ भी मनुष्य का व्यवहार लगभग वैसा ही रहेगा.. अगर उसका पालतू हुआ तो इसे अपनी गोद या सिर तक मे बिठा लेगा अन्यथा इसे डन्डा ले कर दूर भगायेगा....
मानसी पाण्डेय-- शुक्ला जी प्रणाम ! जीवन में दो प्रकार के लोग होते हैं एक वे....जो अपने जीवन को बुद्धि के अनुसार जीते हैं, उनके जीवन में पाने और खोने की प्रधानता होती है, कई बार चालाकी से वे अपने जीवन में सफल भी दिखायी पडते हैं, संसार की हर चीज़ों से वे परिचित भी होते हैं, उनके जीवन का हर माप दण्ड दिमाग तय करता है......लेकिन ऎसे लोग भाव शून्य होते हैं, हृदय विहीन होते हैं, ऎसे लोगों को बाह्य रूप से सब कुछ प्राप्त होता है किन्तु आन्तरिक शांति, प्रसन्नता और परमात्मा से वन्चित रह जाते हैं । और दूसरे लोग वह हैं....जो बुद्धिवाद के व्यापारिक मानदण्ड के पीछे ना भाग कर हृदय एवं भावना के द्वारा जिनके समग्र व्यक्तित्व का संचालन होता है । लेकिन ऎसे हार्दिक लोगों के जीवन की सफलता की परिभाषा सांसारिक मापदण्ड से ऊँची होती है । क्योंकि हार्दिक एवं भावना से जीने वालों के साथ भगवान होते हैं, ऎसा व्यक्ति हार और असफलता में भी उतना ही आनन्दित रहता है जितना एक बुद्धिवादी अपनी जीत, सफलता एवं प्राप्ति में । ऎसे व्यक्ति का मार्ग दर्शन परमात्मा के द्वारा होगा है ।
शुक्ला जी ! अगर यह बन्दर का बच्चा हम चालाक आदमियों की तरह दिमाग रखता तो सोचता.....कि यह कबूतर तो मेरे खाने का सामान भी नहीं है.....और इससे मुझे कोई फ़ायदा भी नहीं है.....और यह अपनी जाति एवं अपने गोत्र का भी नही है.....तो भला मैं इससे क्यों इतना प्रीति करुँ और यह कबूतर भी अगर कोरा बुद्धिवादी होता राजनैतिक सोच रखता तो, इस बन्दर पर भरोसा ही नहीं करता......परन्तु ये दोनों ही लाभ हानि वाले बुद्धि के विस्तार से बहुत दूर हृदय की प्रीति, भावना के अगाध प्रवाह में प्रवाहित हो रहे हैं ।
गोपाल कृष्ण शुक्ल-- मानसी जी नमस्कार !
बहुत सुन्दरता से आपने विवेचित किया है यथार्थ विचारों को....पर मेरी पिपासा अभी शान्त नही हुई है...
//और दूसरे लोग वह हैं....जो बुद्धिवाद के व्यापारिक मानदण्ड के पीछे ना भाग कर हृदय एवं भावना के द्वारा जिनके समग्र व्यक्तित्व का संचालन होता है ।//
.... क्या ये दूसरे प्रकार के व्यक्ति बिना अपने मष्तिष्क का प्रयोग किये भगवत आराधन को अपना सुमार्ग बना सकते है...?
आन्तरिक शांति, प्रसन्नता और परमात्मा से सामीप्य प्राप्त करने के लिये जबतक बुध्दि या मष्तिष्क हृदय को प्रेरित नही करेगा तब तक क्या हृदय इस कार्य की दिशा मे अग्रसित होगा...?
महाराज भर्तहरि का जीवन वृतान्त यहां पर उल्लेखित करना चाहता हूं... वे भी राजसी वैभव तभी छोड सके थे जब उनके हृदय मे बाह्य आघात हुआ.. तब उनकी बुध्दि या मष्तिष्क यह सोचने को मजबूर हुआ कि यह बाह्य आकर्षण मित्थ्या है आन्तरिक आनन्द परम सत्ता का अनुसरण ही है... उनको भी परम सत्ता से प्रीति करने को मष्तिष्क ने ही प्रेरित किया....
क्या भाव शून्य हृदय कभी सदमार्ग या ईश्वर भक्ति की ओर बढ सकता है.. कभी नही... और यह भाव मनुष्य का मष्तिष्क ही बनाता है....
मेरा अपना यह मानना है कि मष्तिष्क और हृदय दोनो एक दूसरे के पूरक है... दोनो ही एक दूसरे की सहायता करते है.. सदबुध्दि या परिष्कृत मष्तिष्क और हृदय दोनो का सामजस्य ही भगवत प्रीति या अन्य किसी सुप्रीति को प्रेरित करता है...
....सादर
मानसी पाण्डेय-- शुक्ला जी ! आद्य गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है....कि शब्द जालम् महा अरण्यम्, चित्तभ्रमण कारणम्.....मस्तिष्क से समुत्पन्न शब्द जाल ही हमें वास्तविक्ता से दूर रक्खे हुए है । मेरे कहने का अभिप्राय यह बिल्कुल भी नहीं है कि जो अपने जीवन में बुद्धि से जीता है, उसके पास हृदय जैसी कोई चीज़ नहीं होती या हृदय से जीनेवाले भक्त सम्पूर्णतः बुद्धिविहीन होते हैं ।
बल्कि सच तो यह है कि ज्ञान और वैराग्य ये दोनों भक्ति (प्रभु प्रीति) के ही पुत्र हैं, प्रकृति ने अपनी तरफ से मनुष्य को मस्तिष्क (बुद्धि) और हृदय (भाव व प्रीति) दोनो ही दिये हैं....लेकिन व्यक्ति अपने जीवन में अधिकतर प्रायः किसी एक वस्तु की प्रधानता को ले कर जीता है । बुद्धिवाद की प्रधानता में जीने वाला व्यक्ति प्रायः बहिर्मुखी हो कर संसार की
" जिमि प्रति लाभ लोभ अतिकाई " मृग तृष्णा में उलझ कर रह जाता है । तथा उसी बुद्धि को भगवत समर्पित कर के हृदय, प्रेम, प्रीति प्रधान जीवन जीने से उसकी वृत्ति अंतर मुख होकर परमात्मा की तरफ प्रवाहित होती है ।
गीता में भगवान ने कहा है......
" ददामि बुद्धि योगम् तम्, येन माम् उपयान्तिते " भगवान कहते हैं कि.....निरंतर परमात्मा में प्रेम से लगे रहने वाले लोगों को भगवान बुद्धि नहीं.....बुद्धियोग देते हैं (ईश्वर, भक्ति, प्रेम, समर्पित बुद्धि) जिससे व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ।
रामायाण में तुलसी दास जी माँ जानकी की वन्दना करते हुए कहते हैं.......ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपा निरमल मति पावउँ ॥ जब तक पदार्थानुगामिनी बुद्धि के ऊपर इच्छाओं के ऊपर इंद्रिय सुखों से प्रभावित मस्तिष्क एवं विचारों के ऊपर विवेक का परमात्मा की भक्ति से निमज्जित सद विचारों का अनुशासन नहीं होगा तब तक जीवन में पूर्णता संम्भव नहीं है ।
हमेंशा ही ज्ञान की पूर्णता भक्ति में होती है और जो भक्त होता है वह ज्ञानी होता ही है । इस लिये हमारे बुद्धि प्रधान जीवन में भी प्रधानता तो एक मात्र हृदय, भाव, विवेक एवं प्रीति सम्पन्नता की ही होनी चाहिये ।
गोपाल कृष्ण शुक्ल-- मानसी जी !
जो मनुष्य अपने ही समान संपूर्ण जगत मे सम देखता है, सुख अथवा दुख मे सम देखता है वही श्रेष्ठ मनुष्य माना गया है, और यह सम देखने की क्षमता मष्तिष्क के द्वारा ही प्राप्त होती है।
यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि सादृश्यता से सम देखने का यही अभिप्राय है कि जैसे हम अपने सिर, हाथ पैर अथवा शरीर के अन्य अंगों मे भिन्नता होते हुए भी उनमे समान रूप से आत्मभाव रखते है अर्थात सारे अंगों मे अपनापन समान होने से सुख और दुख को समान देखते हैं, वैसे ही सम्पूर्ण जगत को जो मनुष्य समभाव से देखता है वही श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी मे आता है... और यह सम भाव से देखने की प्रेरणा बुध्दि अथवा मष्तिष्क से ही प्राप्त होती है।
अन्त मे इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रीति का जन्म मष्तिष्क और हृदय के सम होने पर ही संभव है ।
....... सादर !
मानसी पाण्डेय-- आदरणीय शुक्ला जी !
आपने आपका कथन शुद्ध ज्ञान योग की पृष्ठभूमि से उठाया है
और मेरी बात भक्ति के धरातल से है, बस इतना ही अन्तर है, और ज्ञान तब तक शुष्क एवं नीरस ही प्रतीत होता है, जब तक उसमें भक्ति संमिश्रित ना हो, हाँ एक बात और भी आपको स्मरण रहनी चाहिये कि......ज्ञान सुरभित, कुसुमित, एवं प्रफुल्लित होता है, एक मात्र भक्ति से ही.......क्योंकि ज्ञान की शोभा {पूर्णता} ही भक्ति से है, साक्षात शुद्ध ज्ञान के मूर्तिमंत विग्रहवान स्वरूप भगवान आद्यगुरू शंकराचार्य ने डिम-डिम घोष करते हुए उद्घोषणा की है कि......." भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज, मूढ़मते " ||
गोपाल कृष्ण शुक्ल-- माननीया मानसी जी !
आपका कथन सत्य है परन्तु मष्तिष्क (बुध्दि) को अनदेखा नही किया जा सकता है...
प्रीति दो प्रकार की कही गयी है - (१) वैधी प्रीति, (२) अनुरागा प्रीति ।
वैधी प्रीति में प्रवृत्ति की प्रेरणा शास्त्र से मिलती है, जिसे विधि कहते हैं। शास्त्रग्य, दृढ विश्वासयुक्त, तर्कशील, बुध्दिसम्पन्न तथा निष्ठावान साधक ही वैधी प्रीति के अधिकारी हैं। वे शास्त्र विधि के अनुसार अपने आराध्य की सेवा-पूजा और उपासना करते हैं। उदाहरण स्वरूप - देवर्षि नारद के उपदेश ने प्रह्लाद, ध्रुव आदि के मन मे भगवत प्रीति का बीज अंकुरित किया, ये वैधी प्रीति के अनुगामी थे।
अनुरागा प्रीति अत्यन्त राग के कारण उत्पन्न होती है अनुरागा प्रीति स्वाभाविक आसक्ति ही है। मनुष्य के हृदय में इस अनुरागा प्रीति अथवा स्वाभाविक आसक्ति का बीज भी मष्तिष्क के द्वारा ही रोपित किया जाता है।
वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य प्रीति तो कांचन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठा से कर रहा है। मनुष्य सच्ची प्रीति के लिये हृदय मे कामना ही नही कर रहा। यह कामना मनुष्य के मष्तिष्क द्वारा ही रोपित की जा सकती है पर मनुष्य का मष्तिष्क सिर्फ़ लाभ-लोभ तक ही सीमित रह गया है।
अन्त मे यही कहूंगा कि मनुष्य मे प्रीति के लिये मष्तिष्क और हृदय की समरसता अत्यन्त आवश्यक है।
................... सादर !
अविनाश राय--- नमस्कार
,
कुछ दिन पूर्व ही यह विषय देखा था आपकी वॉल पर। प्रीति हृदय से होती है या मस्तिष्क से।
वैसे तो बहुत कुछ है कहने को इस विषय पर, परंतु मेरा मानना है की पहले दिल और दिमाग के खेल को ही समझ लिया जाए। वैसे तो इस पर श्री अशोक चक्रधर ने काफी स्पष्ट लिखा है अपनी वॉल पर (http://www.facebook.com/no tes/ashok-chakradhar/kauna -sunata-visphota/148400798 527950)
प्रेम तो लगभग सभी ने किया है अपने जीवन में। विषय, हालात, कारक, कारण, अलग हो सकते हैं परंतु ये सच्चाई सभी की है। किसी ने ईश्वर से तो किसी ने मनुष्य से। प्रेम विषय पर अभी कुछ दिन पहले भी मैंने लिखा था की अध्यात्म, दर्शन, विज्ञान - और सबसे महत्वपूर्ण "अनुभव" - के बिना की गई बातें सिर्फ किताबी और खोखली रह जाती हैं।
पढ़ कर थोड़ा असहज लगा कि प्रेम को सिर्फ ईश्वर से जोड़ा जा रहा था। । प्रेम क्या सिर्फ ईश्वर के लिए है? मनुष्य के सभी भाव क्या ईश्वर के लिए ही हैं? यदि ऐसा है तो घृणा, डाह आदि का क्या? ज्ञान है तो बलपूर्वक जो चाहें क्या वो सिद्ध कर सकते हैं? सत्य कहूँ तो मुझे "योग" नहीं समझते, समझना चाहता भी नहीं हूँ। मेरा विश्वास है कि उपलब्ध सभी ज्ञान लिखित रूप में होने के पीछे मात्र एक कारण है - और वो है - व्यक्ति जिस अनुभव को स्वयं न समझ सके उसको वह अनुभव समझने में सहायता करना। उदा0- ईश्वर है। इसको मानने और पाने के लिए 100 तरह से बताया गया है। परंतु जिसने ईश्वर की स्वतः अनुभूति कर ली हो उसको किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।
हम सभी जानते हैं कि प्रेम एक भाव है। भाव यदि सच्चा है - वास्तविक है - तो वो नपा-तुला नहीं हो सकता, काटा-जोड़ा नहीं हो सकता। भाव हृदय से उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क या दिमाग का इसमें कोई कार्य नहीं। उसका क्रिया भाग तभी बन सकता है जब कि उसमें कोई फ़ायदा-नुकसान देखा जाए।
प्रेम के पूरे जीवनचक्र पर यहाँ चर्चा करना उचित नहीं, संभव भी नहीं... परंतु मेरा मानना है कि प्रारम्भिक दो मुख्य चरण होते हैं - प्रेम भाव का उदय और प्रेम की पूरी तरह से स्थापना। प्रेम चूंकि भाव है अतः इसका उदय हृदय से ही होता है इसमें कोई शंका हो ही नहीं सकती। इसकी स्थापना मस्तिष्क का कार्य है, इसमें कैसी भी शंका के लिए स्थान नहीं है।
निःशंक अनुमोदन है कि मनुष्य मे प्रीति के लिये मष्तिष्क और हृदय की समरसता अत्यन्त आवश्यक है। उदय भानु जी की बात को इसमें जोड़ते हुए कहूँगा कि "परंतु हृदय का स्थान प्राथमिक है"।
-- सादर
प्रेम तो लगभग सभी ने किया है अपने जीवन में। विषय, हालात, कारक, कारण, अलग हो सकते हैं परंतु ये सच्चाई सभी की है। किसी ने ईश्वर से तो किसी ने मनुष्य से। प्रेम विषय पर अभी कुछ दिन पहले भी मैंने लिखा था की अध्यात्म, दर्शन, विज्ञान - और सबसे महत्वपूर्ण "अनुभव" - के बिना की गई बातें सिर्फ किताबी और खोखली रह जाती हैं।
पढ़ कर थोड़ा असहज लगा कि प्रेम को सिर्फ ईश्वर से जोड़ा जा रहा था। । प्रेम क्या सिर्फ ईश्वर के लिए है? मनुष्य के सभी भाव क्या ईश्वर के लिए ही हैं? यदि ऐसा है तो घृणा, डाह आदि का क्या? ज्ञान है तो बलपूर्वक जो चाहें क्या वो सिद्ध कर सकते हैं? सत्य कहूँ तो मुझे "योग" नहीं समझते, समझना चाहता भी नहीं हूँ। मेरा विश्वास है कि उपलब्ध सभी ज्ञान लिखित रूप में होने के पीछे मात्र एक कारण है - और वो है - व्यक्ति जिस अनुभव को स्वयं न समझ सके उसको वह अनुभव समझने में सहायता करना। उदा0- ईश्वर है। इसको मानने और पाने के लिए 100 तरह से बताया गया है। परंतु जिसने ईश्वर की स्वतः अनुभूति कर ली हो उसको किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।
हम सभी जानते हैं कि प्रेम एक भाव है। भाव यदि सच्चा है - वास्तविक है - तो वो नपा-तुला नहीं हो सकता, काटा-जोड़ा नहीं हो सकता। भाव हृदय से उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क या दिमाग का इसमें कोई कार्य नहीं। उसका क्रिया भाग तभी बन सकता है जब कि उसमें कोई फ़ायदा-नुकसान देखा जाए।
प्रेम के पूरे जीवनचक्र पर यहाँ चर्चा करना उचित नहीं, संभव भी नहीं... परंतु मेरा मानना है कि प्रारम्भिक दो मुख्य चरण होते हैं - प्रेम भाव का उदय और प्रेम की पूरी तरह से स्थापना। प्रेम चूंकि भाव है अतः इसका उदय हृदय से ही होता है इसमें कोई शंका हो ही नहीं सकती। इसकी स्थापना मस्तिष्क का कार्य है, इसमें कैसी भी शंका के लिए स्थान नहीं है।
निःशंक अनुमोदन है कि मनुष्य मे प्रीति के लिये मष्तिष्क और हृदय की समरसता अत्यन्त आवश्यक है। उदय भानु जी की बात को इसमें जोड़ते हुए कहूँगा कि "परंतु हृदय का स्थान प्राथमिक है"।
-- सादर