सोमवार, 12 सितंबर 2011

डा. राधाकृष्णन


'दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है और धर्म का अंतिम लक्ष्य सत्य का अनुभव है।' यह विचार भारत के पूर्व राष्ट्रपति, निष्काम योगी डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हैं।

रत्नगर्भा भारतवर्ष में आदर्श गुरुओं की सुदीर्घ परंपरा रही है। गुरुओं की इसी आदर्श परंपरा में आधुनिक युग में एक महामानव का आविर्भाव हुआ, जिन्हें संसार सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन के नाम से जानता है।

वे भारतीय सामाजिक संस्कृति से ओत-प्रोत आस्थावान हिंदू थे। इसके साथ ही अन्य समस्त धर्मावलंबियों के प्रति भी गहरा आदर भाव रखेते थे। जो लोग उनसे वैचारिक मतभेद रखते थे, उनकी बात भी वे बड़े सम्मान एवं धैर्य के साथ सुनते थे। विश्व में उन्हें हिंदुत्व के परम विद्वान के रूप में जाना जाता था।

डा. राधाकृष्णन भाषण कला के आचार्य थे। विश्व के विभिन्न देशों में भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन पर भाषण देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाता था। श्रोता उनके भाषण से मंत्रमुग्ध हो कर रह जाते थे। डा. राधाकृष्णन में विचारों, कल्पना तथा भाषा द्वारा विचित्र ताना-बाना बुनने की अद्भुत क्षमता थी। वस्तुत: उनके प्रवचनों की वास्तविक महत्ता उनके अंतर में निवास करती थी। उनकी यही आध्यात्मिक शक्ति सबको प्रभावित करती थी, अपनी ओर आकर्षित करती थी और संकुचित क्षेत्र से उठाकर उन्मुक्त वातावरण में ले जाती थी।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने का कहना था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-भेद नहीं करती। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अहंकारी जीवन से बेहतर है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सक्षम थे। वे ईसाई मिशनरियों द्वारा की गई भारतीय संस्कृति की आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखते और उसका उचित उत्तर देते थे। डा. राधाकृष्णन का कहना था कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। डॉ. राधाकृष्णन अपने भाषणों मे कहते थे कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। डा. राधाकृष्णन ने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को पूरे विश्व में उच्च स्थान पर स्थापित किया।

डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा किमानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। सब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो्ना चाहिये। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर रहते हुए भी वह शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देते रहे। उनका कहना था कि यदि शिक्षा सही प्रकार से दी जाए तो समाज से अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे। विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं ही चाय देते थे और साथी की भाँति उन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते थे। राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका मानना था कि जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी न हो तो अध्यापन का कार्य अधिक श्रेष्ठ हो जाता है।

अपने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशन द्वारा सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इन्हें 1922 में 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सटियों के सम्मेलन में कलकत्ता यूनिवर्सटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएँ भी कीं। इनका सभी स्थानों पर शानदार स्वागत किया गया। इन्हें आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों के द्वारा सम्मानित भी किया गया। डॉक्टर राधाकृष्णन को यूरोप एवं अमेरिका के प्रवास के प्रत्येक क्षणों की स्मृति थी। इंग्लैण्ड के समाचारों पत्रों ने इनके वक्तव्यों की आदर के साथ प्रशंसा की। उनकी टिप्पणियों से प्रकट होता था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ऐसी प्रतिभा हैं जो न केवल भारत के दर्शन शास्त्र की व्याख्या कर सकता है बल्कि पश्चिम का दर्शन शास्त्र भी उनकी प्रतिभा के दायरे में आ जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। उनके इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे।

1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। कांग्रेस के अधिकांश सदस्यों को आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। बाद में उनका यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितंबर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा। राष्ट्रपति बनने के बाद कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गए और उन्होंने निवेदन किया था कि वे उनका जन्मदिन 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाना चाहते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा, 'मेरा जन्मदिन 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने के आपके निश्चय से मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।' तभी से 5 सितंबर देश भर में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। सन 1962 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 13 मई, 1962 को 31 तोपों की सलामी के साथ राष्ट्रपति के पद की शपथ ली।

बर्टेड रसेल जो विश्व के जाने-माने दार्शनिक थे, वह राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर अपनी प्रतिक्रिया को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा था – यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक होने के नाते मैं विशेषत: खुश हूँ। प्लेटो ने कहा था कि दार्शनिकों को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रृद्धांजली अर्पित की है।

राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की भाँति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंने सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद वह ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, इंग्लैण्ड, अमेरिका, नेपाल, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया तथा आयरलैण्ड गए। वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन 'व्हाइट हाउस' में हेलीकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुँचे थे। इससे पूर्व विश्व का कोई भी व्यक्ति व्हाइट हाउस में हेलीकॉप्टर द्वारा नहीं पहुँचा था।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की तुलना में राधाकृष्णन का कार्यकाल काफ़ी कठिनाइयों से भरा था। इनके कार्यकाल में जहाँ चीन और पाकिस्तान से युद्ध हुए, वहीं पर दो प्रधानमंत्रियों की पद पर रहते हुए मृत्यु भी हुई। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तो भारत की अपमानजनक पराजय हुई थी। उस समय वी. के. कृष्णामेनन भारत के रक्षामंत्री थे। तब पंडित नेहरू को डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ही मजबूर किया था कि कृष्णामेनन से इस्तीफ़ा तलब करें, जबकि नेहरू जी ऐसा नहीं चाहते थे।

चीन के साथ युद्ध में पराजित होने के बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन पंडित नेहरू की भी आलोचना की थी। बेशक वह पंडित नेहरू के काफ़ी निकट थे, लेकिन उन्होंने आलोचना के स्थान पर आलोचना की और मार्गदर्शन की आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन भी किया। यह राधाकृष्णन ही थे जिन्होंने पंडित नेहरू को मजबूर किया था कि वह लालबहादुर शास्त्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करें। उस समय कामराज योजना के अंतर्गत शास्त्री जी बिना विभाग के मंत्री थे। पंडित नेहरू के गम्भीर रूप से बीमार रहने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय शास्त्रीजी के परामर्श से ही चलता था।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कार्यकाल में ही पंडित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नये प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया। जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए।

1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने देश को सम्बोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यद्यपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफ़ी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति का दायित्व ग्रहण करें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर पूरी तरह से अमल किया।

डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल पूर्ण करने के बाद गृहराज्य के शहर मद्रास चले गए। वहाँ उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। 1968 में उन्हें भारतीय विद्या भवन के द्वारा सर्वश्रेष्ठ सम्मान देते हुए साहित्य अकादमी की सदस्यता प्रदान की गई। डॉक्टर राधाकृष्णन ने एक साधारण भारतीय इंसान की तरह अपना जीवन गुज़ारा था। वह परम्परागत वेशभूषा में रहते थे। वह सफ़ेद वस्त्र धारण करते थे। वह सिर पर दक्षिण भारतीय पगड़ी पहनते थे, जो कि भारतीय संस्कृति का प्रतीक बनकर सारे विश्व में जानी गई। राधाकृष्णन साधारण शाकाहारी भोजन करते थे। उन्होंने एक लेखक के रूप में 150 से अधिक रचनाएँ लिखीं।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

डॉ. राधाकृष्णन के द्वारा अपने देश भारत के लिये किया गया अमूल्य योगदान हमेशा याद किया जायेगा।

वन्दे मातरम............................

भारत माता की जय..................